मसला मप्र.-उप्र. में सत्ता परिवर्तन - खबर लीजिए, खबर देने वालों की
भोपाल/लखनऊ। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ ही मुयमंत्री रहेंगे। मध्यप्रदेश में भाजपा सरकार का नेतृत्व शिवराज सिंह ही करेंगे। इसमें या नई बात है? देश के तमाम खबरिया चैनल कथित रुप से मुयधारा के बड़े-बड़े समाचार पत्र या अपनी ही खबरों का संज्ञान लेंगे? या यह 'टेबल न्यूज' थी? या यह 'प्लांटेड थी?' दो प्रदेशों में राजनीति अस्थिरता एवं भ्रम का वातावरण किसने पैदा किया, यों किया, या इस पर एक पड़ताल नहीं होनी चाहिए? बेशक राजनीति अनंत संभावना का नाम है। स्वदेश यह भी दावा नहीं करता कि दोनों प्रदेशों में कोई भी परिवर्तन होगा ही नहीं और न वह यह कहना चाह रहा है या संकेत कर रहा है कि परिवर्तन होगा ही। उत्तरप्रदेश में चुनाव 2022 में हैं। मध्यप्रदेश में 2023 में। दोनों ही प्रदेशों में योगी आदित्यनाथ एवं शिवराज सिंह चौहान ने वैश्विक आपदा के बीच शानदार प्रदर्शन करने का प्रयास किया है। शीर्ष नेतृत्व प्रदेश एवं देश के भविष्य की राजनीतिक आवश्यकताओं के चलते निर्णय लेता ही है। पर यह निर्णय गंभीर निर्णय होते हैं। राजनीतिक संभावनाओं का विश्लेषण कोई फिल्मी दुनिया के गॉसिप नहीं है। यह अलग बात है कि आज राजनीतिक कानाफूसी के पाठक, दर्शक अधिक हैं। पर यह लत देश के नेताओं ने 'ऑफ द रिकॉर्ड' ब्रीफिंग करके ही पैदा की है। मध्यप्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन होगा या नहीं होगा। यह केन्द्र का विषय कल भी था आज भी है। पर पिछले 15 दिनों में राजनीतिक मेल मिलाप की तस्वीरें प्रायोजित कर नेताओं ने प्रकाशित करवाई या मीडिया की यह खुद की पहल है, इसकी तह में जाना चाहिए। कारण मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री से लेकर प्रदेश अध्यक्ष तक चार पांच नाम इस प्रकार प्रस्तुत किए गए कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अधिकृत रूप से अलग-अलग बुलाकर सभी कथित दिग्गज पत्रकारों को अलग-अलग नाम बताए। यही खेल उत्तरप्रदेश में भी चला। यहां पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व की भूमिका भी बताई गई। अब यही सब लिख रहे हैं, बता रहे हैं कि परिवर्तन नहीं होगा। साथ ही अब यह भी लिखा जा रहा है कि प्रदेश नेतृत्व ने दिल्ली को आंखें दिखा दी हैं।
आशय यह बिलकुल नहीं कि मीडिया पर्दे के पीछे या नेपथ्य में चल रही, पक रही खबरों पर स्वयं संज्ञान न ले। मीडिया का यह काम है। पर राजनीतिक विश्लेषण में तथ्यों की गंभीरता का, सूत्र की विश्वसनीयता का गहरा महत्व है। यह कोई कसौटी जिन्दगी जैसा कोई सीरियल नहीं है, जहां पल-पल कपड़ों की तरह रिश्ते बदल रहे हों। बेशक राजनीति भी उस दौर में प्रवेश कर चुकी है। पर मीडिया को स्वयं की साख के लिए इस प्रकार खुद को बार-बार दांव पर लगाना उसके होने पर भी प्रश्न चिन्ह खड़ा करेगा। एजेंडा जर्नलिज्म चलाने वाले तो सच भी जानते हैं और अपने हित भी साध लेते हैं। पर जमीनी स्तर पर कार्य कर रहे कार्यकर्ताओं के मन में एक दूरी आती है जो संगठन की चिंता बढ़ाती है। यह मीडिया की चिंता का विषय हो भी नहीं सकता। पर इसके कारण शीर्ष नेतृत्व को तलाश कर इलाज करना चाहिए साथ ही यह सावधानी बरतनी चाहिए कि भ्रम फैलाने वाले संदेश न जाएं।
कारण यह पहली बार ही नहीं हुआ है। आखिरी बार है, ऐसा भी नहीं। इसलिए यह प्रसंग मीडिया को भी एक अवसर देता है, कि वह अपनी ही खबरों को फिर एक बार खुद भी पढ़े। कारण, कल तक परिवर्तन की घोषणा को आज नकारने का अब या आधार है यह उसे बताना चाहिए। आवश्यक एवं प्रायोजित तरीके से इस प्रकार का वातावरण बनाने से प्रशासन भ्रमित होता है, जो इस आपदा के दौर में चिंता का विषय है। जवाब ढूंढना चाहिए कि परिवर्तन होगा, यह खबर किस दरवाजे से आई? या पार्टी के अंदर ऐसा समूह है जो प्रदेश में अस्थिरता चाह रहा है। भाजपा मध्यप्रदेश के मीडिया प्रभारी लोकेन्द्र पाराशर ट्वीट कर काफी कुछ कहने का प्रयास करते हैं। ट्वीट के अनुसार अखबारी दतर में शाम ढलते ढलते खबर चूकने का तनाव बढ़ता जाता है। योंकि एंटी सोशल मीडिया दिन भर में कचरे का पहाड़ बन जाता है। श्री पाराशर वरिष्ठ पत्रकार रहे हैं। वे जानते हैं गंभीर खबर चूकने पर भी और असत्य खबर प्रकाशित होने पर संपादक संवाददाता की खबर लेता है। पर अभी ऐसा नहीं होने वाला कारण यों और किसने यह छपवाई, यह संपादक भी जान रहे हैं और नेता कौन हैं, इससे वो भी बेखबर नहीं।