फिल्‍म द कश्मीर फाइल्स , इस्‍लाम, जिहादियत और हिन्‍दू

फिल्‍म द कश्मीर फाइल्स , इस्‍लाम, जिहादियत और हिन्‍दू
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जब आप अपने को ही श्रेष्‍ठ मान बैठते हैं, ज‍ब आप अपने पंथ को ही सर्वोच्‍च मानने लगते हैं और जब आप अपने सिवा किसी और का अस्तित्‍व भी स्‍वीकार्य नहीं करना चाहते, तब सामूहिक तौर पर पंथ के आधार पर नरसंहार का भीभत्‍स दौर शुरू होता है। फिर वह नोआखाली में हो, मोपलाओं का इस्‍लामिक जिहाद हिन्‍दुओं के खिलाफ हो या फिर वह कश्‍मीर का रक्तरंजित कर देनेवाला 90 का दशक हो, जिसमें कि ना जाने कितने लोगों की जान सिर्फ इसलिए ले ली गई क्‍योंकि उनका विश्‍वास उस मत और पंथ पर नहीं था, जिसके मानने वाले अपने अलावा किसी अन्‍य को श्रेष्‍ठ छोड़िए समान भी स्‍वीकार्य करना नहीं चाहते हैं।

इतिहास इस बात को चीख-चीख कर सदियों तक आनेवाली पीढ़ियों को बताता रहेगा कि कैसे मासूमों से शरीर से एक नहीं अनेकों द्वारा खिलवाड़ किया जाता रहा, बलात्‍कार शब्‍द या रैप शब्‍द भी जहां शर्मिंदा हो जाए वह करने में सामनेवालों को जरा भी शर्म नहीं आई। सिर्फ इसलिए क्‍योंकि उन तमाम बच्‍चि‍यों और महिलाओं का विश्‍वास उन एकेश्‍वरवादी इस्‍लाम में नहीं था, जिसे कि वे पांथिक तौर पर सर्वोच्‍च मान रहे हैं। अपने बुरे कृत्‍य को जिहाद का नाम देने वाले इन आतंकियों ने हिन्‍दू पंडितों को तत्‍कालीन समय में ऐसे गोलियों से,जलाकर और छुरा, चाकुओं से मौत के घाट उतारा जैसे कोई सब्‍जी को काटता है।

वस्‍तुत: विवेक अग्निहोत्री द्वारा निर्देशित फिल्‍म द कश्मीर फाइल्स तत्‍कालीन सत्‍ता, समाज और संपूर्ण मानवाधिकार की ठेकेदारी करनेवाली संस्‍थाओं के साथ विश्‍व के उन तमाम देशों पर प्रश्‍न खड़े करती है, जो छोटे-छोटे मुद्दे तो बड़ी ही शिद्दत से उठाते हैं, किंतु जिनके लिए कश्‍मीर से हिन्‍दुओं का पलायन और उन पर हुए जुल्‍म आज भी कोई मायने नहीं रखते। यहां उन्‍हें जिहाद में कट्टरता और क्रूरता की बू नहीं आती? अंतरराष्‍ट्रीय संगठन चुप नजर आते हैं? भारत में व्‍यर्थ के मुद्दों पर सड़क पर आन्‍दोलन करनेवाले एनजीओ भी जैसे इस मुद्दे पर खामोश हैं? पुरानी फाइलों में दबा यह सच जब फिल्‍म के माध्‍यम से दृष्‍यों से होता हुआ सामने आता है तो वह किस तरह से विचलित कर सकता है, इसका जीता प्रमाण है यह फिल्‍म द कश्मीर फाइल्स । अपनी जमीन और पुरखों से दूर होना क्‍या होता है, उसका दर्द वास्‍तव में वही बता सकता है, जिसने उसे भोगा है, या कहना होगा कि उसके जीवन का यह भोगा हुआ यथार्थ है ।

आज इस फिल्‍म को देखने के बाद जिस तरह से दर्शकों की प्रतिक्रिया आ रही है, लोग (माताएं, बहने और पुरुष) जब फिल्‍म देखकर सिनेमा हॉल से बाहर निकल रहे हैं तो स्‍तब्‍ध नजर आ रहे हैं। वे रोते हुए, बिलखते हुए, विचलित से सिनेमा हॉल से बाहर निकल रहे हैं, तब यह सीधे समझा जा सकता है कि फिल्‍म ने प्रत्‍येक की आत्‍मा को झकझोर कर रख दिया है। 90 के दशक में इस्‍लामिक चरमपंथियों और आतंकवादियों ने जो आग बरसाई, उसका दर्द आज फिर से उभर आया है।

फिल्‍म की कथा और सत्‍यता कितनी गहरी है वह इससे भी समझा जा सकता है कि घाटी में इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा कश्मीरी हिन्दुओं के नरसंहार और पलायन पर बनी फिल्‍म को लेकर निर्देशक विवेक अग्‍निहोत्री को सेंसर बोर्ड द्वारा कट्स की लंबी सूची थमाई गई थी, जिसके बाद उन्हें इसके प्रदर्शन को लेकर काफी संघर्ष तक करना पड़ा था। बोर्ड को 'इस्लामी आतंकी' शब्द से भी आपत्ति थी। अपनी बात को साबित करने के लिए सेंसर बोर्ड के समक्ष निर्देशक ने कई दस्तावेज और सबूत भी रखे, इसके बाद भी फिल्‍म से कई दृष्‍य हटाए गए हैं।

इतना ही नहीं तो बॉम्बे हाई कोर्ट में फिल्‍म रिलीज पर रोक लगाने की मांग से संबंधित याचिका दायर की गई। जिसमें कहा गया था कि फिल्म कंटेंट समुदाय विशेष के खिलाफ है। फिल्म का ट्रेलर मुस्लिम समुदाय को गलत ढंग से पेश करता है और कुछ दृश्यों से सामुदायिक कटुता को बढ़ावा मिलता है। यह याचिका उत्तर प्रदेश निवासी इंतजार हुसैन सैय्यद की ओर से लगाई गई थी। यानी कि इसे सिनेमा हॉल में प्रदर्श‍ित होने से कैसे रोका जा सकता है, इसके तमाम प्रयास किए गए। किंतु सत्‍य तो सत्‍य ही होता है, इसलिए न्‍यायालय ने भी इसे भारतीय मानस पटल पर रखने की अनुमति प्रदान की।

रिटायर्ड टीचर पुष्कर नाथ पंडित (अनुपम खेर) और उनके परिवार को केंद्र में रख कर चलने वाली फिल्‍म की कहानी का हर दृष्‍य आपको बांधे रखता है। हर किसी ने अपने अभिनय के साथ न्‍याय किया है। फिल्म बहुत सारे पीड़ितों की सच्ची कहानियों और दस्तावेजों पर आधारित है। जिसे देखने के बाद आपको भी यही महसूस होगा कि हम किस सेक्युलरिज्म की चादर ओढ़े हुए हैं, जिसमें हर बार बहुसंख्‍यक हिन्‍दू को ही निशाना बनाया जाता है, उसे ही ठगा जाता है।

कश्मीरियों की दुर्दशा और उस पर राजनेताओं की संवेदनहीनता को देखकर आपको दर्द होता है। पुरानी पीढ़ियों से होता हुआ यह दर्द आज नई पीढ़ी की रगों में दौड़ रहा है। अब तक अपनी जमीन और घर से बेदखल होने के बाद पूरी जिंदगी फिर से वहां जाने का ख्वाब देखते हुए कई लोग इस दुनिया को अलविदा कह चुके हैं। फिर भी आशा की चिंगारी अभी शेष है। पंडित लोग अपने ही देश में निर्वासित जीवन से मुक्‍त होकर प्रकृति के अनुपम स्‍वर्गमय कश्‍मीर में फिर से लौटना चाहते हैं। आज ये फिल्‍म ऐसी कई सारी बातें सामने लाती है, जो देश से प्रेम करनेवाले प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति को जाननी चाहिए।

द कश्मीर फाइल्स एक ऐसी फिल्‍म है, जो आपको भावनात्मक रूप से जगाती है। फिल्म यह सोचने पर विवश करती है कि आखिर कश्‍मीरी हिन्‍दुओं को न्‍याय कब मिलेगा? सच पूछिए तो यह कश्‍मीरी पंडितों पर आतंकियों के जुल्‍म को मुखरता से दिखानेवाली फिल्‍म है। इस्लामिक आतंकवादियों द्वारा पंडितों को उनके घरों से भगाने की कहानी है ये । इस्‍लामिक आतंकवाद और जिहाद से मुक्‍ति मिले, इसके लिए विमर्श खड़ा करनेवाली फिल्‍म है ये ।

अंत में कहना होगा कि यह मनोरंजन का सिनेमा नहीं है, बल्कि संवेदना का दर्द से भरा भावनाओं का सिनेमा है। जिसे देखने के लिए अपने घरों से सिनेमा हॉल तक हर किसी देशभक्‍त को एक बार अवश्‍य ही निकलना चाहिए।

लेखक फिल्‍म सेंसर बोर्ड एडवाइजरी कमेटी के पूर्व सदस्‍य और पत्रकार हैं।

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