"मैं" नहीं "हम" के कृतिरूप थे ठेंगड़ी जी

मैं नहीं हम के कृतिरूप थे ठेंगड़ी जी
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  • डॉ. मनमोहन वैद्य

जिस समय स्वर्गीय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने भारतीय मजदूर संघ की स्थापना की वह साम्यवाद के वैश्विक आकर्षण, वर्चस्व और बोलबाले का समय था. उस परिस्थिति में राष्ट्रीय विचार से प्रेरित शुद्ध भारतीय विचार पर आधारित एक मजदूर आंदोलन की शुरुआत करना तथा अनेक विरोध और अवरोधों के बावजूद उसे लगातार बढ़ाते जाना यह पहाड़ सा काम था। श्रद्धा, विश्वास और सतत परिश्रम के बिना यह काम संभव नहीं था। तब उनकी कैसी मनःस्थिति रही होगी यह समझने के लिए एक दृष्टांत-कथा का स्मरण होता है :

अभी बसंत की बयार बहनी शुरू भी नहीं हुई थी।

आम पर बौर भी नहीं आया था।

तभी सर्द पवन के झोंको के थपेड़े सहता हुआ एक जन्तु अपने बिल में से बाहर निकला।

उसके रिश्तेदारों ने उसे बहुत समझाया कि अपने बिल में ही रहकर आराम करो, ऐसे समय बाहर निकलोगे तो मर जाओगे। पर उसने किसी की एक न सुनी।

बड़ी ही मुश्किल से वह तो आम्रवृक्ष के तने पर चढ़ने लगा।

ऊपर आम की डाल पर झूमते हुए एक तोते ने उसे देखा।

अपनी चोंच नीचे झुकाते हुए उसने पूछा, "अरे ओ जन्तु, इस ठंड में कहाँ चल दिए?"

"आम खाने|" जंतु ने उत्तर दिया।

तोता हँस पड़ा| उसे वह जन्तु मूर्खों का सरदार लगा।

उसने तुच्छता से कहा, "अरे मूर्ख, आम का तो अभी इस वृक्ष पर नामोनिशान नहीं है। मैं उपर नीचे सभी जगह देख सकता हूँ न!"

"तुम भले ही देख सकते होगे" जंतु ने अपनी डगमग चाल चलते हुए कहा, "पर मैं जब तक पहुंचूंगा तब वहाँ आम अवश्य होगा।"

इस जन्तु के जवाब में किसी साधक की सी जीवनदृष्टि है।

वह अपनी क्षुद्रता को नहीं देखता। प्रतिकूल संजोगों से वह घबराता नहीं है।

ध्येय का कोई भी चिन्ह दिखाई नहीं देने के बावजूद उसे अपनी ध्येयप्राप्ति के विषयमें सम्पूर्ण श्रद्धा है।

अपने एक-एक कदम के साथ फल भी पकते जायेंगे इस विषय में उसे रत्तीभर संदेह नहीं है।

उसके रिश्तेदार या तोता-पंडित चाहे कुछ भी कहें उसकी उसे परवाह नहीं है।

उसके अंतर्मन में तो बस एक ही लगन है और एक ही रटन-

"हरि से लागी रहो मेरे भाई, तेरी बनत बनत बन जाई।"

और आज हम देखते हैं की भारतीय मज़दूर संघ भारत का सर्वाधिक बड़ा मज़दूर संगठन है।

अच्छे संगठक का यह गुण होता है कि आप कितने भी प्रतिभावान क्यों ना हों, अपने सहकारियों के विचार और सुझाव को खुले मन से सुनना और योग्य सुझाव का सहज स्वीकार भी करना। ठेंगडी जी ऐसे ही संगठक थे। जब श्रमिकों के बीच कार्य प्रारम्भ करना तय हुआ तब उस संगठन का नाम 'भारतीय श्रमिक' संघ ऐसा सोचा था। परंतु जब इससे सम्बंधित कार्यकर्ताओं की पहली बैठक में यह बात सामने आयी कि समाज के जिस वर्ग के बीच हमें कार्य करना है उनके लिए 'श्रमिक' शब्द समझना आसान नहीं होगा। कुछ राज्यों में तो इसका सही उच्चारण करने में भी दिक़्क़त आ सकती है, इसलिए 'श्रमिक' के स्थान पर 'मज़दूर' इस आसान शब्द का उपयोग करना चाहिए। उसे तुरंत स्वीकार किया गया और संगठन का नाम 'भारतीय मज़दूर संघ' तय हुआ।

संगठन में काम करना मतलब 'मैं' से 'हम' की यात्रा करना होता है. कर्तृत्ववान व्यक्ति के लिए यह आसान नहीं होता है. वह अपने 'मैं' के प्रेम में पड़ता है. किसी तरह यह 'मैं' व्यक्त होता ही रहता है. संतों ने ऐसा कहा है कि इस 'मैं' की बात ही कुछ अजीब है. वह अज्ञानी को छूता तक नहीं है. पर ज्ञानी का गला ऐसा पकड़ लेता है कि वह छूटना बड़ा कठिन होता है. पर संगठन में, संगठन के साथ और संगठन के लिए काम करने वालों को इससे बचना ही पड़ता है. ठेंगड़ी जी ऐसे थे. सहज बातचीत में भी उनके द्वारा कोई महत्त्व की बात, दृष्टिकोण या समाधान दिए जाने को भी कहते समय 'मैं' ने ऐसा कहा ऐसा कहने के स्थान पर वे हमेशा 'हम' ने ऐसा कहा, ही कहते थे. इस 'मैं' का ऊर्ध्वीकरण आसान नहीं होता है. परन्तु ठेंगड़ी जी ने इसमें महारत प्राप्त की थी, जो एक संगठक के लिए बहुत आवश्यक होती है.

ठेंगड़ी जी की एक और बात लक्षणीय थी कि वे सामान्य से सामान्य मजदूर से भी इतनी आत्मीयता से मिलते थे, उसके कंधे पर हाथ रखकर साथ चहलकदमी करते हुए उससे बातें करते थे कि किसी को भी नहीं लगता था कि वह एक अखिल भारतीय स्तर के नेता, विश्व विख्यात चिंतक से बात कर रहा है। बल्कि उसे ऐसी अनुभूति होती थी कि वह अपने किसी अत्यंत आत्मीय बुजुर्ग, परिवार के ज्येष्ठ व्यक्ति से मिल रहा है। यह करते समय ठेंगड़ी जी की सहजता विलक्षण होती थी।

उनका अध्ययन भी बहुत व्यापक और गहरा था। अनेक पुस्तकों के सन्दर्भ और अनेक नेताओं के किस्से उन के साथ बातचीत में आते थे। पर एक बात जो मेरे दिल को छू जाती वह यह कि कोई एक किस्सा या चुटकुला जो ठेंगड़ी जी ने अनेकों बार अपने वक्तव्य में बताया होगा वही किस्सा या चुटकुला यदि मेरे जैसा कोई अनुभवहीन, कनिष्ठ कार्यकर्ता उनका कहने लगता तो वे कहीं पर भी उसे ऐसा जरासा भी आभास नहीं होने देते थे कि वे यह किस्सा जानते हैं. यह संयम आसान नहीं है। मैं तो यह जनता हूँ, ऐसा कहने का या जताने का मोह अनेक बड़े, अनुभवी कार्यकर्ताओं को होता है ऐसा मैंने कई बार देखा है। पर ठेंगड़ी जी उसे ऐसी लगन से, ध्यान पूर्वक सुनते थे कि मानो पहली बार सुन रहे हों। उस पर भावपूर्ण प्रतिसाद भी देते थे और तत्पश्चात उसके अनुरूप और एक नया किस्सा या चुटकुला अवश्य सुनाते थे। जमीनी कार्यकर्ता से इतना जुड़ाव और लगाव श्रेष्ठ संगठक का ही गुण है।

अपना कार्य बढ़ाने की उत्कंठा, इच्छा और प्रयास रहने के बावजूद अनावश्यक जल्दबाज़ी नहीं करना यह भी श्रेष्ठ संगठक का गुण है। परमपूजनीय श्री गुरुजी कहते थे 'धीरे-धीरे जल्दी करो'। जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। मेरे एक किसान मित्र महाराष्ट्र में श्री शरद जोशी द्वारा निर्मित 'शेतकरी संगठन' नामके किसान आंदोलन में विदर्भ प्रदेश के प्रमुख नेता थे। बाद में उस आंदोलन से उनका मोहभंग हुआ तब मेरे छोटे भाई के साथ उनकी बातचीत चल रही थी। मेरा भाई भी तब किसानी करता था। मेरे भाई को ऐसा लगा कि किसान संघ का कार्य अभी अभी शुरू हुआ है तो इस किसान नेता को किसान संघ के साथ जोड़ना चाहिए. उसने मुझसे बात की। मुझे भी यह सुझाव अच्छा लगा। यह एक बड़ा नेता था. किसान संघ का कार्य श्री ठेंगड़ी जी के नेतृत्व में शुरू हो चुका था. इसलिए यह प्रस्ताव ले कर मैं अपने भाई के साथ नागपुर में ठेंगड़ी जी से मिला। ठेंगड़ी जी उस किसान नेता को जानते थे। मुझे पूर्ण विश्वास था कि किसान संघ के लिए एक अच्छा प्रसिद्ध किसान नेता मिलने से किसान संघ का कार्य बढ़ने में सहायता होगी और इसलिए ठेंगड़ी जी उसे तुरंत आनंद के साथ स्वीकार करेंगे। परन्तु पूर्वभूमिका बताकर जैसा मैंने यह प्रस्ताव उनके सामने रखा, श्री ठेंगड़ी जी ने उसे तुरंत अस्वीकार किया. मुझे बहुत आश्चर्य हुआ. बाद में ठेंगड़ी जी ने मुझे कहा कि हम इसलिए इस नेता को नहीं लेंगे क्योंकि हमारा किसान संघ बहुत छोटा है। वह इतने बड़े नेता को पचा नहीं पायेगा और यह नेता हमारे किसान संघ को अपने साथ खींचकर ले जायेगा। हम ऐसा नहीं चाहते हैं। इस पर मैंने कहा कि यदि किसान संघ उसे स्वीकार नहीं करेगा तो भाजपा के लोग उसे अपनी पार्टी में शामिल कर चुनाव भी लड़ा सकते हैं। इस पर ठेंगड़ी जी ने शांत स्वर में कहा कि भाजपा को जल्दबाजी होगी पर हमें नहीं है। उनका यह उत्तर इतना स्पष्ट और आत्मविश्वासपूर्ण था कि यह मेरे लिए यह एक महत्व की सीख थी। और तब ही श्री गुरूजी के 'धीरे-धीरे जल्दी करो' इस उक्ति का गूढ़ार्थ मेरे स्पष्ट समझ में आया।

श्री ठेंगड़ी जी श्रेष्ठ संगठक के साथ साथ एक दार्शनिक भी थे। भारतीय चिंतन की गहराइयों के विविध पहलू उनके साथ बातचीत में सहज खुलते थे। मज़दूर क्षेत्र में साम्यवादियों का वर्चस्व एवं दबदबा था इसलिए सभी कामदार संगठनों की भाषा या नारे भी साम्यवादियों की शब्दावली में हुआ करते थे। उस समय उन्होंने साम्यवादी नारों के स्थान पर अपनी भारतीय विचार शैली का परिचय कराने वाले नारे गढ़े। "उद्योगों का राष्ट्रीयकरण" के स्थान पर उन्होंने कहा हम "राष्ट्र का औद्योगिकरण- उद्योगों का श्रमिकीकरण और श्रमिकों का राष्ट्रीयकरण" चाहते हैं।

श्रम क्षेत्र में अनावश्यक संघर्ष बढ़ाने वाले असंवेदनशील नारे - "हमारी माँगे पूरी हो- चाहे जो मजबूरी हो" के स्थान पर उन्होंने कहा " देश के लिए करेंगे काम- काम के लेंगे पूरे दाम"। यानी, श्रम के क्षेत्र में भी सामंजस्य और राष्ट्रप्रेम की चेतना जगाने का सूत्र उन्होंने नारे में इस छोटे से बदलाव से दे दिया। भारतीय मज़दूर संघ और भारतीय किसान संघ इस संगठनों के अलावा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, स्वदेशी जागरण मंच, प्रज्ञा प्रवाह, विज्ञान भारती आदि संगठनों की रचना की नींव में ठेंगड़ी जी का योगदान और सहभाग रहा है। उन्होंने भारतीय कला दृष्टि पर जो निबंध प्रस्तुत किया वह आगे जा कर संस्कार भारती का वैचारिक अधिष्ठान बना।

श्री ठेंगडी जी के समान एक श्रेष्ठ चिंतक, संगठक और दीर्घद्रष्टा नेता के साथ रहकर, संवादकर, उनका चलना, उठना-बैठना, उनका सलाह देना यह सारा प्रत्यक्ष अनुभव करने का, सीखने का सौभाग्य मिला। श्री ठेंगड़ी जी की जन्मशती के मंगल अवसर पर उनकी पावन स्मृति को मेरी विनम्र श्रद्धांजली।

(लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सहसरकार्यवाह हैं)

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