दक्षिण भारत के राज्यों में हिन्दी पर हंगामा क्यों

दक्षिण भारत के राज्यों में हिन्दी पर हंगामा क्यों
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हिन्दी अपने देश की मातृभाषा है। लेकिन दुर्भाग्य से दक्षिण भारत के राज्यों के विरोध के कारण अब तक राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं प्राप्त कर पायी है। न जाने क्यों दक्षिण भारत के राज्यों में प्राय: हिन्दी भाषा के विरोध में स्वर सुनाई देते रहे हैं। हाल ही में इस प्रकार का वातावरण बनाने का फिर से प्रयास किया जा रहा है। वजह यह कि वैज्ञानिक के. कस्तूरीरंगन की अगुआई वाली समिति ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति का प्रारुप केन्द्र सरकार को सौंपा है, जिसमें भारत के सभी प्रदेशों में तीन भाषा प्रणाली को लागू करने की बात प्रस्तावित है। तमिलनाडु सरकार ने यह कहकर इस प्रस्ताव को विरोध किया है कि उनके राज्य पर हिन्दी नहीं थोपी जानी चाहिए। यहां पर सवाल यह आता है कि अभी केवल प्रारुप ही आया है तो इसमें थोपने जैसी बात कहां से आ गई। दूसरी बात यह है कि हर देश की अपनी एक राष्ट्रीय पहचान होती है। भाषा के तौर पर यह राष्ट्रीय पहचान निश्चित रुप से हिन्दी से ही होती है। प्रादेशिक पहचान के तौर पर किसी भी राज्य की एक भाषा हो सकती है, लेकिन हम सभी राष्ट्र के रुप में एक संस्कृति के हिस्सा हैं, जो हमें एकता के सूत्र में स्थापित करती है। उन्हीं में से एक हिन्दी भाषा भी है।

यह सही है कि दक्षिण के कुछ राज्यों में हिन्दी के विरोध में स्वर मुखरित किए जाते रहे हैं। इन राज्यों के विरोध का सबसे बड़ा सच यह भी है कि इस विरोध में राजनीतिक कारण ही दिखाई देता है। यानी हिन्दी के विरोध में राजनीतिक आंदोलन किए जाते रहे हैं, जबकि जनता की भागीदारी नहीं के बराबर ही होती है। इसे हिन्दी का राजनीतिक विरोध कहा जाए तो अधिक समुचित होगा। हिन्दी के विरोध से दक्षिण भारत के नेताओं के सियासी लाभ की बात तो समझ में आती है। लेकिन इससे वहां के आम लोगों का बड़ा नुकसान होता है। हिन्दी नहीं आने के कारण वहां के अधिकांश युवा रोजी-रोटी की तलाश में मुंबई, दिल्ली, कोलकाता या अन्य हिन्दी भाषी राज्यों में नहीं जा पाते हैं। फिर उनके अपने राज्य में रोजगार या नौकरी की बहुत गुंजाइश नहीं बची है। नतीजतन वहां बेरोजगारी बड़ी समस्या है। देश के हिन्दीभाषी राज्यों से जानेवाले पर्यटकों का गाइड भी वही बन पाते हैं जिन्हें टूटी-फूटी ही सही, लेकिन हिन्दी आती है। तमिलनाडु राज्य की ओर से हिन्दी भाषा के विरोध में बहुत कुछ बोला जाता है। सवाल यह है कि हिन्दी राष्ट्रीयता की पहचान होने के बाद भी दक्षिण के राज्य हिन्दी से घृणा क्यों करते हैं? तमिलनाडु में द्रमुक सहित विभिन्न राजनीतिक दलों ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति के प्रारुप में प्रस्तावित तीन भाषा प्रणाली का पुरजोर विरोध किया है। इन दलों ने कहा है कि यह हिन्दी थोपने का प्रयास है। हालांकि केंद्र सरकार ने तीन भाषा प्रणाली को लेकर उठ रही आशंकाओं को पूरी तरह से खारिज किया है। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने कहा है कि किसी राज्य पर कोई भाषा नहीं थोपी जाएगी। इसके बाद भी राजनेता हिन्दी के मामले पर राजनीति करने से बाज नहीं आ रहे हैं। इसके विरोध में द्रमुक के अलावा कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी. चिदम्बरम ने भी बयान दिया है। उल्लेखनीय है कि तमिलनाडु में सन 1968 से दो भाषा प्रणाली लागू है। इसमें केवल तमिल और अंग्रेजी शामिल है। तमिलनाडु भारत का एक राज्य है। इसलिए उसे राष्ट्रीय धारा के साथ चलना चाहिए। चूंकि तमिल और अंग्रेजी इस देश की राष्ट्रीय भाषा नहीं हो सकती, इसलिए तमिलनाडु को राजनीतिक रवैया छोड़कर राष्ट्रीय धारा का हिस्सा बनना चाहिए। उसे छोटे से राज्य केरल से शिक्षा लेनी चाहिए जहां की नर्सें पूरे देश में मरीजों की जान बचाने और सेवा के लिए जानी जाती हैं। उन्हें समझना चाहिए कि कहीं हिन्दी का विरोध कर हम अपना ही विरोध तो नहीं करते हैं।

भारत की मूल भाषा हिन्दी का भले ही देश के सभी राज्यों में समान सम्मान नहीं मिल रहा हो, लेकिन हिन्दी भाषा पहले से भी और वर्तमान में भी वैश्विक सम्मान को प्रमाणित करती हुई दिखाई दे रही है। आज विश्व के कई देशों में हिन्दी बोलने और समझने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। कुछ समय पूर्व आबू धाबी में हिन्दी को तीसरी भाषा के रुप में मान्यता मिलना निश्चित तौर पर हिन्दी की गौरव गाथा को ध्वनित करता है। लेकिन हमारे राज्यों में हिन्दी के प्रति इतना राजनीतिक आक्रोश क्यों? क्या यह केवल विरोध करने के लिए ही विरोध हो रहा है। हम यह भी समझें कि राष्ट्रीयता क्या होती है। राष्ट्रीयता के निहितार्थ क्या हैं? जब यह समझ में आएगा तो स्वाभाविक रुप से हिन्दी का महत्व भी समझ में आ जाएगा।

विविधता में एकता ही भारत की विशेषता है, फिर हम क्यों अपनी विविधता वाली संस्कृति से दूर होने का उपक्रम कर रहे हैं। हिन्दी की बढ़ती वैश्विक स्वीकार्यता को हम भले ही कम आंक रहे हों, लेकिन यह सत्य है कि इसका हमें गौरव होना चाहिए। भारत में हिन्दी की संवैधानिक स्वीकार्यता रही है। कई संस्थाएं हिन्दी को राजभाषा के रुप में प्रचारित करती हैं तो कई मातृभाषा के रुप में। दक्षिण के राज्यों में भी अब हिन्दी बोलने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। इसलिए यह तो कहा ही जा सकता है कि हिन्दी लगातार अपना विस्तार कर रही है।

भारतीय संविधान के अनुसार हिन्दी भारत संघ के साथ ही उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड व उत्तराखण्ड राज्यों तथा दिल्ली व संघ शासित क्षेत्र अंडमान निकोबार की भी राजभाषा है। इसी के साथ महाराष्ट्र, गुजरात व पंजाब राज्यों व संघ शासित क्षेत्रों चंडीगढ़, दादर नगर हवेली व दमन द्वीप में शासकीय कार्यों हेतु हिन्दी मान्य राजभाषा है। भारत के साथ ही सूरीनाम, फिजी, त्रिनिदाद, गुयाना, मारीशस, थाइलैंड व सिंगापुर इन सात देशों में भी हिन्दी वहां की राजभाषा या सह राजभाषा के रूप में मान्यता प्राप्त है। अब आबू धाबी को मिलाकर हिन्दी भारत के अतिरिक्त 8 देशों की मान्यता प्राप्त भाषा बन गई है। इसी के साथ विश्व के 44 ऐसे राष्ट्र हैं, जहां की 10 प्रतिशत या उससे अधिक जनता हिन्दी को बोलती एवं समझती है। यह बात हिन्दी भाषा की सर्वग्राह्यता को बखूबी प्रतिपादित करती है कि विश्व के अनेक देशों में हिन्दी भाषा के पत्र, पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं। अमेरिका में 'हम हिन्दुस्तानी' नाम का साप्ताहिक समाचार पत्र आज विश्व ख्याति अर्जित कर रहा है। उसके पाठकों की संख्या लगातार बढ़ रही है। इसी प्रकार चीन, कनाडा और दक्षिण अफ्रीका में भी हिन्दी को वैश्विक दर्जा दिलाने वाले कार्यक्रम हो रहे हैं, जो भारत के लिए गौरव की बात है। भारत की भाषा का यह सम्मान विदेश में भारतीयों के महत्व को दिखाता है। साथ ही विदेशी धरती पर हिन्दी का यह महत्व अपने देश की न्याय-व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न भी खड़े करता है।

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