फ़िल्म समीक्षा : मैरिटल रेप और घरेलू हिंसा पर समाज की आंख खोलेगी फिल्म ‘लकीरें’

फ़िल्म समीक्षा : मैरिटल रेप और घरेलू हिंसा पर समाज की आंख खोलेगी फिल्म ‘लकीरें’
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मुंबई । अपनी पत्नी से जबर्दस्ती या उसकी मर्जी के बिना संबंध बनाना मैरिटल रेप या वैवाहिक बलात्कार है या नहीं? लंबे समय से इसे अपराध घोषित करने की मांग की जा रही है। इसी मैरिटल रेप और घरेलू हिंसा जैसे संवेदनशील विषय पर इस सप्ताह एक कोर्ट रूम ड्रामा रिलीज हुआ है जिसका नाम ‘लकीरें’ है। फ़िल्म में आशुतोष राणा, गौरव चोपड़ा, बिदिता बाग और टिया बाजपेयी मुख्य भूमिका में हैं।

फ़िल्म के कई दृश्य और डायलॉग विचलित करने वाले हैं। यह फिल्म ज़ेहन में सवाल उठा देती है कि औरत कहीं भी सुरक्षित नहीं है, शादी से पहले उसके मां-बाप को उसकी चिंता होती है, शादी के बाद उसे ससुराल और पति की ओर से भी असुरक्षा की भावनाओं से गुजरना होता है। काव्या का दर्द उसके इन संवादों में झलकता है “सब कुछ होता चला गया और हमने होने दिया, हमने यही मान लिया यही सही है, इसे हो जाने दो। मेरे रिश्ते के लिए पापा ने बहुत दौड़भाग की है, कई बार तो अपमान से भी गुजरे हैं, वह जहां भी मेरी थोड़ी खुशी, सुरक्षा देखते तो मेरी बात चला देते।”

एक्ट्रेस टिया बाजपेयी फिल्म लकीरें में काव्या की कहानी कहती है, जो बलात्कार के लिए अपने पति प्रोफेसर विवेक अग्निहोत्री (गौरव चोपड़ा) पर मुकदमा करके न्याय की मांग करती है। फ़िल्म में एक बेहद परेशान करने वाला मुद्दा उठाया गया है, जिसे समाज में अक्सर नज़रंदाज़ कर दिया जाता है। शादी के बाद सहमति से सम्बंध बनाने की बात सही है, लेकिन पति अगर पत्नी की मर्जी के बिना सम्बंध बनाता है, तो वह ज़ुल्म है, अपराध है और औरत इस बारे में आवाज़ उठा सकती है।

यह फिल्म काव्या की दर्द भरी दास्तान, उसकी भावनात्मक यात्रा को उजागर करती है। बिदिता बाग ने वकील गीता विश्वास का किरदार मज़बूती के साथ जिया है, जो बलात्कार की पीड़िता ठहराते समय विवाहित और अविवाहित महिलाओं के बीच कानूनी भेदभाव को चुनौती देती है। उधर, अदालत में अभिनेता आशुतोष राणा वकील दुधारी सिंह का किरदार निभा रहे हैं, जो काव्या के पति की वकालत करते हैं। शुद्ध हिंदी में उनके संवाद बोलने का अंदाज़ प्रभावित करता है। देखा जाए तो पूरी फ़िल्म काव्या, उसके पति विवेक दामोदर अग्निहोत्री, वकील गीता और दुधारी सिंह के इर्द-गिर्द घूमती है।

अदालत के कई सीन वास्तव में बहुत ही अच्छे हैं। एक जगह काव्या जज साहब से कहती है, “मेरी अर्जी के किसी शब्द को बदला न जाए, मेरे पति विवेक अग्निहोत्री ने मेरे साथ बलात्कार किया है, मुझे इंसाफ चाहिए। अपराध बलात्कार, पीड़िता पत्नी, अपराधी पति। मेरे दर्द को सिर्फ इसलिए अनदेखा न किया जाए, क्योंकि मैं विवाह के बंधन में बंधी हूं।” देखा जाए तो यह संवाद बहुत गहरी और बड़ी बात कह जाता है। फिल्म का विषय बहुत ही भावनात्मक और दर्द भरा है।

फ़िल्म लकीरें घरेलू हिंसा और मैरिटल रेप जैसे गंभीर सब्जेक्ट पर दर्शकों को सोचने पर मजबूर कर देगी। काव्या के रोल को टिया बाजपेयी ने बेहतरीन ढंग से निभाया है। विवेक अग्निहोत्री की भूमिका में गौरव चोपड़ा ने खुद को बखूबी चरित्र में उतारा है। अभिनेत्री बिदिता बाग ने एडवोकेट गीता विश्वास के किरदार को जीवंत कर दिया है। आशुतोष राणा ने भी अपने किरदार के साथ इंसाफ किया है। एक सीन में जब काव्या अपने पिताजी से यह बात कहती है, “जितना दर्द है, चेहरा उतना बता नहीं पा रहा है पापा।” तो सिनेमा देखने वालों की पलकें भी नम हो जाती हैं।

दरअसल, यह सिनेमा वैवाहिक बलात्कार को अपराध के रूप में मान्यता देने की वकालत करती नज़र आती है। फ़िल्म का वितरण रिलायंस एंटरटेनमेंट के पास है।

कलाकार: आशुतोष राणा, बिदिता बाग, गौरव चोपड़ा, टिया बाजपेयी, मुकेश भट्ट

निर्देशक: दुर्गेश पाठक

निर्माता: नवल के टण्डन, कविता पाठक, दिनेश कुमार

अवधि: 123 मिनट

रेटिंग: 3 स्टार्स

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