आजाद और सोज के बयान निंदनीय
'लश्कर-ए-तैयबा के प्रवक्ता अब्दुल्ला गजनवी ने कश्मीर के मीडिया को भेजे बयान में कहा कि गुलाम नबी आजाद जो कहते हैं, हमारा भी शुरूआत से यही मानना है। आजाद की भाषा किस तरह सीमा पार बैठे आतंकवादी संगठन की सोच से मिलती है। हाफिज सईद ने भी कह दिया कि कश्मीर में भी कुछ अच्छे लोग हैं। क्या आजाद सईद का यह प्रमाण पत्र स्वीकार करेंगे? इन दोनों नेताओं के बयानों को पाकिस्तान मीडिया में पूरी जगह मिली है। वास्तव में इनकी भाषा में और आतंकवादियों तथा पाकिस्तानी पिट्ठू अलगाववादियों की भाषा में कोई अंतर नहीं है।'
जम्मू-कश्मीर को लेकर कांग्रेस के दो वरिष्ठ नेताओं गुलाम नबी आजाद एवं सैफुद्दीन सोज के बयानों पर देश जिस तरह से उद्वेलित हुआ है वह बिल्कुल स्वाभाविक है। ऐसे देश विरोधी बयानों पर भी यदि देश नहीं उबले तो फिर हमारे शरीर में रक्त नहीं पानी बह रहा है। यह सामान्य बात नहीं है कि एक ऐसा नेता जो नौ बार सांसद रहा हो, केन्द्र में मंत्री रहा हो वह कश्मीर की आजादी की बात और उतने सहज ढंग से करे। इसी तरह ऐसा नेता, जो जम्मू कश्मीर का मुख्यमंत्री रहा हो, केन्द्र में कई बार मंत्री रहा हो, राज्यसभा में विपक्ष का नेता हो, कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी के मुख्य रणनीतिकारों में हो वह सेना की कार्रवाई को नरसंहार कहे तो देश को यह विचार करना पड़ता है कि आखिर ये जो दिखते हैं और जो हैं उनमें वाकई अंतर है क्या? कांग्रेस ने भी सोज के बयानों की तो निंदा कर दी लेकिन सारे नेता और प्रवक्ता आजाद के बयान को सही ठहराने में लगे रहे। इसका कारण एक ही हो सकता है कि आजाद राहुल गांधी और सोनिया गांधी के करीबी हैं, अन्यथा आम कांग्रेसी भी उनके बयान के खिलाफ है।
तो आइए पहले बयानों को देखें। सैफुद्दीन सोज कहते हैं कि मुशर्रफ कहते थे कि कश्मीरियों की पहली पसंद तो आजादी है। मुशर्रफ का बयान तब भी सही था, आज भी सही है। सोज ने अपनी किताब कश्मीर: ग्लिम्प्सेस आॅफ हिस्ट्री एंड द स्टोरी आॅफ स्ट्रगल में मुशर्रफ को उद्धृत करते हुए कहा कि अगर कश्मीरियों को अपनी राह चुनने का मौका दिया जाए तो वे आजादी को तरजीह देंगे। अगर भारत की मुख्यधारा का कोई नेता पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ की कश्मीर संबंधी बातों से इस तरह सहमत होता है तो उसे क्या नाम दिया जाए इसके लिए शब्द तलाशना मुश्किल है। यहीं आजाद के बयान पर एक नजर डाल ली जाए। कई टीवी चैनलों पर जो उनके बयान दिखाए गए वो बाद के हैं जिसमें वे केवल अपने पूर्व बयान की सफाई दे रहे हैं। सरकार केवल आतंकवादियों के मरने की संख्या दे रही है आम नागरिकों एवं जवानों की नहीं। दरअसल, उन्होंने एक टीवी चैनल से बातचीत में कहा था कि सरकार चार आतंकवादियों को मारती है तो उसके साथ 20 नागरिकों को भी मार देती है। सरकार की कार्रवाई आतंकवादियों से ज्यादा सिविलियंस यानी नागरिकों के खिलाफ रहती है। पुलवामा में सिर्फ एक आतंकी मारा गया और 13 आम लोग मार डाले गए। आॅलआउट आॅपरेशन शुरू करने के ये मायने हैं कि वे नरसंहार करना चाह रहे हैं।
लश्कर-ए-तैयबा के प्रवक्ता अब्दुल्ला गजनवी ने कश्मीर के मीडिया को भेजे बयान में कहा कि गुलाम नबी आजाद जो कहते हैं, हमारा भी शुरूआत से यही मानना है। लश्कर को उद्धृत करने का उद्देश्य यह बताना है कि आजाद की भाषा किस तरह सीमा पार बैठे आतंकवादी संगठन की सोच से मिलती है। हाफिज सईद ने भी कह दिया कि कश्मीर में भी कुछ अच्छे लोग हैं। क्या आजाद सईद का यह प्रमाण पत्र स्वीकार करेंगे? इन दोनों नेताओं के बयानों को पाकिस्तान मीडिया में पूरी जगह मिली है। वास्तव में इनकी भाषा में और आतंकवादियों तथा पाकिस्तानी पिट्ठू अलगाववादियों की भाषा में कोई अंतर नहीं है। हालांकि सोज का पाखंड तो कई बार उजागर हो चुका है। जब वे नेशनल कॉन्फ्रेंस में थे तो इस विचार से उनको घाटी में वोट मिलता था। इस पार्टी की नीति एक साथ कई भाषा बोलने की रही है।
किंतु कांग्रेस में आने के बाद उनको सहन किया गया यह चिंता का विषय है। एक उदाहरण तो पिछले वर्ष का ही है। 12 अप्रैल 2017 को राजधानी स्थित इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में इंप्रूविंग इंडो-पाक रिलेशन नाम से एक कार्यक्रम में जिसमें पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री खुर्शीद महमूद कसूरी भी शामिल थे सोज ने साफ कहा कि कश्मीर की हालिया समस्या के लिए केवल भारत दोषी है पाकिस्तान नहीं। उनके भाषण पर हंगामा हुआ। कई दिनों तक चर्चा हुई। कांग्रेस ने उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। इस प्रकार का दोहरा चरित्र वहां के नेताओं में आम है। फारुक अब्दुल्ला स्वयं ऐसे बयान देते रहते हैं। उन्होंने कभी कहा कि पाक अधिकृत कश्मीर आपके बाप का है तो कभी कश्मीरी भाषा में घाटी में भाषण देते हुए कहा कि हुर्रियत, आप हमको अपने से अलग न समझो, इससे आगे बढ़कर उन्होंने पत्थरबाजों को अपने मुल्क के लिए संघर्ष करने वाला बता दिया। आखिर ये भी तो केन्द्रीय मंत्री रहे हैं।
ये भारतीय संविधान के तहत शपथ लेते हैं और अंदर से भारत के प्रति इनकी वितृष्णा भी रहती है। तभी तो नेहरु जी ने उनके पिता शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार कर लिया था। अब आजाद की ओर लौटें। कई लोग आंकड़ों से यह स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं कि आजाद की बातें गलत हैं। यह बिल्कुल सच है कि आतंकवादी ज्यादा मारे गए हैं और उनकी तुलना में आम नागरिक बिल्कुल कम। लेकिन जिस तरह घाटी के पांच जिलों में ये तथाकथित आम लोग सुरक्षा बलों के साथ व्यवहार करते हैं उसमें यदि इनकी संख्या बढ़ भी जाए तो इसमें क्या समस्या है। ये पाकिस्तान के साथ लश्कर, आईएस और न जाने किन संगठनों का झंडा लेकर मजहबी, भारत मुर्दाबाद तथा आजादी के नारे लगाते हैं, पत्थरों से सुरक्षा बलों पर हमला करते हैं, उनसे जूझते हैं....आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ में ढाल बनकर आ जाते हैं उनमें यदि सुरक्षा बल संयम से काम न लें, पत्थरों के जख्मों को झेलते हुए शांत न रहें तो कुछ भी हो सकता है। याद दिलाने की आवश्यकता है कि यह स्थिति आजाद के मुख्यमंत्रित्व काल में ही पैदा हुई जो धीरे-धीरे कांग्रेस नेशनल कान्फ्रेंस सरकार में बढ़ते-बढ़ते यहां तक पहुंची है।
आजाद की सरकार ने जून 2008 में 39.88 एकड़ बंजर भूमि श्रीअमरनाथ श्राइन बोर्ड को यात्रियों की सुख-सुविधा के लिए अस्थायी निर्माण के लिए आवंटित किया था। उसके खिलाफ अलगाववादियों ने आंदोलन आरंभ कर दिया, पीडीपी एवं नेशनल कॉन्फ्रेंस में विरोध करने की होड़ लग गई। लंबे समय से जो घाटी शांत दिख रही थी उसमें आग लग गई। अंत में यह निर्णय वापस लिया गया तो उसके विरोध में जम्मू में पहली बार लोग आक्रामक होकर सड़कों पर उतरे। कश्मीर में आजादी का नारा बीते दिनों की बात हो गई थी। हुर्रियत नेताओं को कोई पूछ नहीं रहा था। अचानक इस्लाम के साथ पाकिस्तानी झंडे लहराने लगे। उस समय जो नारे लगे उनको देखिए- ह्यभारत की मौत आई, लश्कर आई लश्कर आई, जियो-जियो पाकिस्तान हमारी मंडी, हमारी मंडी, रावलपिंडी, रावलपिंडी हमें क्या चाहिए आजादी छीन के लेंगे आजादी, हम हिंद से कश्मीर को आजाद कराके रहेंगे, हम कौमा के नवजवान हैं जेहाद करेंगे,...आदि आदि। एक महीने में स्थिति नियंत्रण से बाहर हो गई। आजाद ने इनको नियंत्रित करने का प्रयास ही नहीं किया। हालांकि उनकी सरकार भी चली गई। 18 अगस्त 2008 को एक लाख लोगों का उग्र जुलूस भारत विरोधी नारे लगाते हुए श्रीनगर पहुंचा और वह मानमानी करता रहा, उसे रोकने वाला कोई न था। सुरक्षा बलों के हाथ बांध दिए गए थे। ऐसा डरावना दृश्य कश्मीर में इसके पहले कभी नहीं देखा गया था। 2010 आते-आते पत्थरबाजी आरंभ हो चुकी थी।
कहने का तात्पर्य यह कि देन तो आपकी ही है। केन्द्र की यूपीए सरकार को भी जितना सख्त होना चाहिए था नहीं हुई और नौबत आज यहां तक पहुंच गई है। वास्तव में आजाद ने जो कहा वह केवल तथ्यों से परे व अव्यावहारिक ही नहीं, आपत्तिजनक और देश विरोधी भी है। यह भारत को बदनाम करने वाला, सुरक्षा बलों को बदनाम करने वाला, उनका मनोबल तोड़ने वाला तथा आतंकवादियों एवं अलगाववादियों के साथ पाकिस्तान का पक्ष मजबूत करने वाला है। गलत तथ्य देने तथा सुरक्षा बलों पर गलत आरोप लगाने के कारण उन पर मुकदमा होना चाहिए। किंतु सरकार इस सीमा तक जाएगी नहीं। इसलिए आम जनता की हैसियत से हम आप इसका जितना पुरजोर विरोध और निंदा हो करें ताकि दूसरे नेता देश की निंदा करने से बचें।
( लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं )