आपातकाल : जब 'भारत माता की जय' कहना भी अपराध था

आपातकाल :  जब भारत माता की जय कहना भी अपराध था
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आपातकाल भारतीय लोकतंत्र का काला अध्याय है।

आपातकाल भारतीय लोकतंत्र का काला अध्याय है। आपातकाल के दौरान नागरिक अधिकारों एवं स्वतंत्रता का हनन ही नहीं किया गया, अपितु वैचारिक प्रतिद्वंद्वी एवं जनसामान्य पर अमानवीय अत्याचार भी किए गए। आपातकाल के विरुद्ध आवाज उठाने वाले लोगों को पकड़ कर कठोर यातनाएं दी गईं। ब्रिटिश सरकार भी जिस प्रकार की यातनाएं स्वतंत्रता सेनानियों नहीं देती थी, उससे अधिक क्रूरता स्वतंत्र भारत में लोकतंत्र के सेनानियों के साथ बरती गई। आपातकाल पर लिखी गई किताबों और प्रसंगों को पढ़कर उस कालखंड की भयावहता को समझा जा सकता है। आपातकाल का दर्द भोगने वाले लोकतंत्र के सच्चे सिपाही आज भी उन दिनों की कहानियों को सुनाने के लिए हमारे बीच में मौजूद हैं। जब यह साहसी लोग उन दिनों के अत्याचार को सुनाते हैं तब अन्याय के खिलाफ लड़ने से उन्हें जो गौरव की अनुभूति हुई थी, उसकी चमक उनकी आंखों में स्पष्ट नजर आती है। इस चमक के सामने यातनाओं का दर्द धूमिल हो जाता है। उन यातनाओं एवं संघर्ष का प्रतिफल लोकतंत्र की बहाली के रूप में उन्हें प्राप्त हुआ। इसलिए उस समय भोगा हुआ कष्ट उनके लिए गौण हो गया। आपातकाल की 43वीं वर्षगांठ की पूर्व संध्या अर्थात 24 जून 2018 को अपने सामाजिक गुरु श्रद्धेय श्री सुरेश चित्रांशी के सान्निध्य में बैठा हुआ था। प्रसंगवश उन्हें आपातकाल का अपना संघर्ष याद आ गया। उन्होंने लगभग डेढ़ घंटे तक आपातकाल की रोंगटे खड़े कर देने वाली घटनाओं का वर्णन किया। उस जीवंत वर्णन को सुनकर आपातकाल के कठिन समय की अनुभूति मैं स्वयं भी कर सका।

आज जब राजनीतिक और वैचारिक लोग अकारण छोटी-मोटी घटनाओं की तुलना आपातकाल से करते हैं, तब मुझे समझ आता है कि उन्हें आपातकाल का ठीक अंदाजा नहीं है। उन्होंने ना तो आपातकाल भोगा है और ना ही आपातकाल को ठीक से पढ़ा है। जो लोग बार-बार अकारण अभिव्यक्ति की आजादी के खतरे का ढोल पीटते हैं, उन्हें शायद पता ही नहीं कि आपातकाल में अभिव्यक्ति की आजादी किस तरह छीनी गई थी। उन्हें ऐसे समय में अभिव्यक्ति की आजादी खतरे में दिखाई दे रही है, जब वह स्वयं खुलकर न केवल सरकार की आलोचना कर पा रहे हैं बल्कि एक हद तक वे भारतीय संस्कृति और देश का विरोध भी कर बैठते हैं। उन्हें ऐसे समय में अभिव्यक्ति की आजादी खतरे में दिखाई दे रही है, जब शिक्षा परिसरों में खुलकर एक विचारधारा विशेष के लोग ना केवल देश विरोधी नारे लगा रहे हैं अपितु विषाक्त वातावरण का निर्माण भी कर रहे हैं। आपातकाल में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को किस हद तक छीन लिया था, यह मीसाबंदी रहे श्री सुरेश चित्रांशी जी से सुनकर समझा जा सकता है। उन्होंने बताया कि 'भारत माता की जय' बोलने पर भी पुलिस वाले पकड़ कर जेल में डाल देते थे और यातनाएं देते थे। अर्थात उस समय की तानाशाही सत्ता भारत मां का जयकारा भी सुनने के लिए तैयार नहीं थी। भारत मां का जय घोष भी उसके कानों में चुभता था। अपनी मातृभूमि की वंदना भी अपराध घोषित हो गया था। श्री चित्रांशी बताते हैं कि केवल चार नारे लगाने पर किसी को भी पुलिस वाले उठाकर जेल में पटक देते थे। यह नारे थे- 'भारत माता की जय, गौ हत्या बंद करो, बंदी रिहा करो और आपातकाल समाप्त करो।'

सामाजिक कार्यकर्ता श्री सुरेश चित्रांशी स्वयं भी आपातकाल के संघर्ष में जेल गए। उनको और उनके साथियों को रिहा कराने के लिए जब उनके घरवाले आए, तब जेल से बाहर आते समय सभी नौजवानों ने एक बार फिर जोर से उक्त नारे लगा दिए। पुलिस ने जेल के द्वार से ही उन्हें फिर से पकड़ा, कोर्ट ले गए और वहां से फिर जेल में पटक दिया। आपातकाल के विरुद्ध संघर्ष करने वाले इन नौजवानों को यह कतई मंजूर नहीं था कि सरकार उन्हें भारत माता का जयघोष करने से भी रोके। देशभक्ति उनकी रक्त शिराओं में उफान मारती थी। युवा जोश दमनकारी शासन व्यवस्था के विरुद्ध तन कर खड़ा हो जाता और बार-बार बुलंद आवाज में भारत माता की जय का जयकारा लगाता। इस जयकारे की कीमत जानते हुए, देशभक्त लोग क्रूर यातनाओं के रूप में उन्हें चुकाने के लिए सदैव तत्पर रहे। ऐसे ही लोकतंत्र और भारत माता के सच्चे सिपाहियों के कारण आपातकाल वापस लेने के लिए सरकार को मजबूर होना पड़ा था। श्री सुरेश चित्रांशी बताते हैं कि पुलिस की कठोर यातनाओं का इतना भय व्याप्त था कि समाज के सामान्य लोग मीसाबंदियों से मिलने से भी कतराते थे। पुलिस जब उन्हें पकड़ कर खुली जीप में ले जाती थी तो सुबह-शाम उनसे मिलने वाले लोग भी डर के मारे मुंह फेर लेते थे, क्योंकि उन्हें पता था यदि उन्होंने मीसाबंदियों से राम-राम भी कर ली तो तानाशाही सत्ता के सरकारी मुलाजिम उनको भी उठाकर जेल में ठूंस देंगे।

आपातकाल के विरुद्ध संघर्ष में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की महत्वपूर्ण भूमिका को स्मरण करते हुए श्री चित्रांशी बताते हैं कि संघ के कार्यकर्ताओं पर पुलिस की विशेष नजर रहती थी। संघ से किसी भी प्रकार का संबंध रखने वाले लोगों को पुलिस प्राथमिकता के साथ गिरफ्तार कर रही थी। सादा वर्दी में पुलिस के लोग समाज के बीच में घूमकर संघ के लोगों की पहचान करते थे। यदि आप अच्छी हिंदी बोलते हैं और दूसरों से बात करते समय उसके प्रति सम्मान प्रकट करते हैं, तब आपातकाल के समय में आपको इसी आधार पर संघ का कार्यकर्ता समझ कर पुलिस पकड़ सकती थी। किंतु संघ के कार्यकर्ता दमनकारी सत्ता के किसी भी अत्याचार से डरे नहीं। संघ के हजारों कार्यकर्ता गिरफ्तार किए गए। उन्हें जेल में कठोर यातनाएं दी गईं। इसके बाद भी उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से आपातकाल के विरुद्ध प्रभावी आंदोलन चलाया और उसका परिणाम यह रहा कि लोकतंत्र तानाशाह की कैद से मुक्त हो सका उसका परिणाम है कि आज हम पूरे गर्व से भारत माता का जयघोष कर पाते हैं। हालांकि जो उस वक्त आपातकाल के समर्थन में खड़े थे और जिन्होंने आपातकाल लगाया था, आज भी 'भारत माता की जय' का नारा उनको कष्ट पहुंचाता है।

( लेखक विश्व संवाद केंद्र, भोपाल के कार्यकारी निदेशक हैं )


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