आरएसएस में तिरंगे के प्रति पूर्ण निष्ठा, श्रद्धा और सम्मान
राष्ट्रीय विचारधारा का विरोधी बुद्धिजीवी वर्ग अक्सर एक झूठ को समवेत स्वर में दोहराता रहता है– आरएसएस ने राष्ट्रध्वज तिरंगा का विरोध किया। संघ भगवा झंडे को तिरंगे से ऊपर मानता है। आरएसएस ने कभी अपने कार्यालयों पर तिरंगा नहीं फहराया। इस तरह के और भी मिथ्यारोप यह समूह लगाता है। हालांकि, इस संदर्भ में उनके पास कोई प्रामाणिक तथ्य नहीं है। वे एक–दो बयानों और घटनाओं के आधार पर अपने झूठ को सच के रंग से रंगने की कोशिशें करते हैं। जबकि जो भी व्यक्ति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से परिचित है, वह जानता है कि इन खोखले झूठों का कोई आधार नहीं। संघ के लिए राष्ट्रध्वज तिरंगा ही नहीं अपितु सभी राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान सर्वोपरि है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने 'भविष्य का भारत : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण' शीर्षक से दिल्ली में आयोजित तीन दिवसीय व्याख्यानमाला में पहले ही दिन यानी 17 सितम्बर, 2018 को कहा- "स्वतंत्रता के जितने सारे प्रतीक हैं, उन सबके प्रति संघ का स्वयंसेवक अत्यंत श्रद्धा और सम्मान के साथ समर्पित रहा है। इससे दूसरी बात संघ में नहीं चल सकती"। इस अवसर पर उन्होंने एक महत्वपूर्ण प्रसंग भी सुनाया। फैजपुर के कांग्रेस अधिवेशन में 80 फीट ऊँचा ध्वज स्तंभ पर कांग्रेस अध्यक्ष पंडित जवाहरलाल नेहरू ने तिरंगा झंडा (चरखा युक्त) फहराया। जब उन्होंने झंडा फहराया तो यह बीच में अटक गया। ऊंचे पोल पर चढ़कर उसे सुलझाने का साहस किसी का नहीं था। किशन सिंह राजपूत नाम का तरुण स्वयंसेवक भीड़ में से दौड़ा, वह सर-सर उस खंभे पर चढ़ गया, उसने रस्सियों की गुत्थी सुलझाई। ध्वज को ऊपर पहुंचाकर नीचे आ गया। स्वाभाविक ही लोगों ने उसको कंधे पर लिया और नेहरू जी के पास ले गये। नेहरू जी ने उसकी पीठ थपथपाई और कहा कि तुम आओ शाम को खुले अधिवेशन में तुम्हारा अभिनंदन करेंगे। लेकिन फिर कुछ नेता आए और कहा कि उसको मत बुलाओ वह शाखा में जाता है। बाद में जब संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार जी को पता चला तो उन्होंने उस स्वयंसेवक का अभिनंदन किया। यह एक घटनाक्रम बताता है कि तिरंगे के जन्म के साथ ही संघ का स्वयंसेवक उसके सम्मान के साथ जुड़ गया था।
'संघ और तिरंगे' के सन्दर्भ में जो भी मिथ्याप्रचार किया गया है, उसके मूल में वे कम्युनिस्ट हैं जिन्होंने स्वतंत्रता के बाद सात दशक बाद तक अपने पार्टी कार्यालयों पर राष्ट्रध्वज नहीं फहराया। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने 2021 में पहली बार स्वतंत्रता दिवस मनाने और पार्टी कार्यालय में तिरंगा फहराने का निर्णय लिया। कम्युनिस्ट पार्टी ने भारत की स्वतंत्रता को अस्वीकार करते हुए नारा दिया था- 'ये आजादी झूठी है'। जरा सोचिये, जिन किन लोगों ने अपनी सच्चाई छिपाने के लिए राष्ट्रभक्त संगठन के सन्दर्भ में दुष्प्रचार किया?
संविधान द्वारा 22 जुलाई, 1947 को तिरंगे को राष्ट्रध्वज के रूप में स्वीकार किये जाने के बाद कभी भी संघ ने राष्ट्रध्वज के सन्दर्भ में अपना कोई दूसरा मत व्यक्त नहीं किया। हाँ, उससे पूर्व अवश्य ही संघ का मत था कि प्राचीनकाल से भारत की पहचान बने हुए 'भगवा ध्वज' को ही राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। संघ का यह अभिमत 'तिरंग का विरोध' कतई नहीं था। अपितु समूचे देश का मत ही संघ के अभिमत के रूप में व्यक्त हुआ। 1931 में कांग्रेस ने राष्ट्रीय ध्वज के विषय में समग्र रूप से विचार करने के लिए जो समिति बनाई थी, उसने भी विभिन्न प्रान्तों से अभिमत लेकर सर्वसम्मति से राष्ट्रीय ध्वज के तौर पर एक ही रंग के, सैफ्रन यानी केसरिया (भगवा) रंग के झंडे का सुझाव दिया था। इस समिति में सरदार वल्लभ भाई पटेल, पं. जवाहरलाल नेहरू, डा. पट्टाभि सीतारमैया, डा. ना.सु. हर्डीकर, आचार्य काका कालेलकर, मास्टर तारा सिंह और मौलाना आजाद शामिल थे। क्या इस आधार पर उक्त राजनेताओं को तिरंगा विरोधी ठहराया जा सकता है?
राष्ट्रध्वज को संवैधानिक मान्यता मिलने से पहले तक का दौर वह था, जब विभिन्न राजनेता, स्वतंत्रता सेनानी, क्रांतिकारी एवं संगठन अपने दृष्टिकोण के अनुसार राष्ट्रध्वज का अभिकल्प (डिजाइन) प्रस्तुत कर रहे थे। सन् 1904 में विवेकानंद की शिष्या भगनी निवेदिता ने पहली बार एक ध्वज बनाया। यह लाल और पीले रंग से बना था। पहली बार तीन रंग वाला ध्वज 1906 में बंगाल के बँटवारे के विरोध में निकाले गए जलूस में शचीन्द्र कुमार बोस लाए। इस ध्वज में सबसे ऊपर केसरिया रंग, बीच में पीला और सबसे नीचे हरे रंग का उपयोग किया गया था। केसरिया रंग पर 8 अधखिले कमल के फूल सफ़ेद रंग में थे। नीचे हरे रंग पर एक सूर्य और चंद्रमा बना था। बीच में पीले रंग पर हिन्दी में वंदे मातरम् लिखा था। 1908 में भीकाजी कामा ने जर्मनी में तिरंगा झंडा लहराया और इस तिरंगे में सबसे ऊपर हरा रंग था, बीच में केसरिया, सबसे नीचे लाल रंग था। इस ध्वज में भी देवनागरी में वंदे मातरम् लिखा था और सबसे ऊपर 8 कमल बने थे। इस ध्वज को भीकाजी कामा, वीर सावरकर और श्यामजी कृष्ण वर्मा ने मिलकर तैयार किया था। इस ध्वज को बर्लिन कमेटी में भारतीय क्रांतिकारियों ने अपनाया था। एनी बेसेंट और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने होम रूल आंदोलन के दौरान 1917 में एक नया ध्वज फहराया। इसमें पांच लाल और चार हरी क्षैतिज लाइनें थीं। इस पर सप्तऋषि (सात तारे), यूनियन जैक और चाँद-सितारा भी अंकित था। इसी तरह 1921 में बेजवाड़ा में आयोजित अखिल भारतीय कांग्रेस समिति में आंध्रप्रदेश के युवा पिंगली वेंकैया ने महात्मा गांधीजी को एक झंडा दिया, जो दो रंगों का बना हुआ था- लाल और हरा। बाद में सुझाव के उपरांत इसमें सफेद रंग की पट्टी और चरखा भी जोड़े गए। इस ध्वज में सबसे ऊपर सफ़ेद, फिर हरा और सबसे नीचे भगवा रंग की पट्टी थी। वर्ष 1931 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपनी ही ध्वज समिति के भगवा रंग के ध्वज के सुझाव को ख़ारिजकर तिरंगे को स्वराज्य के झंडे के रूप में स्वीकार किया। क्या हम उपरोक्त प्रयासों को राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे का विरोध कह सकते हैं? स्वाभाविक उत्तर हैं- नहीं।
स्वतंत्रता का अवसर समीप आने पर एक बार फिर यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि स्वतंत्र भारत का राष्ट्रीय ध्वज क्या होना चाहिए? तब 1947 में डॉ. राजेंद्र प्रसाद के नेतृत्व में राष्ट्रीय ध्वज तय करने के लिए एक समिति का गठन हुआ। मौलाना अबुल कलाम आजाद, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, सरोजिनी नायडू, केएम पणिक्कर, बीआर अम्बेडकर, उज्जल सिंह, फ्रैंक एंथनी और एसएन गुप्ता समिति के सदस्य थे। 10 जुलाई, 1947 को समिति की पहली बैठक हुई, जिसमें विशेष निमंत्रण पर पं. जवाहरलाल नेहरू भी उपस्थित थे। बैठक में राष्ट्रध्वज को लेकर व्यापक विचार-विमर्श हुआ। अंततः 22 जुलाई, 1947 को कॉन्स्टीट्यूशन हॉल में संविधान सभा की बैठक में वर्तमान तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार कर लिया गया। अब तिरंगे पर चरखे का स्थान अशोक चक्र ने ले लिया था। राष्ट्रीय ध्वज में यह परिवर्तन महात्मा गाँधी को पसंद नहीं आया। गांधीवादी चिन्तक एवं शोधार्थी एलएस रंगराजन के अनुसार, गांधीजी को जब मालूम हुआ कि तिरंगे से चरखे को हटाकर उसी जगह अशोक चक्र लाया जाएगा तो वो बहुत नाराज़ हुए। उन्होंने कहा- "मैं भारत के ध्वज में चरखा हटाए जाने को स्वीकार नहीं करूंगा। अगर ऐसा हुआ तो मैं झंडे को सलामी देने से मना कर दूंगा। आप सभी को मालूम है कि भारत के राष्ट्रीय ध्वज के बारे में सबसे पहले मैंने सोचा और मैं बगैर चरखा वाले राष्ट्रीय झंडे को स्वीकार नहीं कर सकता"। हालाँकि बाद में गांधीजी ने अपने विचारों को नरम कर लिया। अब क्या इस आधार पर हम महात्मा गाँधी को तिरंगा विरोधी कह सकते हैं? राष्ट्र ध्वज को लेकर उनका अपना विचार था, जो उन्होंने प्रकट किया।
भारत सरकार द्वारा 'प्रतीक और नाम अधिनियम-1950' को लागू किये जाने से पूर्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने कार्यालयों पर राष्ट्रध्वज फहराया था। नागपुर में संघ के मुख्यालय और स्मृति भवन यानी संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार एवं गुरुजी गोलवलकर स्मृति स्थल पर 15 अगस्त 1947 को राष्ट्रीय ध्वज गौरव के साथ फहराया गया था। यह क्रम 26 जनवरी, 1950 तक जारी रहा लेकिन उसके बाद सरकार ने राष्ट्रीय ध्वज फहराने के सम्बन्ध में कानून कड़े कर दिए थे। सभी लोग वर्षभर राष्ट्रध्वज फहरा सकें, इसके लिए कांग्रेस के ही नेता एवं उद्योगपति नवीन जिंदल ने लम्बी कानूनी लड़ाई लड़ी। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद 26 जनवरी, 2002 से सभी नागरिकों को वर्षभर तिरंगा फहराने की अनुमति मिली। इस बीच आरएसएस के विचार से अनुप्राणित सामाजिक क्षेत्र में संचालित सभी राजनैतिक, शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक संगठन संविधान के दायरे में गौरव की अनुभूति के साथ तिरंगे को फहराते रहे।
अपने राष्ट्रध्वज को लेकर संघ का अभिमत प्रारंभ के क्या रहा है, इस बात को द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य 'गुरुजी' द्वारा प्रसिद्ध अधिवक्ता एन राजनेता पंडित मौलिचंद्र जी को 10 जुलाई, 1949 को लिखे पत्र से भी समझ सकते हैं। गुरुजी लिखते हैं- "एक स्वतंत्र देश में यह प्रश्न उठना ही नहीं चाहिए। संघ का प्रत्येक सदस्य अपना सर्वस्व मातृभूमि के लिए अर्पित करने की प्रतिक्षा करता है। भारत के प्रत्येक अन्य नागरिक के समान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रत्येक स्वयंसेवक देश, उसके संविधान और भारतीय स्वतंत्रता और उसके गौरव के प्रत्येक प्रतीक के प्रति निष्ठावान है। राष्ट्रीय ध्वज भी ऐसा ही एक प्रतीक है और यह जैसा कि पहिले कहा जा चुका है, भारत के प्रत्येक राष्ट्रीय के समान ही प्रत्येक स्वयंसेवक का कर्त्तव्य है कि इस ध्वज के साथ खडा़ रहे और उसके सम्मान को अक्षुण्ण रखे"।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार एवं पत्रकार हैं।)