पॉलिटिकल किस्से : चुनावों में बरकरार रहा सिंधिया घराने का जलवा

पॉलिटिकल किस्से : चुनावों में बरकरार रहा सिंधिया घराने का जलवा
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  • राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने शशिभूषण वाजपेयी को तो माधवराव सिंधिया ने नारायण शेजवलकर को हराया
  • चंद्रवेश पांडे

भिण्ड में उदयन शर्मा स्वामी योगानंद सरस्वती से हारे

ग्वालियर। सन् 1989 के आम चुनाव बोफोर्स की धमक के बीच हुए। लेकिन ग्वालियर अंचल में इसका कोई असर नहीं था। सिंधिया राजघराने का इस चुनाव में भी जलवा बरकरार रहा। कोई 22 साल बाद गुना लौटीं राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने भाजपा का परचम फहराया तो ग्वालियर में उनके बेटे माधवराव सिंधिया का झण्डा बुलंद रहा। अगला चुनाव चंद्रशेखर सरकार गिरने पर जल्दी ही 1991 में हुआ।

नौंवी लोकसभा के चुनाव से पहले राजनीतिक परिदृश्य बहुत कुछ बदल गया था। ऐतिहासिक बहुमत के साथ सत्ता में आए राजीव गांधी पर बोफोर्स सौदे में दलाली के आरोप लगे। उधर विश्वनाथ प्रताप सिंह और उनके साथी कांग्रेस छोडक़र जनमोर्चा बना चुके थे, जो कालांतर में जनतादल के रूप में स्थापित हुआ। 84 में अटलबिहारी बाजपेयी को हराकर राष्ट्रीय राजनीति के क्षितिज पर उभरे माधवराव सिंधिया राजीव गांधी के मंत्रीमंडल में खास अहमियत के साथ रहे। इसी दौर में ग्वालियर में विकास कार्यों के जरिए उन्होंने विकास के मसीहा वाली छवि बनाई।

1989 में माधवराव सिंधिया के परिजन प्रचार के लिए महल की देहरी से बाहर निकले

श्री सिंधिया लगातार दूसरी बार ग्वालियर से चुनावी मैदान में उतरे। भाजपा ने सिंधिया से मुकाबले के लिए खूब खोजबीन के बाद शीतला सहाय को अपना उम्मीदवार बनाया। इस चुनाव में पहली बार माधव राव सिंधिया के परिजन प्रचार के लिए महल की देहरी से बाहर निकले। सिंधिया की धर्मपत्नी श्रीमती माधवीराजे, पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया, पुत्री चित्रांगदा राजे ने पूरे इलाके में प्रचार किया। शीतला सहाय के लिए राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने सभाएं कीं। लेकिन कोई विशेष लाभ नहीं हुआ। सिंधिया 1,49,425 वोटों के अंतर से विजयी हुए।

उधर 89 के आम चुनाव में राजमाता विजयाराजे सिंधिया एक बार फिर गुना से भाजपा की प्रत्याशी थी। इससे पहले वे 1967 में वहां से जीतीं थीं। उनके मुकाबले में कांग्रेस ने महेन्द्र सिंह कालूखेड़ा को चुनावी मैदान में उतारा। कालूखेड़ा माधवराव के प्रबल समर्थक थे। वे राजमाता के हाथों 1,46,290 वोटों से हार गए। भिण्ड में भाजपा ने नरसिंह राव दीक्षित को चुनाव में उतारा। श्री दीक्षित सन् 71 के आम चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर लड़े थे और हार गए थे। दीक्षित ने कांग्रेस के कृष्ण सिंह को 21 हजार 924 वोटों से हराया। वहीं मुरैना में भाजपा के छबिराम अर्गल ने कांग्रेस के कम्मोदी लाल जाटव को शिकस्त दी।

सन् 1991 में मध्यावधि चुनाव हुए। इस दफा फिर राजमाता सिंधिया गुना से और माधवराव सिंधिया ग्वालियर से जीते। राजमाता ने स्वतंत्रता सेनानी शशिभूषण बाजपेयी को हराया। बाजपेयी कभी दिल्ली में जनसंघ के अध्यक्ष प्रो. बलराज मघोक और खरगोन में रामचंद्र ‘बड़े’ को हरा चुके थे। उधर माधवराव सिंधिया ने नारायण कृष्ण शेजवलकर को शिकस्त दी। भिण्ड में राजीव गांधी ने अपने मित्र और पत्रकार उदयन शर्मा को भाग्य आजमाने भेजा, लेकिन वे भाजपा के स्वामी योगानंद सरस्वती से हार गए। उन पर बाहरी होने का ऐसा ठप्पा लगा कि अंत तक वे इस छवि से निकल नहीं सके। मुरैना में कांग्रेस के बारेलाल जाटव ने भाजपा के छबिराम अर्गल को शिकस्त दी।

बसपा की खामोश दस्तक

इस चुनाव में एक और महत्वपूर्ण घटना हुई। कांशीराम के नेतृत्व वाले संगठन दलित शोषित समाज संघर्ष समिति का कायांतरण बहुजन समाज पार्टी के रूप में हो चुका था। 89 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने इंजीनियर फूलसिंह बरैया को अपना प्रत्याशी बनाया। बसपा व बरैया का यह पहला चुनावी अनुभव था। उन्हें 36,500 वोट मिले। कालांतर में बसपा का वोट बढ़ता गया। और वह चुनावी गणित को प्रभावित करने वाली पार्टी बन गईं।

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