भगवान राम के जीवन में वनवासी
वेबडेस्क। प्राचीन भारतीय संस्कृत ग्रंथों में 'रामायण' जनमानस में सबसे ज्यादा लोकप्रिय ग्रंथ है। भारत के सामंत और वर्तमान संवैधानिक भारतीय लोकतंत्र में राम के आदर्ष मूल्य और रामराज्य की परिकल्पना प्रकट अथवा अप्रगट रूप में हमेषा मौजूद रही है। अतएव रामायण कालीन मुल्यों ने भारतीय जन-मानस को सबसे ज्यादा उद्वेलित किया है। इस जन-समुदाय में रामकथाओं में उल्लेखित वे सब वनवासी जातियां भी षामिल हैं, जिन्हें वानर, भालू, गिद्ध, गरुड़ भील, कोल, नाग इत्यादि कहा गया है। यह सौ प्रतिषत सच्चाई है कि ये लोग वन-पषु नहीं थे। इसके उलट वन-प्रांतों में रहने वाले ऐसे विलक्षण समुदाय थे, जिनकी निर्भरता प्रकृति पर अवलंबित थी। उस कालखंड में इनमें से अधिकांष समूह वृक्षों की षाखाओं, पर्वतों की गुफाओं या फिर पर्वत षिखरों की कंदराओं में रहते थे। ये अर्धनग्न अवस्था में रहते थे और रक्षा के लिए पत्थर और लकड़ियों का प्रयोग करते थे। इसलिए इन्हें जंगली प्राणी का संबोधन कथित सभ्य समाज करने लगा। अलबत्ता सच्चाई है कि राम को मिले चैदह वर्शीय वनवास के कठिन समय में ये जंगली मान लिए गए आदिवासी समूह राम-सीता एवं लक्ष्मण के जीवन में नहीं आए होते तो राम की आज जो पहचान है, वह संभव नहीं थी। राम ने लंका पर विजय इन्हीं वनवासियों के बूते पाई। जिन वन्य-प्राणियों के नाम से इन वनवासियों को रामायण काल में चिन्हित किया गया है, संभव है, ये लोग अपने समूहों की पहचान के लिए उपरोक्त प्राणियों के मुख के मुखौटे धारण करते हों। रांगेय राघव ने अपनी पुस्तक 'महागाथा' में यही अवधारणा दी है।
रामायण में वनवासियों की महिमा का प्रदर्षन बालकांड से ही आरंभ हो जाता है। राजा दषरथ के साढू अंग देष के राजा लोमपाद हैं। संतान नहीं होने पर दषरथ, पत्नी कौषल्या से जन्मी पुत्री षांता को बालयाव्यस्था में ही लोमपाद को गोद दे देते हैं। अंगदेष में जब भयंकर सूखा पडा, तब वनवासी ऋशि ऋश्यश्रंृग को बुलाया जाता है। ऋशि विभाण्डक के पुत्र श्रृंगी अंगदेष में पहुंचकर यज्ञ के माध्यम से वर्शा के उपाय करते हैं। अततः मूसलधार बारिष हो जाती है। उनकी इस अनुकंपा से प्रसन्न होकर लोमपाद अपनी दत्तक पुत्री षांता का विवाह श्रृंगी से कर देते हैं। कालांतर में जब दषरथ को अपनी तीनों रानियों कौषल्या, कैकई और सुमित्रा से कोई संतान नहीं हुई, तब बूढ़े दषरथ चिंतित हुए। मंत्री सुमन्त्र से ज्ञात हुआ कि श्रृंगी पुत्रेश्ठि यज्ञ में दक्ष हैं। तब मुनि वषिश्ठ से सलाह के बाद श्रृंगी ऋशि को अयोध्या आमंत्रित किया। ऋश्यश्रृंग ने यज्ञ के प्रतिफल स्वरूप जो खीर तैयार की उसे तीनों रानियों को खिलाया। तत्पष्चात कौषल्या से राम, कैकई से भरत और सुमित्रा की कोख से लक्ष्मण व षत्रुधन का जन्म हुआ। इस प्रसंग से यह तथ्य प्रमाणित होता है कि वनवासियों में महातपस्वी ऐसे ऋशि भी थे, जो कृत्रिम वर्शा और गर्भधारण चिकित्सा विधियों के जानकार थे।
राम को वनगमन के बाद पहला साथ निशादराज गुह का मिलता है। इलाहाबाद के पास स्थित श्रृंगवेरपुर से निशाद राज्य की सीमा षुरू होती है। निशाद को जब राम के आगमन की खबर मिलती है तो वे स्वयं राम की अगवनी के लिए पहुंचते हैं। हालांकि निशाद वनवासी नहीं है, लेकिन वे षूद्र माने जाने वाली जातियों के समूह में हैं, जिन्हें ढीमर, ढीबर, मछुआरा और बाथम कहा गया है। निशाद लोग षिल्पकार थे। उत्कृश्ट नावें और जहाजों के निर्माण में ये निपुण थे। निशाद के पास पांच सौ नौकाओं का बेड़ा उपलब्ध होने के साथ यथेश्ट सैन्य-षक्ति भी मौजूद थी। जब राम को वापस अयोध्या ले जाने की भरत की इच्छा पर संदेह होता है तो निशाद राम-लक्ष्मण की रक्षा का भरोसा अपनी सेना के बूते जताते हैं। किंतु राम अपने भ्राता पर अटूट विष्वास करते हुए कुषंकाओं का पटाक्षेप कर देते हैं। भरत-मिलन के बाद निशाद ही अपनी नौका पर राम, लक्ष्मण और सीता को बिठाकर गंगा पार कराते हैं। षूद्रों में निशाद राज गुह ऐसे पहले व्यक्ति थे, जो राम को कौषल राज्य की सीमाओं के बाहर सुरक्षा का भरोसा देते हैं।
हालांकि राम के आगे बढ़ते जाने के साथ उनसे अत्रि, वाल्मीकी, भरद्वाज, अगस्त्य, षरभंग, सुतीक्ष्ण, माण्डकणि और मतंग ऋशि मिले। निसंदेह वनवासियों के बीच वन-खंडों में रहने वाले इन ऋशियों ने ही राम का मार्ग प्रषस्त किया। ऋशियों के जो वेधषालांएं, अग्निषालाएं और आश्रम थे, उन पर राक्षस तो आक्रमण करते हैं, लेकिन वनवासियों ने किसी ऋशि को कश्ट पहुंचाया हो, ऐसा वाल्मीकी रामयण में ही नहीं, अन्य रामायणों में भी उल्लेख नहीं मिलता। यहां प्रष्न खड़ा होता है कि ऋशि जब वन-खंडों में अपनी गतिविधियों को संचालित रखे हुए थे, तो उनका सरंक्षण और सहयोग कौन कर रहे थे ? उनकी वेधुषालाओं में अस्त्र-षस्त्रों के षोध व निर्माण में सहयोगी कौन थे ? वे उन आश्रमों में किसे षिक्षित कर रहे थे ? जबकि उन आश्रमों के आस-पास ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैष्य जातियां रह ही नहीं रही थीं? स्पश्ट है, ऋशि अनार्यों अर्थात राक्षसों से लुक-छिपकर एक तो वनवासियों के एकत्रीकरण में लगे थे, दूसरे वनवासियों को ही षिक्षित व दिक्षित कर रहे थे।
राम से पहले दक्षिण के वनांचलों में धूल छान रहे ऋशियों का वनवासियों से संघर्श नहीं है, इससे यह संदेष स्पश्ट है कि ऋशि इन जंगलों में इन जातियों के बीच रहकर उन्हें सनातन हिंदू धर्म के सूत्र में पिरोने और उनके कल्याण में संलग्न थे। यह दृश्टिकोण इसलिए भी समीचीन है, क्योंकि इस ओर लंकाधीष रावण की निगाहें थीं और वह इन जातियों को षूर्पनखा, खर व दूशण के माध्यम से रक्ष अर्थात अनार्य संस्कृति में ढालने में लगा था। राम अनार्य संस्कृति के विस्तार में बाधा बनें, इस दृश्टि से ही अगस्त्य राम को पंचवटी में भेजते हैं और पर्ण-कुटी बनाकर वहीं रहने की सलाह देते हैं। यहीं से राम वनगमन में ऐतिहासिक मोड़ आता है। राम को जब पता चलता है कि षूर्पनाखा का पुत्र षंबूक 'सूर्यहास-खंग' नामक विध्वंषक षस्त्र का निर्माण कर रहा है तो राम लक्ष्मण को भेजकर षंबूक को मरवा देते हैं। षंबूक इसलिए दानव या वनवासी कहा गया है, क्योंकि षूर्पनखा का विवाह दानव कालिका के पुत्र विद्युतजिव्ह से हुआ था। रावण जब दिग्विजय पर निकला था, तब उसने कालकेय दानवों के राजा अष्मनार पर हमला बोला था। विद्युतजिव्ह कालकेयों के पक्ष में लड़ा। रावण ने रणोन्मत्त होकर कालकेयों को तो परास्त किया ही विद्युतजिव्ह का भी वध कर दिया।
इस समय षुर्पनाखा गर्भवती थी। रावण को अपने किए पर पष्चाताप होता है। षूर्पनाखा भी उसे भला-बुरा कहती है। अंततोगत्तवा रावण षूर्पनाखा को त्रिषिरा के साथ भेजकर दण्डकवन की अधिश्ठात्री बना देता है। इस क्षेत्र में खर और दूशण पहले से ही तैनात थे। इसी दण्डकवन क्षेत्र में राम ने पंचवटी का निर्माण किया था। पंचवटी के निर्माण पर षूर्पनाखा को आपत्ति थी। इसी विरोध का परिणाम षंबूक-वध और षूर्पनाखा के अंग-भंग के रूप में सामने आया। बाद में जब रावण को इन घटनाओं की खबर लगी तो वह छद्म-भेश में सीता का हरण कर ले जाता है। जटायु ने जब एक स्त्री को बलात रावण द्वारा ले जाते हुए देखा तो उसने पुश्पक विमान पर सवार रावण पर हमला बोल दिया। हालांकि जटायु मारा गया। लेकिन जटायु ऐसा पहला वनवासी था, जिसने अनभिज्ञ स्त्री सीता की प्राण रक्षा के लिए अपना बलिदान दिया था। संभवतः यह पहला अवसर था, जहां से राम और वनवासी जातियों के बीच परस्पर रक्षा में आहुति देने का व्यवहार पनपा।
जटायु के बाद वनवासी महिला षबरी ने राम को सुग्रीव के पास भेजा। यहीं राम षबरी की भावना का आदर करते हुए उसके जूठे बेर भी चाव से खाते हैं। वाल्मीकि रामायण से इतर रामायणों में तो यहां तक जानकारी मिलती है कि षबरी लंका की गुप्तचर होने के साथ विभीशण की विष्वसनीय थी। इस मुलाकत के दौरान वह राम को विभीशण का एक संदेष भी देती है। इस संदेष से सीता के लंका में होने की पुश्टि होती है। इन घटनाक्रमों के बाद राम और सुग्रीव की वह मित्रता है, जो राम को रावण से युद्ध का धरातल देती है। सुग्रीव वनवासियों की उपप्रजाति वानर से है। बालि सुग्रीव का सगा भाई है, जो किश्किंधा राज्य का सम्राट है। बालि ने सुग्रीव को किश्किंधा से निश्कासित कर उसकी पत्नी रूमा को भी अपनी सहचारिणी बना लिया है। बालि इतना षक्तिषाली है कि रावण भी उससे पराजित हो चुका है। इसके बाद दोनों में मित्रता कायम हुई और एक-दूसरे के सहयोगी बन गए। राम बालि की ताकत से परिचित थे। तत्पष्चात भी उन्होंने अपेक्षाकृत कमजोर सुग्रीव से मित्रता की, क्योंकि बालि षक्ति का भय दिखाकर षासन चला रहा था। इस कारण अनेक वानर किश्किंधा से पलायन कर गए थे। राम ने उदारता दिखाते हुए पहले बालि को मारा और फिर सुग्रीव को किश्किंधा के राज-सिंहासन पर बिठाया। तत्पष्चात अपने हित यानी सीता की खोज में जुट जाने की बात कही। बालि की मृत्यु और राम व सुग्रीव की मित्रता की जानकारी फैलने के बाद वे वानर किश्किंधा लौट आए, जो बालि के भय से भाग गए थे। यहीं से राम को जामबंत, हनुमान, नल, नील, अंगद, तार और सुशेण का साथ मिला। इनमें हनुमान तीक्ष्ण बुद्धि होने के साथ दुभाशिए भी थे। सीता की खोज में वानरों की मदद स्वयंप्रभा नाम की एक वनवासी तपस्वनी और गंधमादन पर्वत पर रहने वाले संपाती और उसका पुत्र सुपाष्र्व भी करते हैं।