चीन की पटरी पर नेपाल की दौड़
- सुशील कुमार सिंह
सरल शब्दों में कहा जा सकता है कि अब राजनयिक नीतियां, आर्थिक अपरिहार्यताओं के तले सांस लेने लगी हैं। इसी के दायरे में इन दिनों नेपाल को चीन से सम्बंध बढ़ाने के तौर पर देखा जा सकता है। हालांकि ऐसे ही परिप्रेक्ष्य के साथ नेपाल का सम्बंध भारत से भी है और कई मायनों में कहीं अधिक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक भी। चीन के छ: दिन के दौरे पर गये नेपाल के प्रधानमंत्री के.पी. ओली और चीन के बीच दोनों देशों को जोड़ने के लिये सड़क, रेल और हवाई मार्ग बनाने के बारे में समझौता हुआ और यह भरोसा जताया गया कि इससे एक नये युग की शुरूआत होगी। इतना ही नहीं आॅप्टिकल फाइबर नेटवर्क से भी दोनों देशों के सम्बंध में सहमति हुई है। गौरतलब है कि ओली का चीन जाना कुछ हद तक भारत के लिए चिंता का विषय है। दरअसल चीन की नजर हमेशा नेपाल पर रही है और जब-जब नेपाल में ओली की सत्ता आई तब-तब यह चिंता तुलनात्मक बढ़े हुए दर के साथ रही है। ओली के दौरे से वन बेल्ट, वन रोड के तहत राजनीतिक साझेदारियां बढ़ सकती हैं जिसका संदर्भ चीनी विदेश मंत्रालय दर्शा रहा है। जाहिर है यह भारत के लिये सही नहीं है। इस परियोजना को लेकर भारत का विरोध आज भी कायम है। ऐसे दौरों एवं मुलाकातों से चीन और नेपाल के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान और मेल-जोल भी गहरे होंगे जिसका कूटनीतिक लाभ चीन अधिक उठायेगा और नेपाल का उपयोग वह कूटनीतिक संतुलन में भारत के प्रति कर सकता है। गौरतलब है कि भारत और चीन के बीच नेपाल एक बफर स्टेट है। ऐसे में चीन किसी भी कीमत पर नेपाल के साथ दोस्ती करना चाहता है और यह काम केपी शर्मा ओली के प्रधानमंत्री रहने के समय कहीं अधिक आसान हो जाता है।
केपी शर्मा ओली के हाथ में नेपाल की कमान दूसरी बार आयी है जिनके बारे में यह कहा जाता है कि नेपाल को चीन के करीब ले जाने में उनकी दिलचस्पी रही है। इतना ही नहीं ओली जब दोबारा नेपाल के प्रधानमंत्री बने तो इसी साल मार्च के दूसरे सप्ताह में उन्होंने तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शाहिद खाकन अब्बासी का अपने देश में स्वागत किया था। अब्बासी ओली की सत्ता संभालने के बाद नेपाल पहुंचने वाले किसी भी देश का पहला प्रधानमंत्री था। तब भी भारत और पाकिस्तान के सम्बंध बेपटरी थे और अब भी। भारत और नेपाल के मामले में यदि नेपाल को चीन की ओर झुके हुए परिप्रेक्ष्य में परखें तो माथे पर बल पड़ता है पर चीन तो यही सोचता है कि नफे-नुकसान के समीकरण से भारत को बाज आना चाहिए। देखा जाय तो नेपाल की अर्थव्यवस्था काफी हद तक भारत पर निर्भर है ऐसे में चीन की ओर उसका झुकाव एकतरफा नहीं हो सकता। भारत के लिये यह बात असहज करने वाली होगी यदि वन बेल्ट, वन रोड परियोजना को नेपाल द्वारा समर्थन मिलता है।
चीनी रेलवे का विस्तार हिमालय के जरिये नेपाल तक ले जाने की बात हो रही है। जो हर लिहाज से चीन के लिये ही बेहतर है। हालांकि नेपाल को यह भी डर होगा कि परियोजना में भारी खर्च होगा ऐसे में तजाकिस्तान, लाओस, मालदीव, किर्गिस्तान, पाकिस्तान समेत मंगोलिया व अन्य देशों की तरह कहीं वह भी चीन के कर्ज के बोझ के तले दब न जाये। ओली के बारे में यह भी स्पष्ट है कि नेपाल में चुनाव कुछ हद तक भारत विरोधी भावना के कारण ही जीते हैं जबकि भारत नेपाल को लेकर हमेशा बड़े भाई की भूमिका में रहा है और जरूरी आर्थिक मदद भी करता रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले दौरे में नेपाल के लिये एक और सहज काम किया कि उन्होंने दोनों देशों के बीच हुए 1950 के समझौते में नेपाल द्वारा संशोधन की चाह रखने को सकारात्मक लिया। हालांकि भारत की चाहत है कि महाकाली नदी का पानी यमुना को दिया जाय और शायद ओली के रहते यह सम्भव नहीं है। दो टूक यह भी है कि नेपाल भारत से दुश्मनी की बात नहीं करता परन्तु समय-समय पर भारत के खिलाफ चीनी कार्ड खेलता रहता है।
नेपाल एक सम्प्रभु देश है और वह अपनी विदेश नीति को किसी देश के मातहत होकर शायद ही आगे बढ़ाये पर कुछ भी ऐसा हुआ तो भारत के लिये चिंतित होना लाजिमी है। सभी जानते हैं कि चीन के लिये नेपाल एक रणनीतिक ठिकाना मात्र है। हालांकि चीन के अंदर भी एक डर है। असल में नेपाल के भीतर भारी तादाद में तिब्बती भी रहते हैं और चीन ने तिब्बत पर अवैधानिक रूप से कब्जा किया हुआ है। फलस्वरूप उसे यह चिंता सताती रहती है कि नेपाल के हजारों तिब्बती ऐसा कोई आंदोलन न करें कि उसका असर तिब्बत पर पड़े। ऐसे में नेपाल के साथ उसका उठाया गया कदम दो तरफा होता है। एक तो नेपाल में स्वयं का घुसपैठ करना, दूसरा भारत की दखल को नेपाल में कमजोर करना।
केपी शर्मा ओली और चीन के बीच 14एमओयू और विनिमय पत्रों पर हस्ताक्षर हुआ है जिसमें सीमा पार बिजली सम्पर्क की आधारभूत संरचना भी शामिल है। फिलहाल ओली की चीन यात्रा हर लिहाज से चीन और नेपाल के लिये ठीक हो सकती है पर यह भारत के लिये सचेत होने की घण्टी भी है। इससे पहले ओली ने 2016 में चीन के साथ एक ट्रांजिट कारोबारी संधि पर हस्ताक्षर किये थे जिसके चलते सामानों को नेपाल लाने के लिये भारत पर निर्भरता कम करना था। प्रधानमंत्री मोदी बीते मई नेपाल की यात्रा पर थे और कसावट से भरा संवाद ओली के साथ किया था। गौरतलब है कि ओली पहली बार जब प्रधानमंत्री बने थे तब चीन की यात्रा पहले की थी। दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने पर भारत की यात्रा पहले की पर इसका अर्थ यह नहीं कि उनका चीन के प्रति झुकाव कम है। निहित संदर्भ यह भी है कि 2016 में नेपाल के लगभग साढ़े पांच हजार छात्रों ने चीन के शैक्षणिक संस्थाओं में पढ़ाई की। बात इतनी ही नहीं है नेपाल में चीन का प्रभाव बढ़ाने की दृष्टि से वहां के 40 हजार छात्रों को मंडारिन सिखायी जा रही है जो चीन की भाषा है। ध्यातव्य हो कि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का पिछला चीनी दौरा हिन्दी और चीनी भाषा सीखने से भी जुड़ा था। सम्भव है कि भाषा आदान-प्रदान से उपादेयता में अन्तर आ सकता है पर इसकी आड़ में यदि अवसर खोजा जायेगा तो हर हाल में चीन ही लाभ में होगा।
लगभग तीन वर्ष पीछे चलें तो पता चलता है कि सितम्बर 2015 में नेपाल द्वारा नये संविधान के अंगीकृत किये जाने के फलस्वरूप भारत-नेपाल की बीच सम्बंध तनावग्रस्त हुए थे। गौरतलब है कि पौने तीन करोड़ की आबादी वाले नेपाल में सवा करोड़ मधेशी हैं जो उत्तर प्रदेश और बिहार मूल के हैं और नेपाल की तराई में रहते हैं। नये संविधान में इनके साथ भेदभाव किया गया था जिसे लेकर नेपाल के भीतर विरोध बढ़ा और आर्थिक नाकेबंदी हुई थी। तब उस वक्त सुशील कोइराला के बाद नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली थे। भारत से नेपाल में आपूर्ति पूरी तरह बंद हो गयी थी। ऐसा मधेशियों ने नाकाबंदी के चलते किया था पर नेपाल ने पूरा दोष भारत पर मढ़ दिया था। इसी दौरान औली ने चीन की ओर झुकने की चुनौती भी भारत को दी थी और चीन गये भी थे। इसमें कोई दुविधा नहीं कि भारत-नेपाल सम्बंध पर चीन की कूटनीति प्रभावी रही है। प्रचण्ड और ओली जैसे सत्ताधारियों ने चीनी कार्ड भी खेला है। नेपाल में चीन के जमते पांव की दोषी नेपाल की सत्ता होती है पर माथे पर बल भारत के होता है। शान्ति और मैत्री संधि का अनुच्छेद 2 स्पष्ट करता है कि नेपाल और भारत की सरकारें अपने पड़ोसी के साथ किसी भी ऐसे टकराव की जानकारी एक-दूसरे को देंगी जिसका प्रभाव उनके मैत्रीपूर्ण रिश्ते पर पड़ने वाला हो पर सच्चाई यह है कि कूटनीतिक और आर्थिक अपरिहार्यताओं ने इन्हें भी बौना किया है।
( लेखक वाईएस लोक प्रशासन शोध प्रतिष्ठान के निदेशक हैं )