दिल्ली को इस्लामाबाद बनाना चाहते हैं शाहीनबागी

दिल्ली को इस्लामाबाद बनाना चाहते हैं शाहीनबागी
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उमेश उपाध्याय

दिल्ली के शाहीन बाग में धरना चलते हुए 2 महीनों से अधिक का वक्त बीत चुका है। इतने वक्त में दिल्ली ने बहुत कुछ सहा है। दिल्ली की हालत और हालात पर कभी फिर बात करेंगे, आज बात शाहीनबागियों की। आखिर शाहीन बाग में सड़क पर बैठे लोगों की मंशा क्या है? यह चाहते क्या हैं? इस पर थोड़ा विस्तार से गौर करने की आवश्यकता है। दिल्ली ने इस तरह के धरने पहले कभी नही देखे। पर हमारे पड़ोसी पाकिस्तान में पिछले कुछ वर्षों में यह आम बात हो गई है। पाकिस्तान में सरकार से अपनी बात मनवाने के लिए कट्टर जिहादी तत्व इस तरह के धरने लंबे समय से देते आए हैं।

तहरीक-ए-लब्बैक नाम के संगठन ने 2018 में धरना दे कर पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद को पंगु बना दिया था। 2017 में भी तहरीक-ए-लब्बैक उर्फ रसूल अल्लाह ने एयरपोर्ट और रावलपिंडी जाने वाले इस्लामाबाद एक्सप्रेस वे और मुर्री रोड को जाम कर दिया था। दोनों ही धरनों के बाद तत्कालीन पाक सरकारों ने उनकी बातें मानी थी। एक बार तो एक केंद्रीय मंत्री तक को हटा दिया गया था। इन प्रदर्शनकारियों के सिर पर पाकिस्तानी फौज का हाथ बताया जाता है। जो पाकिस्तान की चुनी हुई सरकार से हिसाब चुकता करने के लिए इस तरह के कट्टर जिहादी संगठनों को खुले आम बढ़ावा देती है। यहां तक कि पाक फौज के आला अफसर तहरीक-ए-लब्बैक के लोगों को पैसे बांटते हुए तक पाए गए गए थे । तहरीके लब्बैक के खादिम हुसैन रिज़वी के तरीकों को कुछ लोग अब हिंदुस्तान में आज़मा रहे हैं। ये भी भारत की चुनी हुई सरकार को ना मानने पर अड़े हैं।

आप कहेंगे कि इस्लामाबाद और दिल्ली के धरनों में क्या समानता है। दोनों में खास बात यह है कि बुनियादी तौर पर दोनों धरने वहां कि विधि सम्मत स्थापित सरकारों के खिलाफ हो रहे थे। पाकिस्तान में तो धरने नवाजशरीफ सरकार के खिलाफ हुए थे पर दिल्ली में धरना भारत की संसद द्वारा लंबी बहस के बाद बहुमत से पारित एक कानून को बदलवाने के लिए हो रहा है। दिल्ली और इस्लामाबाद के धरने जोर जबर्दस्ती से अपनी बात मनवाने की रणनीति है। यह सीधे सीधे ब्लैकमेलिंग है। 'हम जो चाहते हैं वैसा करो' और 'अगर वैसा नहीं होगा' तो हम आम जनजीवन को ठप्प कर देंगे। ज़ोर ज़बरदस्ती से सरकार को घुटने टेकने के लिए मजबूर कर देंगे। यानी कानून द्वारा स्थापित व्यवस्था को नहीं मानेंगे, जरूरत पड़ी तो हिंसा पर भी उतारु होंगे।

शाहीन बाग के धरने का सीधा संबंध दिल्ली के अंदर पिछले हफ्ते हुई व्यापक हिंसा से है। उत्तर पूर्वी दिल्ली में शाहीन बाग की तर्ज पर कुछ लोग धरने पर बैठना चाहते थे। उन्होंने महिलाओं को आगे किया। जब उन्हें उठाने की, खदेड़ने की कोशिश की गई तो उन्होंने हिंसा का सहारा लिया। शाहीन बाग के धरने और उत्तर पूर्वा दिल्ली के दंगों के पीछे की बुनियादी सोच एक ही है, कि अगर हमारी बात नहीं मानी जाएगी तो हम किसी भी हद तक जाएंगे। चाहे वह धरनेकी मार्फत आम जनजीवन ठप्प करना हो या हिंसा का सहारा लेना। मकसद एक ही है ब्लैकमेलिंग। दोनों में सोच के तौर पर कोई फ़र्क़ नहीं। अन्तर सिर्फ विरोध के तरीके का ही है।

पाकिस्तान में तो साफ है कि चुनी हुई सरकार को अस्थिर करने का काम वहां की फौज किया करती है। पर हिंदुस्तान में इस धरना ब्लैकमेलिंग के पीछे कौन सी ताकतें काम कर रही हैं? हाशिए पर जा चुके अल्ट्रा लेफ्ट और कट्टर जिहादी इस्लामिस्ट, आपको साफ तौर पर इस धरना ब्लैकमेलिंग के पीछे नजर आ जाएंगे। हिंदुस्तान में दोनों ही अपने को साबित करने के लिए झटपटा रहें हैं। और जाने अनजाने इनका साथ दे रही है अपनी पहचान के लिए जूझ रही कांग्रेस। दुनिया भर में लेफ्ट के पांव पूरी तरह से उखड़ चुके हैं। उनके विचार के समर्थक अब कम ही बचे हैं। सीएए के मुद्दे पर उन्हें लगा कि मुसलमान ही एक ऐसी कौम है जिसे आसानी से उकसाया जा सकता है। इस्लामी कट्टरपंथियों के साथ मिलकर इस लेफ्ट ने एक नई रणनीति बनाई। ये रणनीति है धरना ब्लैकमेंलिग की।

अब भारत कोई पाकिस्तान तो है नही कि यहां इस्लामी कट्टरपंथ के लिए समर्थन मिल जाए। इसलिए धरना-ब्लैकमेलिंग के लिए इन कट्टरपंथियों ने हथियार के तौर पर चुना है सविंधान को। क्योंकि इस ब्लैकमेलिंग को सर्व साधारण का समर्थन तभी हासिल हो सकता था जब यह सविंधान के दायरे में नजर आए। ब्लैकमेलिंग को तिरंगे के आवरण में लपेट कर जनता के सामने पेश किया गया। सविंधान और तिरंगे में भारतीयों की आस्था की वजह से देशवासियों को आसानी से बरगलाया जा सकता है। सविंधान और तिरंगा इन इस्लामिस्ट और लेफ्ट अतिवादियों के लिए अपने आखिरी मकसद को पूरा करने का औज़ार मात्र हैं। इनके लिए संविधान और तिरंगा आस्था का विषय कभी नहीं रहा। इनका तो मकसद ही संविधान को उखाड़ फेंकना है। इनका अंतिम मकसद एक ही है भारत के टुकड़े करना।

"जिन्ना वाली आज़ादी' के नारे भी शाहीन बाग के मंच से कई बार उछले। 'तेरा मेरा रिश्ता क्या, ला इलाहा इलल्लाह', या 'पाकिस्तान का मतलब क्या , ला इलाहा इलल्लाह, इन नारों को भारत में लगाने का मतलब क्या है?ये नारे तो भारत के विभाजन के नारे है। दरअसलशांतिपूर्ण ब्लैकमेलिंग के लबादे में धरने के वक्त ही कई सुराख नजर आने लगे थे। लेफ्ट के नुमाइंदे और शाहीन बाग के धरने के आयोजकों में से एक सरजिल इमाम ने तैश में आ कर नॉर्थ ईस्ट को भारत से काट फेंकने की अपनी पूरी प्लानिंग ही खोल दी। वहीं मुल्लाओं की पार्टी मजलिस-ए-एत्तेहादुल-मुसलमीन के नेता वारिस पठान ने 100 करोड़ हिंदुओं को देख लेने की खुली धमकी दे डाली। किसी ने हिंदुओं के खुले आर्थिक बहिष्कार की घोषणा की तो किसी ने चुन चुन कर हिंदुओं के खात्में की बात कही।कपटपूर्ण शांतिपूर्ण ब्लेकमेलिंग के चोर दरवाजे से निकली इन चिंगारियों ने ही दरअसल दिल्ली को सुलगा दिया। शाहीन बाग के बाद जाफराबाद, मस्तफाबाद, चांद बाग और ना जाने कहां कहां दिल्ली में यही प्रयोग दोहराए जाने लगे।

जब ये ब्लेकमेलिंग कारगर नहीं हुई तो, उपद्रवियों ने दिल्ली को आग के हवाले कर दिया। शांतिपूर्ण ब्लैकमेलर्स के तौर तरीके बिलकुल साफ है। महिलाओं की आड़ लो, सविंधान की दुहाई दो, तिरंगा लहराओं, अंबेडकर और गांधी के आगे दीपक जलाओ, हर वो काम करो जो ऐसा लगे कि सविंधान के दायरे में हो रहा है। पर वो जानते हैं कि वो कर क्या रहे हैं। वो कई लाख लोगों की जिंदगी नरक बना रहे हैं। वो देश को राजनीतिक अस्थिरता का शिकार बना रहे हैं उसे आर्थिक रूप से कमजोर कर रहे हैं। यानी बात मानी तो ठीक, नही तो पूरे देश को यह ब्लैकमेलर्स बंधक बना लेंगे आग के हवाले कर देंगे। इन लोगों ने देश की अदालतों के दावपेंचों का भी खूब इस्तेमाल इस दौरान किया। देश का सुप्रीम कोर्ट तक इनके झांसे में आ गया।

सवाल उठता है कि अल्ट्रा लेफ्ट एक ऐसी विचारधारा है जिसका वजूद मिटने को है। तो फिर यह इतनी मजबूत कैसे हो गई कि इसने पूरे देश को ही बंधक बना लिया। दरअसल नागरिकता कानून पर अफवाह फैला कर इन्होने आम मुसलमानों को बरगलाया और जिहादी इस्लामिस्ट से गठजोड़ बना लिया। मोदी विरोधी मीडिया का एक बड़ा वर्ग और विपक्षी इनके साथ हो गए। सीएए पर एक फरेबी नेरेटिव तैयार किया गया जिसमें लोग बहक गए। आम भारतीय मुसलमान को समझना होगा कि अल्ट्रा लेफ्ट और कट्टर मुल्लाओं का आपस में याराना है। ये दोनों ही उसके हितैषी नहीं है। कट्टर मुल्ला उसे गजवा-ए-हिंद का सपना दिखाते हैं और अल्ट्रा लेफ्ट उस भारतविरोधी सपने को सविंधान का मुल्लमा पहनाते हैं। वो इस ब्लैकमेलिंग को इंटेलेक्चुअल सपोर्ट प्रदान करते हैं। मुसलमानों को समझना होगा कि यह देश उनका है। वो पहले भी भारतीय है और बाद में भी। उन्हें अपनी चुप्पी तोड़नी होगी। अल्ट्रा लेफ्ट और इस्लामी कट्टरपंथियों को उनकी औकात बतानी होगी। उन्हें बताना होगा कि वे कोई जर खरीद गुलाम नही हैं। सबसे पहले मुसलमानों को अपने को इन ब्लैकमेलर्स के चंगुल से छुड़ाना होगा। अगर मुसलमान इन की गिरफ्त से बाहर आ गया तो देश अपने आप बाहर आ जाएगा।

उधर सरकार को भी ध्यान रखना होगा कि वह उस तरह से सोती न रह जाये जैसा कि दिल्ली के दंगों के समय हुआ। यह कोई आम कानून व्यवस्था का सवाल नहीं बल्कि एक बड़े षड्यंत्र का हिस्सा है। उसे ज़रूरी समझदारी, बल और कड़ाई से इन लोगों से निपटना चाहिए। भारत में कानून का राज्य है। संविधान नागरिकों को विरोध करने का अधिकार तो देता है। पर यह अधिकार असीमित नहीं है। कोई कहीं भी झंडा और डंडा गाड़कर विरोध नहीं कर सकता। ये विरोध संसद और विधान सभाओं में हो सकता है , अदालतों में हो सकता है। पर सड़कों और सार्वजनिक स्थानों पर ऐसी अराजकता संविधान और कानून सम्मत नहीं है। शाहीन बागियों और दंगाइयों को दिल्ली को इस्लामाबाद बनाने की इस साज़िश में कामयाब नहीं होने दिया जा सकता।

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