प्लास्टिक को ना लेकिन ठोस विकल्प भी दीजिए
हम क्यों प्लास्टिक के इतने आदी हो गए, क्या हमारे पास तत्काल में कोई विकल्प है, इससे पूरी तरह से मुक्ति के, यदि तुरंत हम अपने जीवन से प्लास्टिक को ना कहेें तो उसका परिणाम क्या सही में सुखद होगा? ऐसे तमाम प्रश्न और जिज्ञासा तब उत्पन्न हो रही थी, जब हमारे प्रधानमंत्री माननीय नरेंद्र मोदी जी प्लास्टिक मुक्त भारत बनाने की बात कह रहे थे । उस समय तमाम भारतीयों के मन में यही विचार चल रहा था कि मोदीजी कह तो सही रहे हैं लेकिन आखिर इस प्लास्टिक युक्त व्यवस्था को लेकर तो सरकार ही आई है। वर्षों बरस इसका इस्तेमाल करने के बाद जब आम आदमी इसका आदी हो गया है तब इसे एकदम से छोडऩे की सलाह दी जा रही है। लेकिन विकल्प या तो महंगे हैं या उपलब्ध नहीं।
भारत में शायद ही कोई ऐसा हो, जो प्लास्टिक को खुशी-खुशी दिल से चिपकाकर रखे। सच यही है कि मन से प्लास्टिक का उपयोग करना कोई नहीं चाहता, किंतु यह आधुनिक समय की मजबूरी बन चुकी है, जिससे कि पूरी तरह से निजात नहीं मिलेगी जब तक कि इसके ठोस विकल्प आम जनता तक नहीं पहुंचा दिए जाते हैं। प्रधानमंत्रीजी की मुहिम है, प्लास्टिक मुक्त भारत बनाया जाए तो दूसरी ओर इस उद्योग से जुड़े लोग इसकी भविष्य में और अधिक संभावनाएं देख रहे हैं। देश में प्लास्टिक उत्पाद से अभी 45 लाख से अधिक लोगों को रोजगार मिला हुआ है जिसके वर्ष 2025 तक बढ़कर 60 लाख पहुंचने की संभावना जताई गई है। उद्योग 2.25 लाख करोड़ रुपए सालाना का है। जोकि वर्ष 2025 तक बढ़कर 5 लाख करोड़ रुपए पर पहुंच जाएगा। 'दि ऑल इंडिया प्लास्टिक मैन्युफेक्चरर्स एसोसिएशन के अनुसार अभी देश से आठ अरब डॉलर के प्लास्टिक उत्पाद निर्यात किए जा रहे हैं जिसके वर्ष 2025 तक बढ़कर 30 अरब डॉलर पर पहुंचने की उम्मीद है।
दूसरी ओर इस सच को भी कोई नकार नहीं सकता कि भारत में सालाना 56 लाख टन प्लास्टिक का कूड़ा बनता है। दुनियाभर में जितना कूड़ा हर साल समुद्र में बहा दिया जाता है उसका 60 प्रतिशत हिस्सा भारत डालता है। भारतीय रोजाना 15000 टन प्लास्टिक कचरे के रूप में फेंकते हैं। दुनिया के 25 से ज्यादा देश अपना 1,21,000 मीट्रिक टन कचरा किसी न किसी रूप में भारत भेज देते हैं। हमारे देश में 55,000 मीट्रिक टन प्लास्टिक का कचरा पाकिस्तान और बांग्लादेश से आयात किया जाता है। इसे आयात करने का मकसद रीसाइक्लिंग करना है। इन दोनों देशों के अलावा मिडिल ईस्ट, यूरोप और अमेरिका से भी इस प्रकार का कचरा आता है।
वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम की एक रिपोर्ट के अनुसार प्लास्टिक प्रदूषण के कारण पानी में रहने वाले करोड़ों जीव-जंतुओं की मौत हो रही है। यह इंसानी जीवन ही नहीं हर किसी के लिए बहुत हानिकारक है, इसके बावजूद भी कहना होगा कि जिस रफ्तार से प्लास्टिक का इस्तेमाल हो रहा है, उससे वर्ष 2020 तक दुनियाभर में 12 अरब टन प्लास्टिक कचरा जमा हो चुका होगा, हजारों लोग कहीं न कहीं इसके कारण से मौंत का शिकार हो चुके होंगे और यदि इस कचरे को साफ भी किया जाता है तो सिर्फ साफ करने में ही सैकड़ों साल लग जाएंगे। इसी प्रकार दुनिया भर में हर मिनट में लगभग 1 मिलियन प्लास्टिक की बोतलें बेची जाती हैं, जबकि इनका सिर्फ 14 प्रतिशत ही रिसाइकिल हो पाता है, शेष को समुद्र में फेंक दिया जाता है ।
अब प्रश्न यही है कि क्या इतनी बड़ी इंडस्ट्री को एकदम बंद किया जा सकता है ? यदि नहीं तो जैसे पहले प्लास्टिक उद्योग या इसके निर्माण से जुड़ी बड़ी-छोटी इकाई खोलने में केंद्र और राज्य सरकारों ने करोड़ों और अरबों की जो राशि खर्च की है, उसके स्थान पर इससे जुड़े लोगों को रोजगार के तौर पर क्या सरकार फिर नए प्रोजेक्ट पूरे करेगी। जो लोग प्लास्टिक उद्योग कर रहे हैं, उन्हें एकमुश्त राशि अपना नया उद्योग खड़ा करने के लिए बिना ब्याज के अथवा अनुदान के रूप में देगी ? यदि वह ऐसा करती है तभी सरकार इस प्लास्टिक पर रोक लगाने में सफल हो सकती है, नहीं तो जिनके घर का चूल्हा प्लास्टिक बेच कर जलता है, उनके सामने तो भूखे मरने की नौबत आ जाएगी।
यहां इस शोध की चर्चा करना भी समीचीन है, वैज्ञानिकों द्वारा म्यूटेंट एंजाइम का निर्माण किया गया है जो प्लास्टिक की बोतलों को अपने आप तोड़ सकता है। प्रयोगशाला में किये गए परीक्षण के दौरान इस एंजाइम ने पॉलीएथाइनील ट्रेफ्थालेट (पीईटी) में रासायनिक बदलाव करके उसे उसके मूल घटक में परिवर्तित करने में सफलता हासिल की। ऐसे ही 2016 में जापान में बेकार पड़े कूड़े के ढेर में उत्पन्न हुए एक जीवाणु द्वारा प्लास्टिक को खाने संबंधी जानकारी मिलने के बाद वैज्ञानिकों द्वारा इस संबंध में कार्य आरंभ किया गया है।
सच कहूं तो ऐसे अधिकांश प्रयोग विदेशी धरती पर बहुतायत में हो रहे हैं, भारत अभी ऐसे प्रयोगों और उनकी सफलता में पीछे है। अच्छा हो, प्रधानमंत्रीजी यदि अपनी सरकार और राज्य सरकारों को इस दिशा में नवाचार करने की पहल के सुझाव एवं निर्देश भी जल्दी से दे दें। जिससे कि प्लास्टिक का ठोस समाधान भी मिल जाएगा और इससे जुड़े रोजगार में भी कोई कमी नहीं आएगी। काश, ऐसा सच में हो जाए तो कितना अच्छा हो...
(लेखक स्तम्भकार हैं।)