परिसीमन से निकलेगा कश्मीर समस्या का समाधान

परिसीमन से निकलेगा कश्मीर समस्या का समाधान
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केन्द्र में सरकार बनाने के लिए भाजपा को जिन मुद्दों पर देश की जनता ने पूर्ण बहुमत का समर्थन दिया है, सरकार ने उस पर विचार मंथन प्रारंभ कर दिया है। जम्मू कश्मीर में धारा 370 और धारा 35ए हटाने के प्रयास भी होने लगे हैं। पिछले दिनों गृहमंत्री अमित शाह की कश्मीर मसले पर अधिकारियों के साथ हुई बैठक से तो यही अर्थ निकलता है। केन्द्र सरकार के इस कदम का देश में भले ही छिटपुट राजनीतिक विरोध हो रहा हो, लेकिन वास्तविकता यही है कि भाजपा को इसी के लिए जनादेश मिला है। केंद्र सरकार जनादेश का सम्मान करते हुए कश्मीर समस्या के समाधान के लिए कदम उठा रही है। जम्मू कश्मीर में विधानसभा परिसीमन की बहुप्रतीक्षित मांग अब साकार होने के रास्ते पर है।

सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि जम्मू कश्मीर में विधानसभा क्षेत्रों का परिसीमन क्यों आवश्यक है? इसका उत्तर यही है कि इस राज्य में विधानसभा क्षेत्रों के आकार और मतदाताओं की संख्या कहीं बहुत ज्यादा तो कहीं बहुत कम हैं। इसे समान करने के लिए ही परिसीमन किया जाना आवश्यक है। वर्तमान में विधानसभा क्षेत्रों का अध्ययन किया जाए तो यही परिलक्षित होता है कि जम्मू क्षेत्र में जहां एक विधानसभा क्षेत्र में एक लाख साठ हजार मतदाता हैं तो कश्मीर में एक विधानसभा क्षेत्र में कुल मतदाता मात्र तीस हजार ही हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि जम्मू के एक क्षेत्र से जहां एक विधायक चुनकर आ सकता है, वहीं कश्मीर से इतने ही मतदाता छह विधायकों को चुनकर विधानसभा में भेजते हैं। यह असमानता ही कश्मीर की सारी समस्याओं की जड़ है। यानी मात्र कश्मीर के विधायक ही सरकार बनाने के लिए पर्याप्त हैं।

केन्द्र सरकार द्वारा जम्मू कश्मीर विधानसभा क्षेत्रों के परिसीमन किए जाने वाली कार्यवाही के बाद कश्मीर के नेताओं को अपनी राजनीतिक जमीन खिसकने का भय सताने लगा है। पीडीपी नेता और राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने कहा है कि केन्द्र सरकार पहले की समस्याओं का निदान करने की बजाय एक नई समस्या का सूत्रपात करने जा रही है। जबकि सच यह है कि यह परिसीमन किया जाना कोई समस्या है ही नहीं, बल्कि पहले की समस्याओं के समाधान का रास्ता है। फिर भारत सरकार इसमें नया क्या कर रही है। इसी के लिए तो जनता ने भाजपा को व्यापक समर्थन दिया है। देश के सभी राजनीतिक दलों को जनादेश का सम्मान करते हुए परिसीमन करने के कदम का समर्थन करना चाहिए। हम सभी जानते हैं कि भारत में लोकतंत्र है। लोकतंत्र में जनता का निर्णय ही सरकार का निर्णय होता है। अगर जनता कश्मीर का परिसीमन चाहती है और धारा 370 को हटाना चाहती है तो फिर इसमें राजनीतिक विरोध क्यों? आपने पहले जनता की इच्छा का सम्मान नहीं किया तो अब विरोध क्यों? सभी राजनीतिक दल कश्मीर की समस्या के समाधान के लिए आगे आएं, जिससे उचित समाधान निकल सके।

हमें स्मरण होगा कि जब देश स्वतंत्र हुआ, तब भारत और पाकिस्तान दो देश बने थे। लेकिन संभवत: हमें इस बात की जानकारी नहीं होगी कि कश्मीर को अलग देश जैसा ही दर्जा दिया गया। वहां मुख्यमंत्री न होकर प्रधानमंत्री हुआ करता था। नेहरू व शेख अब्दुल्ला ने ऐसी राजनीतिक चाल चली कि एक प्रकार से 1947 के ठीक बाद भारत के दो नहीं, बल्कि तीन टुकड़े हो गए। कश्मीर में मुख्यमंत्री नहीं, प्रधानमंत्री पद स्वीकृत हुआ। मार्च 1965 में प्रधानमंत्री का पद बदलकर इसे मुख्यमंत्री बना दिया गया। धारा 370 व 35ए लागू हुई।

यह भी बहुत कम लोगों को ज्ञात होगा कि वर्ष 1960 तक जम्मू कश्मीर की विधानसभा की सीटों का परिसीमन वैसा ही था, जैसा शेष भारत का है। फिर इसमें असमानता क्यों और किस उद्देश्य से पैदा की गई। इसका अध्ययन करेंगे तो हमें पता चलता है कि कश्मीर में योजनापूर्वक उतने विधानसभा क्षेत्र बनाए गए, जो विधानसभा में बहुमत के आंकड़ों से भी ज्यादा थे। छोटे-छोटे क्षेत्रों में विभाजित किए गए कश्मीर के विधानसभा क्षेत्रों से मात्र कांग्रेस और नेशनल कान्फ्रेंस पार्टी को ही राजनीतिक लाभ मिलता रहा। जम्मू कश्मीर में उस समय जनसंघ और हिन्दू महासभा का प्रभाव बढ़ रहा था। इसके चलते कहीं जम्मू कश्मीर में इन दोनों दलों की सरकार न बन जाए, मात्र इसे रोकने के लिए ही ऐसा परिसीमन किया गया। तब नेहरू ने परिसीमन की नवीन विधि शुरू करवाई, जिसका परिणाम ये है कि आज जम्मू के एक लाख साठ हजार मतदाता, विधानसभा के एक सदस्य को चुनते हैं तो कश्मीर के सिर्फ तीस हजार मतदाता विधानसभा के एक सदस्य को चुनते हैं। कहने का मतलब यह कि जब जम्मू का एक विधायक चुना जाएगा और लद्दाख का भी एक चुना जाएगा तब कश्मीर के छह विधायक चुने जाएंगे।

यहां एक तथ्य और भी बहुत ही पेचीदा है। 1960 में देश की नेहरु सरकार ने सिर्फ धारा 370 और 35ए का ही प्रावधान नहीं किया, बल्कि इससे बढ़कर एक और धारा सी70 भी जोड़ दी। जिसके कारण परिसीमन बदलने का अधिकार पूरी तरह से जम्मू कश्मीर की सरकार को मिल गया। यहां यह तथ्य भी है कि जब तक जम्मू कश्मीर की विधानसभा में यह प्रस्ताव पारित नहीं होगा, तब तक न तो परिसीमन का कदम आगे बढ़ सकता है और न ही धारा 370 और धारा 35ए हटाने का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। इसके अलावा 2002 में जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला ने एक पेंच और स्थापित कर दिया, जिसके कारण राज्य की सरकार ने परिसीमन पर 2026 तक रोक लगा दी। इसलिए परिसीमन किया जाना बहुत ही आवश्यक है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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