अपने 'स्व' को आत्मसात करें हम

अपने स्व को आत्मसात करें हम
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  • डॉ. मनमोहन वैद्य, सह सरकार्यवाह, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

वेबडेस्क। भारत के सिवा दुनिया में शायद ही ऐसा कोई देश होगा जहां के समाज के मन में 'हम कौन हैं? हमारे पुरखे कौन थे? हमारा इतिहास या रहा है? इसके बारे में कोई सभ्रम या भिन्न भिन्न मत होंगे। पर भारत में, जो दुनिया का सबसे प्राचीन राष्ट्र है और जहां सबसे समृद्ध समाज रहने के बावजूद हमारी इस विषय पर सहमति नहीं है। इसका एकमात्र कारण यही दिखता है कि हम एक समाज और एक राष्ट्र के नाते अपने 'स्व' को आत्मसात् करना नहीं चाहते। कुछ उदाहरण देखें। द्वितीय विश्वयुद्ध के विनाश के उपरांत (1945) ब्रिटेन, जर्मनी और जापान ने नई शुरूआत की थी। सैकड़ों वर्षों के संघर्ष के बाद 1948 में इजराएल ने भी अपने राष्ट्र को पुन: प्राप्त किया था। भारत ने भी शतकों की गुलामी और शोषण के उपरांत और देश विभाजन के बाद 1947 में स्वाधीनता प्राप्त की थी। लगभग एकसाथ नए सिरे से शुरुआत करने वाले इन देशों को आज हम देखते हैं तो भारत की तुलना में इन चारों देशों की स्थिति बहुत अच्छी दिखती है। या कारण रहा होगा? एक सामाजिक चिंतक के अनुसार 'जब तक एक समाज के नाते हम कौन हैं, यह हम तय नहीं करते, हम अपनी दिशा और प्राथमिकताएँ तय नहीं कर सकते। यही अंतर है भारत और इन देशों की विकास यात्रा में, जो कि करीब एक साथ ही शुरू हुई थी। अपने 'स्वदेशी समाजÓ इस ऐतिहासिक निबंध में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर लिखते हैं कि 'हमें सबसे पहले हम जो है वह बनना पड़ेगा।यह अद्भुत संयोग ही है कि आज जब हमारा देश स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मनाने जा रहा है तब एक ऐसा कालखंड आया है जब एक राष्ट्र के नाते भारत अपने 'स्व के आधार पर अपनी एक नई पहचान बनाने के लिए प्रयासरत है - परंतु इसका भी विरोध यों होता है, इस पर विचार होना चाहिए।

स्व के प्रकट होने के अवसरों को नकारा गया -

भारत के आधुनिक इतिहास में हमें दिखता है कि भारत की यह पहचान, भारत का यह 'स्व जो सदियों पुराना है, सर्वविदित है, सुस्पष्ट है उसे ही नकारा गया। इसे नकारने को लिबरल, intellectual कहलाने का फैशन चल पड़ा। स्पष्ट दिखता है कि भारत ने चूँकि अपनी विकास यात्रा की दिशा अपने 'स्व के आलोक में तय नहीं की इसलिए भारत का उसकी क्षमता के आधार पर जितना विकास अब तक होना चाहिए था वह हम नहीं कर सके। भारत के इस 'स्व के प्रकट होने के कई अवसर आए, परंतु दुर्भाग्य से उन्हें लगातार नकारा गया। देशभति को प्रकट करता था वंदे मातरम्, फिर सांप्रदायिक कैसे? हम जानते हैं कि 1905 में बंगाल के विभाजन के विरुद्ध हुए जन आंदोलन का उद्घोष 'वन्दे मातरा् गीत बना था। 'वन्देमातरा् ने हजारों युवकों को, क्रांतिकारियों को स्वाधीनता के आंदोलन में कूदने की, देश पर मर मिटने की प्रेरणा दी। 'वन्दे मातरा् भारत के 'स्वका सहज प्रस्फुटन था। कांग्रेस के अखिल भारतीय अधिवेशनों में इस का गौरवपूर्ण गान होता था। पंडित ओंकारनाथ ठाकुर, पंडित विष्णु दिगबर पलुस्कर जैसे दिग्गज गायक इसे स्वरबद्ध कर कांग्रेस के अधिवेशनों में गाते थे। हिंदू- मुसलमान सभी इससे समान रूप से प्रेरणा पाते थे। फिर अचानक 1921 से यह केवल हिंदुओं का गीत और साप्रदायिक कैसे हो गया? इसके पीछे की मानसिकता को समझना आवश्यक है। 1905 से 15 वर्षों तक जो देशभति का स्वाभाविक प्रस्फुटन था वह अचानक साप्रदायिक कहकर कैसे और यों नकारा गया, यह समझना आवश्यक है। एक और उदाहरण देखें। स्वतंत्र भारत के ध्वज का सर्वप्रथम नमूना विवेकानंद की शिष्या भगिनी निवेदिता ने 1905 में बनाया। दधीचि ऋषि के तपस्वी देहत्याग से बना वज्र चिह्न अंकित ध्वज उन्होंने बनाया। पर आगे वे लिखती हैं, ""unfortunately we had a Chinese war flag as model in front of us, so we made it black on red. But it doesn't appeal to Indians. So, next one will be yellow on saffron." 1906 के कांग्रेस अधिवेशन में भगवे कपड़े पर पीला वज्रचिह्न ऐसा ध्वज प्रदर्शित हुआ था।

कैसे बना भारत का राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा -

इसके पश्चात विविध ध्वजों के विभिन्न नमूने प्रस्तावित हुए। 1921 में भारत के सभी समुदायों का प्रातिनिधिक चरखांकित तिरंगा ध्वज बनाया गया। 1929 में मास्टर तारासिंह के नेतृत्व में एक सिख प्रतिनिधि मण्डल महात्मा गांधी जी से मिला और उन्होंने अलग-अलग समुदायों के प्रतिनिधिक ध्वज की कल्पना का विरोध किया और सभी के बीच रही एकता को दर्शाने वाला राष्ट्रीय ध्वज बनाने पर जोर दिया और कहा यदि अलग- अलग समुदाय के प्रतिनिधित्व का ही विचार करना है तो सिख समुदाय का पीला रंग ध्वज में जोड़ा जाए। इस पर समग्र विचार कर सुझाव देने के लिए कांग्रेस कार्यकारी समिति ने एक ध्वज समिति का गठन किया। इसमें पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद, मास्टर तारासिंह, पट्टाभि सीतारामैय्या (संयोजक), काका कालेलकर और डॉक्टर हार्डीकर थे। ध्वज समिति ने राज्य कांग्रेस समिति और सामान्य व्यतियों से प्रचलित राष्ट्रीय ध्वज के लिए आप और सुझाव माँगे। सब की बातें सुनकर ध्वज समिति का सर्वसमत निर्णय रहा कि 'भारत का ध्वज विशिष्ट , कलात्मक हो। यह सर्वानुमति से तय किया गया कि वह एक ही रंग का हो। और यदि कोई एक रंग जो सबसे विशिष्ट है, जो सभी भारतवासियों को समान रूप से स्वीकार्य है और जो भारत जैसे प्राचीन राष्ट्र के साथ दीर्घकाल से जुड़ा है वह भगवा या केसरी रंग है। इसलिए आयताकृति भगवे कपड़े पर नीले रंग में चरखा, यह भारत का ध्वज होगा यह निर्णय ध्वज समिति ने सर्वानुमति से लिया। यह निर्णय यों नहीं स्वीकार हुआ? वह कौन सी मानसिकता थी जिसने भारत का यह स्वाभाविक और सुविचारित 'स्व नकारा? यह तथ्य भी विचार करने योग्य है। 1947 में स्वाधीनता के पश्चात संविधान द्वारा समृद्धि, शांति और पराक्रम को दर्शाता धर्म चक्रांकित तिरंगा हमारा राष्ट्रध्वज स्वीकारा गया। यह हमारा राष्ट्रध्वज है। उसका समान तथा संरक्षण करना और अपने कर्तृत्व से उसका गौरव बढ़ाना हम सभी भारतीयों का कर्तव्य है। यह निर्विवाद सत्य है। इसी तरह स्वाधीनता के पश्चात भारत की शिक्षा में जो मूलभूत सुधार अपेक्षित था वह भी नहीं किया गया। 1948 में डॉटर सर्वपल्ली राधाकृष्णन की अध्यक्षता में बने शिक्षा आयोग की रिपोर्ट में 'शिक्षा के अभारतीय चरित्र के बारे में वे स्पष्ट कहते हैं कि-

One of the serious complaints against the system of education which has prevailed in this country for over a century is that it neglected India's past, that it did not provide the Indian students with a knowledge of their own culture. It has produced in some cases the feeling that we are without roots, in others, what is worse, that our roots bind us to a world very different from that which surrounds us." "The chief source of spiritual nourishment for any people must be its own past perpetually rediscovered and renewed. A society without a knowledge of the past which has made it would be lacking in depth and dignity." "It was assumed that education should not stop with the development of intellectual powers but must provide the student, for the regulation of his personal and social life, a code of behavior based on fundamental principles of ethics and religion. Where conscious purpose is lacking, personal integrity and consistent behavior are not possible."

आध्यात्मिकता ही भारतीय चिंतन का आधार है -

इससे सिद्ध होता है कि आध्यात्मिकता ही भारतीय चिंतन का आधार है। उसी के प्रकाश में शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए। परंतु कांग्रेस के शासन काल में, उन्हीं के द्वारा नियुत शिक्षा आयोगों की अनुशंसाओं को लागू नहीं किया गया। शिक्षा आयोग का गठन करने वाले कांग्रेस के ही नेता थे। फिर भी उस आयोग की अनुशंसा को लागू करने से रोकने वाले कौन लोग थे, कौन सी मानसिकता थी? आज भी उस दिशा में जब प्रयास होते हैं तो उसे शिक्षा का भगवाकरण के नाम पर विरोध किया जाता है। इसके पीछे की मानसिकता या है - इसका विश्लेषण होना आवश्यक है।

भारत की सभी भाषाओं की जननी संस्कृत है -

भारत की सभी भाषाओं की जननी संस्कृत है, यह निर्विवाद तथ्य है और संस्कृत ही है जो सभी भारतीय भाषा-भाषियों को सरलता से समझ में आती है। जैसे मलेशिया में तमिल भाषी भारतीय बड़ी संया में हैं। वहाँ के हिंदू स्वयंसेवक संघ के प्रचारक श्री रामचन्द्रन तमिल भाषी हैं। संघ शिक्षा वर्ग के दोनों वर्षों का उनका प्रशिक्षण तमिलनाडु प्रांत में हुआ। तृतीय वर्ष के लिए (25 दिन) वे नागपुर गए। वहाँ सभी बौद्धिक हिंदी में ही होते थे जो उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आते थे। बाद में जब तमिल भाषी शिक्षार्थियों के लिए तमिल में उनका अनुवाद होता था, तभी वे उसे समझते थे। उन्होंने मुझे बताया कि 25 में से केवल एक ही बौद्धिक उद्बोधन वे सीधा (बिना अनुवाद के) समझ सके, वह संस्कृत में हुआ था। संस्कृत भाषा सभी भाषाओं से नजदीक है, इसका यह ज्वलंत प्रमाण है। भारत रत्न डॉटर बाबासाहेब अबेडकर समेत तत्कालीन अनेक नेताओं का यह स्पष्ट मत था कि भारत में सभी को संस्कृत की शिक्षा दी जाए। भारत के ज्ञान का सारा खजाना संस्कृत में है और सभी भारतीय भाषाएँ संस्कृत के नजदीक है, संस्कृत से ही निकली हैं। भारतीय एकात्मकता के बोध के लिए भी यह उपयुत है। परंतु किस मानसिकता के कारण इस महती सुझाव को नहीं स्वीकारा गया?

लाभ कमाने के मोह के मकडज़ाल में मनुष्य फँसता चला गया

बहुत दीर्घकाल तक भारत सपन्न था, विश्व व्यापार में भारत का सहभाग सर्वाधिक था। हम अनाज नहीं बेचते थे। चमड़ा, धातु, लकड़ी, पत्थर की बनी वस्तुएँ, कपड़ा, मसाले, हीरे आदि के व्यापार के लिए भारतीय दुनिया भर में जाते रहे हैं। इसलिए भारत कृषि प्रधान देश था, ऐसा कहने के स्थान पर भारत उद्योग प्रधान देश था, यह कहना अधिक उचित होगा। ये सारे उद्योग घर-परिवार में होते थे और ये परिवार ग्रामीण भारत में रहते थे। भारत के ग्राम समृद्ध होते थे। लेकिन यूरोप के प्रभाव के कारण भारत ने स्वाधीनता के पश्चात् शहर केंद्रित विकास की दिशा पकड़ ली। शहरों में भीड़, स्पर्धा, अपराध और आपसी सबन्धों का बिखराव बढ़ता गया और ग्राम उपेक्षित, पिछड़े, सुविधा विहीन होने लगे। शहर में बसना प्रतिष्ठा का और ग्रामीण भाग में बसना पिछड़ेपन का लक्षण माना गया। यांत्रिक युग के कारण अधिकाधिक लाभ कमाने के मोह के मकडज़ाल में मनुष्य फँसता चला गया।

भारतीय समाज राज्य शक्ति पर कभी अवलबित नहीं था

स्वदेशी समाज में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर कहते हैं कि यह पश्चिम की कल्पना है, भारतीय नहीं। परपरा से भारतीय समाज राज्यशति पर कभी अवलबित नहीं था। वह समाज जो अपनी आवश्यकताओं के लिए राज्य पर कम से कम अवलबित है, वह स्वदेशी समाज है। परंपरा से केवल न्याय, विदेश सबंध और सुरक्षा ये विषय ही राज्य के अधीन होते थे। बाकी सभी विषय शिक्षा, स्वास्थ्य, व्यापार, अर्थोत्पादन, संगीत, कला, मंदिर, कथा, मेले आदि सभी समाज के अधीन रहते थे। विवेकानंद की शिष्या भगिनी निवेदिता ने कहा कि 'जिस समाज में लोग अपने परिश्रम का पारिश्रमिक अपने ही पास न रखकर समाज को देते हैं, उस समाज में, ऐसे एकत्रित पारिश्रमिक की पूँजी के आधार पर समाज सपन्न-समृद्ध बनता है और समाज सपन्नसमृद्ध बना तो समाज का हर एक व्यति सपन्न- समृद्ध बनता है। परंतु जिस समाज में लोग अपने परिश्रम का पारिश्रमिक समाज को न देकर अपने ही पास रखते हैं, उस समाज में कुछ व्यति तो सपन्न- समृद्ध बनते हैं पर समाज दरिद्र रहता है। समाज को अपनेपन के भाव से देना, यह समाज का ही है, उसे लौटाना माने जीवन सार्थक होना ऐसा माना गया है। इसीलिए विवेकानंद केंद्र की प्रार्थना में कहा गया है - जीवने यावदादानं स्यात् प्रदानं ततोस्धिकम्। इत्येषा प्रार्थनास्माकं भगवन् परिपूर्यताम्।। (अर्थ-जीवन में हम जितना स्वीकार करते हैं उससे अधिक लौटा सकें यह हमारी प्रार्थना हे भगवन! आप पूर्ण करो।)

धर्म भेदभाव नहीं करता है वह सभी को जोड़े रखता है-

समाज से हमें बहुत मिलता है उसे वापस लौटाना, इसे ही धर्म कहा है। religion या उपासना इससे अलग है। उपासना धर्म के लिए होती है। धर्म का अर्थ है, प्रत्यक्ष आचरण करना, समाज को लौटाना। समाज को देना यह charity है और समाज को लौटाना यह धर्म है। भगिनी निवेदिता के अनुसार सामाजिक पूँजी को समृद्ध करना यही धर्म है। और धर्म भेदभाव नहीं करता है, वह सभी को जोड़े रखता है, सहायता करता है, साथ बाँधे रखता है। यही स्वदेशी समाज का आधार है। स्वाधीनता के समय भारत के निर्माताओं के मन में यह 'धर्म भाव स्पष्ट रहा होगा। इसीलिए भारत की लोकसभा में 'धर्मचक्र प्रवर्तनाय लिखा है। राज्य सभा में 'सत्यं वद धर्मं चर, उच्चतम न्यायालय का बोधवाय 'यतो धर्मस्ततो जय: और भारत के राष्ट्रध्वज पर जो चक्र अंकित है वह 'धर्मचक्र है। चक्र घूमने के लिए ही होता है। समाज को लौटाने का प्रत्येक छोटा सा प्रयास धर्म कार्य है और ऐसे छोटे-छोटे प्रयासों से धर्मचक्र चलता है, गतिमान होता है, प्रवर्तमान रहता है। लोकसभा, राज्यसभा, उच्चतम न्यायालय, राष्ट्रध्वज जैसे प्रमुख स्थानों पर जिस 'धर्म का स्पष्ट महत्वपूर्ण उल्लेख है उस 'धर्म की कहीं कोई चर्चा नहीं है। बल्कि धर्म की बात करना साप्रदायिक (कयूनल) माना जाने लगा है। और जिस secularism को चर्चा करने के पश्चात भारतीय संविधान में स्थान नहीं देने का सर्वानुमति से निर्णय लिया गया फिर भी उसे चुपके से किसी भी प्रकार की चर्चा - बहस किए बिना संविधान के Preamble में (जो कि अपरिवर्तनीय है ऐसा संविधान ही कहता है) जबरदस्ती से समाविष्ट किया गया। उस secularism जैसे अभारतीय शब्द के अर्थ को परिभाषित किए बिना ही उसका धड़ल्ले से उपयोग किया जा रहा है। ये सब किस मानसिकता की उपज है? इसका विचार करना होगा। उस अभारतीय मानसिकता से उबरकर शुद्ध भारतीय विचार को प्रतिष्ठित करने से ही अब तक नकारा गया भारत का 'स्व पूर्णार्थ से, अपने पुरुषार्थ से पूर्ण प्रकाशमान होगा, तभी भारत अपने स्व- गौरव के साथ मजबूती से अपना वैश्विक कर्तव्य पूर्ण करने के लिए प्रतिबद्ध है।

भौतिक समृद्धि और आध्यात्मिक उन्नति दोनों को साथ-साथ साधना ही जीवन है -

भारतीय जीवन की विशेषता यह रही है कि भारत ने भौतिक समृद्धि और आध्यात्मिक विकास दोनों को समान महत्व दिया है, किसी एक को नहीं। ईशावास्य उपनिषद में एक श्लोक में स्पष्ट कहा है कि जो केवल भौतिक समृद्धि के पीछे दौड़ता है वह गहरे अंधकार में प्रवेश करता है। उसी श्लोक में आगे कहा है कि जो केवल आध्यात्मिक साधना में रत रहता है वह और गहरे अंधकार में प्रवेश करता है। उपनिषद आगे कहता है कि भौतिक समृद्धि और आध्यात्मिक उन्नति दोनों को साथसाथ साधना ही जीवन है। इन दोनों को एकसाथ साधने का योग्य परिवेष ग्रामीण जीवन में है। ग्राम में आय कम है, पर व्यय भी कम है। इसलिए अच्छा जीवन जीने तथा कमाने के लिए बहुत दौड़ भाग नहीं करनी पड़ती है। कमाने के साथ-साथ आध्यात्मिक साधना के लिए पर्याप्त समय और योग्य परिवेष, वातावरण ग्रामीण जीवन में हैं। इसलिए स्वाधीन भारत की विकास यात्रा की दिशा ग्रामीण विकास की हो, यह महात्मा गांधी भी चाहते थे। उनका 'हिंद स्वराजÓ मुयत: इसी पर केंद्रित है। संविधान को स्वीकार करते समय भी - 19 से 22 नवंबर 1948 की चर्चा में संविधान सभा ने यही अपेक्षा व्यत की थी कि जल्द ही हम ग्राम स्वराज के पथ पर अग्रसर होंगे, परंतु पश्चिम के समाजवाद और पूंजीवाद के द्वंद्व में फसकर हम अपना समावेशी और पर्यावरण पूरक विकास का रास्ता भूल गए। ग्रामीण भारत में शहरों की सभी सुविधाएँ दिए जाने का आग्रह पूर्व राष्ट्रपति डॉटर अदुल कलाम का भी था। समृद्ध, सुखी, निरामय और आध्यात्मिक साधना में रत ऐसा जीवन जीना यही जीवन है, यह भारत का विशिष्ट विचार रहा है और भारत की पहचान भी। यही भारत के 'स्वÓ की अभिव्यति है। यह दिशा हम ने यों नहीं ली?

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