किसानों की लाश पर राजनीतिक विकास
हर विरोध के अपने बहाने होते हैं। हर समर्थन के भी अपने बहाने होते हैं लेकिन जब समर्थन और विरोध, सुधार प्रयासों पर भारी पड़ने लगे तो वे अपना महत्व खो देते हैं। केंद्र सरकार द्वारा लाए गए तीन कृषि सुधार कानूनों का जिस तरह विरोध हुआ है और अभी हो रहा है, उसे बहुत उचित नहीं कहा जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय ने किसान नेताओं से पूछा है कि जब उसने पहले ही तीनों कृषि कानूनों पर रोक लगा रखी है तो वे विरोध किस बात का कर रहे हैं ? हाल ही में जब सर्वोच्च न्यायालय ने किसान नेताओं को सड़क जाम करने के लिए फटकार लगाई तो राकेश टिकैत का जवाब था कि हम क्या करें, किसी पड़ोसी के घर में बैठ जाएं ? इस तरह का जवाब कोई जिम्मेदार नागरिक नहीं दे सकता।
किसान आंदोलन शुरू से ही दिग्भ्रमित रहा है। भटका हुआ रहा है। विरोध में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं होती लेकिन किसान आंदोलन में शामिल लोगों ने न केवल लाल किला पर तिरंगे का अपमान किया, वहीं दिल्ली में निहंगों ने जिस तरह नंगी तलवारें भाजीं। कई लोगों को रक्तरंजित किया, उसे किसी भी लिहाज से उचित नहीं ठहराया जा सकता। तब भी किसी विपक्षी दल ने आंदोलनकारियों के इस अमर्यादित व्यवहार की आलोचना नहीं की थी। उन्हें किसानों की पीड़ा तो नजर आई लेकिन दिल्ली की पीड़ा, नोएडा और गाजियाबाद की पीड़ा को देखना उन्होंने उचित नहीं समझा।
इस किसान आंदोलन में कई ऐसे अवसर आए, जिससे आंदोलन की साख पर सवाल उठे। हिंसा का वातावरण बना। उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले में किसान आंदोलनकारियों ने जिस तरह हेलीपैड पर कब्जा किया। सड़क पर उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य और केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय मिश्र 'टेनी' को काले झंडे दिखाने के लिए सड़क पर दौड़ लगाई, उसे मर्यादित विरोध तो नहीं कहा जा सकता। घटना किन परिस्थितियों में हुई, यह जांच का विषय है लेकिन इसमें चार किसानों की जान गई। कार चालक समेत चार भाजपा कार्यकर्ताओं को पीट-पीटकर मार डाला गया। समूचे विपक्ष ने किसानों का पक्ष तो लिया लेकिन उनके अतिरिक्त जो लोग मारे गए, उनके प्रति सहानुभूति के दो बोल भी उनके मुख से नहीं फूटे। इस घटना में भिंडरावाला की टी-शर्ट पहने भी कुछ लोग नजर आए। सवाल यह भी उठे कि किसानों के वेश में कुछ उपद्रवी तत्व घुस आए थे, इसपर भी विपक्ष ने मुंह बंद रखे। विपक्ष को लगता है कि सरकार ने उसके नेताओं को घटनास्थल तक जाने नहीं दिया और उनका दमन किया लेकिन सवाल यह खड़ा होता है कि क्या सरकार को इस संवेदनशील मुद्दे को राजनीति का अखाड़ा बनने देना चाहिए था।
वैसे भी इस घटना के बाद देशभर की विपक्षी पार्टियां जिस तरह लामबंद होकर लखीमपुर खीरी की ओर दौड़ीं, उससे क्या लगता है कि वे किसानों का भला चाहती हैं? उनका एक ही सपना है कि इस बहाने उन्हें वोट की संजीवनी मिल जाए। किसानों की लाश पर राजनीतिक विकास की मंशा उचित नहीं है। लाश की राजनीति करना उचित नहीं है। देश में विकास की राजनीति होनी चाहिए। अजय मिश्र 'टेनी' ने संपूर्णानगर में जो कुछ भी कहा, उसे किसी भी लिहाज से संसदीय, मर्यादित और लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता। पद पाने के बाद माननीयों का आचरण, व्यवहार और बोल भी संयत होना चाहिए।
इसमें संदेह नहीं कि समर्थन और विरोध लोकतंत्र का प्राण तत्व है लेकिन इन दोनों के बीच संतुलन की आधारभूमि पर ही लोकतंत्र अवस्थिति होती है। संसार गुण-दोषमय है। ज्ञानी व्यक्ति के लिए संसार सार लगता है। वैरागी को संसार असार लगता है और जिनके पास ज्ञान, ध्यान और वैराग्य की दृष्टि नहीं हैं, उन्हें संसार लगता है। वे सार और असार का विचार तो करते ही नहीं। यही सिद्धांत समर्थन और विरोध पर भी लागू होता है। हम जिसे चाहते हैं, जिसे पसंद करते हैं, उसका समर्थन करते हैं। जिसे नहीं चाहते, नापसंद करते हैं, उसका विरोध करते हैं जबकि समर्थन हमेशा सत्य न्याय और सत्कर्मों का होना चाहिए। सच्चाई, ईमानदारी, नैतिकता और जिम्मेदारी का होना चाहिए। भारत का दुर्भाग्य यह है कि यहां अच्छे कामों का भी विरोध होता है। लोग परंपरागत ढर्रे पर ही चलना चाहते हैं। जरा भी नवोन्मेष उन्हें अच्छा नहीं लगता। उसका विरोध शुरू हो जाता है। उसमें सैकड़ों दोष तलाश लिए जाते हैं लेकिन उसमें कुछ अच्छाइयां भी हो सकती हैं, इसपर विचार नहीं किया जाता।
गुरु द्रोणाचार्य ने दुर्योधन से कहा कि वह एक अच्छा आदमी ढूंढ कर लाए और युधिष्ठिर से कहा कि वह एक बुरा आदमी ढूंढ़ कर लाएं। इसके लिए दोनों को एक माह का समय दिया गया। जब एक माह बाद जब दोनों गुरु द्रोणाचार्य के समक्ष पहुंचे तो वे सर्वथा अकेले थे। उनके साथ दूसरा कोई आदमी नहीं था जिसे अच्छे या बुरे आदमी की संज्ञा दी जा सके। गुरु द्रोण ने पूछा कि तुम लोगों को तो एक आदमी के साथ आना था तो दुर्योधन ने कहा कि उसे बहुत तलाशने के बाद अच्छा आदमी नहीं मिला क्योंकि उसमें कोई न कोई दोष जरूर था और युधिष्ठिर ने कहा कि उसे कोई बुरा आदमी नहीं मिला कि हर व्यक्ति में मैंने पाया कि कोई न कोई अच्छाई जरूर है।
कबीरदास ने इसी बात को कुछ इन शब्दों में कहा है कि 'बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलिया कोय। जो दिल ढूंढ़ा आपनो मुझसो बुरा न होय।' आचार्य सुश्रुत के गुरु ने उनसे कहा कि कोई ऐसा पौधा ले आओ जिसमें कोई गुण न हो। कई वर्षों बाद जब वे लौटे तो उन्होंने अपने गुरु से कहा कि धरती पर ऐसा एक भी पौधा नहीं हैं जिसमें कोई न कोई औषधीय गुण न हो।
लखीमपुर खीरी प्रकरण में राजनीति नहीं होनी चाहिए बल्कि इस समस्या का स्थायी समाधान तलाशा जाना चाहिए। विपक्ष को पता है कि केंद्र की नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार में किसानों को ढेर सारी सहूलियतें मिली हैं। सरकारी सुविधाओं और किसानों के बीच अब कोई मध्यस्थ नहीं है। सरकारी राहत सीधे तौर पर किसानों के खाते में पहुंच रही है। गांवों और किसानों की माली हालत सुधरी है। चूंकि फरवरी-मार्च में उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव होने हैं इसलिए राजनीतिक दलों को मुद्दा चाहिए जिसे लेकर वे जनता के बीच जा सकें लेकिन विरोध करते वक्त उन्हें इतना तो सोचना ही चाहिए कि उनका यह विरोध देश और प्रदेश को कहां ले जा रहा है।
लखीमपुर की घटना में हुई हर मौत कीमती है। दुखद है। उस पर राजनीति करने की बजाय समस्या का समाधान तलाशा जाना चाहिए। किसानों की मौत से किसान आंदोलन की आग का और भड़कना स्वाभाविक है और अगर ऐसा होता है तो कृषि सुधार प्रयासों को भी उस आग में जलना संभव है। योगी सरकार ने जिस तरह इस संवेदनशील मामले को निपटाया है, वह सराहनीय है लेकिन अभी भी कुछ लोग जिस तरह किसानों को भड़काने का काम कर रहे हैं, उन पर भी नजर रखे जाने की जरूरत है। भाजपा को अपने बड़बोले नेताओं पर भी नजर रखनी होगी। यह समय पूरे विवेक और संयम के साथ आगे बढ़ने का है। हिंसा विरोध की वाहक न बने, यह सुनिश्चित करना सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों की समवेत जिम्मेदारी है।