आधुनिक समाज, वसीम रिजवी से बने जितेंद्र त्यागी और हिन्दू धर्म
उत्तर प्रदेश शिया वक्फ बोर्ड के पूर्व चेयरमैन सैयद वसीम रिजवी जब अचानक से इस्लाम पंथ छोड़ सनातन हिन्दू धर्म स्वीकार्य कर लिया, तभी से उन्हें लेकर इस्लाम को माननेवालों की एक बड़ी जमात ने उनके विरुद्ध सोशल मीडिया पर अभियान चला रखा है । ''अरेस्ट वसीम रिजवी'' इस हैशटैग के साथ । अब तक हजारों की संख्या में लोग यहां न केवल इन्हें गिरफ्तार करने की माँग करते दिख रहे हैं बल्कि उनकी आपत्तिजनक तस्वीरें भी शेयर की जा रही हैं।
प्रश्न यह है कि क्या यह आधुनिक समाज के पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने अपनी घर वापिसी की है? या उनकी लिखी पुस्तक 'मोहम्मद' पर मची सियासी हलचल का यह परिणाम है? जिसमें कि मुस्लिम धर्मगुरुओं ने तीखी प्रतिक्रिया देते हुए यहां तक कहा है कि रिजवी ने इस किताब के जरिये पैगंबर की शान में गुस्ताखी की है। अथवा यह माना जाए कि पूर्व के वसीम रिजवी ने कुरान से जिन 26 आयतों को हटाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी जिसे कि खारिज किया गया । उसके बाद की यह रिजवी की प्रतिक्रिया है?
वस्तुत: इस विषय में बातें अनेक दृष्टिकोण से तथ्यों के साथ आज की जा सकती हैं। वसीम रिजवी यानी कि अब जितेंद्र नारायण सिंह त्यागी यह कहते हैं कि इस्लाम का दूसरा नाम ही आतंक है, जिसकी शुरुआत 1400 साल पहले अरब के रेगिस्तान में हुई थी। इस्लाम में कोई अच्छाई है ही नहीं। अब तो उसको बदलना पड़ेगा। पाकिस्तान में श्रीलंका के एक अधिकारी को बीच सड़क पर मारा गया और वहां इस्लामिक भीड़ उसके जलते शरीर के साथ फोटो खिंचवा रही थी। ये इंसानियत के लिए बेहद शर्मनाक है। मजहब केवल प्यार सिखाता है। दुनिया का सबसे पहला धर्म सनातन ही है। मेरा अब सनातन धर्म के लिए त्याग करना ही मकसद है और मैं मानव सेवा के लिए ये सब करता रहूंगा। तब अवश्य ही इस्लाम के लोगों को गंभीरतापूर्वक सोचना चाहिए कि उनके मजहब में गलती कहां हो रही है, जो रिजवी जैसे लोग आज मुखर होने के लिए विवश हैं।
यहां जब वह मीडिया में यह कहते हुए दिखते हैं कि हम तो इस्लाम को बदलना चाहते थे। कुरान के अनुसार, एक व्यक्ति दूसरे का सिर काटता है तो वह धर्म के आधार पर सही है, लेकिन इंसानियत के खिलाफ है। क्योंकि मैंने राम जन्मभूमि के समर्थन में बोला, इसलिए मुझे इस्लाम से निकाला गया। यहां उनकी इन सभी बातों से समझ आता है कि इस्लाम में विचारों की स्वतंत्रता नहीं है। यदि इस्लाम में पूर्व से चली आ रही धारणाओं पर सवाल उठाओगे तो धमकाए जाओगे, पीटे जाओगे या फिर मार दिए जाओगे। जैसा कि यहां वसीम रिजवी के केस में नजर आ रहा है और फिर गैर इस्लाम को माननेवालों में तो कश्मीर घाटी से निर्वासित पंडितों की दर्दनाक कहानियों को पढ़कर आज कोई दूसरा बड़ा उदाहरण हो नहीं सकता, जहां कब बहुसंख्यक जनसंख्या, अल्पसंख्यक हो गई, पता ही नहीं चला।
दुनिया भर में तमाम दयानन्द, श्रद्धानन्द सिर्फ इसलिए मार दिए गए क्योंकि वे तर्क और बौद्धिकता से इस्लाम की दार्शनिकता का खण्डन कर रहे थे। उदाहरण स्वरूप एक जिज्ञासा का उल्लेख यहां कर लेते हैं, धार्मिक पुरुष जब जन्नत पहुंचते हैं, तो उन्हें 72 हूरें मिलती हैं, लेकिन जब धार्मिक महिलाएं जन्नत पहुंचती हैं, तो उन्हें कौन मिलता है? भारत में इस्लामिक आक्रमण का आरंभ देखिए और 'चचनामा' जैसी अनेक पुस्तकें, जिन्हें किसी गैर मुस्लिम ने नहीं लिखा, साफ तौर पर बताती हैं कि इस्लाम का लक्ष्य क्या है? इस्लाम की सोच क्या है? सब कुछ इन पुस्तकों में लिखा है । इसके आधार पर कहा जा सकता है कि इस्लाम में विचारों की कोई गुंजाइश नहीं, तर्क के लिए कोई स्थान नहीं। कुरान में जो लिखा गया और हदीस में जो उसकी व्याख्या की गई, अंतिम सत्य सिर्फ वही है।
इस बात पर आज गंभीर विचार किया जाना चाहिए कि दुनिया में 82 और 85 प्रतिशत की एक तरफा जनसंख्या रखने वाला कौन सा देश ऐसा होगा, जहां के राज्यों को अपने बहुसंख्यक समाज को कन्वर्जन से बचाने के लिए उन विशेष वर्ग से जिनकी संख्या उनके सामने बहुत कम ही है को लेकर मजबूरी वश कानून तक बनाना पड़ जाए? कहना होगा कि सोनू, राजू, राम, श्याम जैसे नाम रखकर छद्म प्यार करनेवाले आपको भारत में ही मिल सकते हैं, दुनिया में अन्यत्र नहीं । तब आप सोचिए कि वे कितने ताकतवर हैं, जिनके बीच रिजवी जैसे कुछ लोग सकारात्मक परिवर्तन के उद्देश्य से खड़े रहते हैं, लेकिन एक समय के बाद अंत में वहां से मुक्त होने में ही अपने जीवन की सार्थकता देखते हैं।
यह बात भी सभी सोचें-जहां विचारों स्वतंत्रता नहीं, वहां फिर क्यों बने रहना चाहिए? पूर्व के रिजवी के आइने से देखें तो आज का इस्लाम भी कुछ ऐसा ही नजर आता है। जहां अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता नहीं है। जो मत आधुनिक 21वीं सदी के युग में भी अपने को बदलना नहीं चाहता, फिर ऐसे में क्या किया जाए? निश्चित ही रिजवी जैसे विचारवान लोग अपने लिए सत्य का मार्ग प्रशस्त करते हैं, जहां विचारों के स्तर पर, दर्शन के स्तर पर, जिज्ञासाओं के स्तर पर, अभिव्यक्ति की आजादी रहे ।
अभिव्यक्ति की आजादी से याद आते हैं ऐसे कई लोग जो कभी इस्लाम और ईसाईयत की शरणागति में थे, किंतु समय रहते उन्होंने स्वयं को बदल लिया। मशहूर सरोद प्लेयर आशीष खान ने अपना नाम हिंदू धर्म स्वीकारने के बाद आशीष खान देवशर्मा रख लिया था । पाकिस्तानी मूल के ब्रिटिश लेखक अनवर शेख युवावस्था में कट्टर मुस्लिम थे और भारत विभाजन के दौरान उन्होंने गैर मुस्लिमों की हत्या भी की थी। बाद में उन्हें इस कार्य के लिए पश्चाताप हुआ तो उन्होंने हिन्दू धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन किया और अंत में हिन्दू धर्म में अपने नैतिक प्रश्नों का सही उत्तर पाकर हिन्दू बन अपना नाम अनिरुद्ध ज्ञानशिख रखा । इंडोनेशिया के पूर्व राष्ट्रपति सुकर्णो की बेटी सुकमावती सुकर्णोपुत्री के इस्लाम छोड़कर हिंदू धर्म अपना लेने को अभी बहुत समय नहीं बीता है ।
ऐसे में याद आता है, हसन मोसाब यूसुफ का नाम, जिसका कि जन्म फिलस्तीन में हुआ और आतंकी संगठन ''हमास'' के लिए बहुत समय तक काम करता रहा था। वह अपनी आत्म-कथा ''सन आफ हमास'' में लिखता है कि इस्लाम के लिए जिहाद करना उसे विरासत में ही मिल गया था क्योंकि उसके पिता स्वयं इस इस्लामिक आतंकवादी संगठन के संस्थापक सदस्यों में रहे लेकिन जैसे-जैसे समझ विकसित हुई, जिहाद को लेकर कई खयालात मन में उमड़ने लगे और फिर उसका अल्लाह से विश्वास उठता चला गया, उसने फिर इस्लाम छोड़ने में ही अपने जीवन को सार्थक देखा। अपने अनुभव के आधार पर जो व्याख्या हसन मोसाब यूसुफ आज इस्लाम की करता है, उसे आप जब भी पढ़ेंगे, यही विचार आएगा कि इस्लाम मजहब(धर्म) नहीं हो सकता है। यही कारण है कि हसन मोसाब यूसुफ को मारने के कई फतवे इस्लाम के ठेकेदारों द्वारा अब तक दिए जा चुके हैं।
अभी कुछ समय पहले शामली, उत्तर प्रदेश से एक खबर आई थी, 19 लोग एक साथ मुसलमान से हिन्दू बने थे। शहज़ाद और मोहम्मद उमर ने अपने परिवार के 18 सदस्यों के साथ हिन्दू धर्म में वापिसी की थी। इमराना से अनीता बन चुकी इनमें से एक महिला कहती है कि हम सभी लोगों ने खुशी और अपनी मर्ज़ी से घर वापसी की है । हिन्दू जीवन जीने में और हिन्दू रहते हुए जो जिन्दगी की स्वतंत्रता है, वह अन्य कहीं नहीं है। वस्तुत: आज ऐसे कई उदाहरण सामने आ रहे हैं जहां लोग स्वयं आगे होकर इस्लाम से मुक्त हो रहे हैं। जब आप इनसे गहराई से बात करेंगे तो वह उस इस्लाम के अंतरदर्शन को भी बताते हैं, जिसमें किसी अन्य पंथ के लिए कोई स्थान नहीं होता।
वस्तुत: आज यह स्थिति सिर्फ इस्लाम की नहीं है । ईसाईयत के साथ भी यही हाल है। नयनतारा दक्षिण भारतीय फिल्मों का एक चर्चित चेहरा हैं, वह ईसाई परिवार में पैदा हुईं, किंतु उन्होंने हिंदू धर्म इसलिए अपनाया क्योंकि यहां तर्क की अहमियत है। उपनिषदीय ज्ञान उन्हें आनन्द से भर देता है। सनातन हिन्दू धर्म में किसी बात को सिर्फ इसलिए स्वीकार्य नहीं किया जाता कि वह पूर्व से चली आ रही कोई धारणा पर आधारित है। यहां हर बात में आधुनिकता और वैज्ञानिकता का समावेश है। यही हाल हॉलीवुड एक्ट्रेस जूलिया रॉबर्ट्स, लेखिका एलिजाबेथ गिल्बर्ट, अमेरिकी सिंगर ट्रेवर हाल, गायक केआरएस-वन और म्यूजिशियन जॉन कोल्ट्रान का है । यह नाम आधुनिक समाज के कुछ ऐसे बड़े नाम हैं जिन्होंने ईसाईयत को इसलिए अलविदा कहा, क्योंकि उन्हें शांति और परम आनन्द की प्राप्ति ''हिन्दू तन मन हिन्दू जीवन'' को ही धारण करके प्राप्त हो सकी है ।
- लेखक फिल्म सेंसर बोर्ड एडवाइजरी कमेटी के पूर्व सदस्य एवं पत्रकार हैं।