अमृत महोत्सव विशेष : सिंध में संघ की सक्रियता और गुरूजी
पाकिस्तान की मांग के साथ ही संभावित सीमावर्ती क्षेत्रों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का काम तेजी से बढ़ा। स्वयंसेवकों ने भी उन क्षेत्रों को भारत से जोड़े रखने और भारत विभाजन नहीं होने देने के लिए सेवा भाव, अदम्य साहस तथा संपूर्ण समर्पण का परिचय दिया। सिंध, सीमांत प्रांत, पंजाब के साथ दिल्ली में भी इस अवधि के दौरान संघ का प्रभाव बढ़ा विभाजन के बाद भारत आकर जनसंघ और भाजपा में सक्रिय रहे झमटमल वाधवानी के अनुसार, सिंध में 75 प्रचारक और 450 पूर्णकालिक कार्यकर्ता थे । सिंध से जुड़े वरिष्ठ संघ नेता के. आर. मलकानी के एक लेख के अनुसार, '1942 तक संघ का विस्तार सिंध के कोने-कोने तक हो चुका था।" गुजराती और सिंधी में विपुल लेखन कर चुके सिंधी मूल के जयंत रेलवानी ने अपने संस्मरणों में लिखा, 'आमतौर पर मान लिया जाता है कि सारे सिंधी संघ से जुड़े हुए हैं. यह सामान्यीकरण निराधार नहीं है। सिंध के प्रत्येक पुरुष का किसी शाखा से प्रत्यक्ष या परोक्ष संबंध रहा है।
धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग के रूप में सिंध के हिंदुओं में संघ के प्रति आकर्षण बढ़ता गया। कांग्रेस के प्रति आजीवन समर्पित रहे नेताओं-कार्यकर्ताओं का भी मोहभंग होने लगा। के. आर. मलकांनी को संघ से जुड़ने का परामर्श उनके बड़े भाई नारायणदास मलकानी ने दिया था, जो खुद सिंध के प्रमुख कांग्रेस नेताओं में शामिल थे। उनका 1917 में महात्मा गांधी से संपर्क हुआ था। चंपारण सत्याग्रह के समय वे मुजफ्फरपुर के जी. बी. बी. कॉलेज में प्रोफेसर के पद पर कार्यरत थे और गांधी जी चंपारण जाने के दौरान उनके घर ठहरे थे । जब गांधी ने 1920 में गुजराती विद्यापीठ की स्थापना की तो मलकानी नौकरी से त्यागपत्र देकर विद्यापीठ से जुड़ गए। बाद में उन्होंने दिल्ली में हरिजन कॉलोनी के निर्माण में योगदान किया। इसके बाद वे सिंध में रचनात्मक कार्यक्रम संचालित करने लगे। सिंध के दो बार मुख्यमंत्री रहे अल्लाबख्श सृमरो को कांग्रेस के निकट लाने में मलकानी की भूमिका रही थी। इसके बावजूद उन्होंने अपने छोटे भाई को सलाह दी, 'कांग्रेस युवाओं को आकर्षित नहीं कर सकती, लेकिन संघ करता है।
भारत का हिस्सा रहते हुए भी राजनीतिक उपेक्षा झेल रहे सिंध के हिंदुओं-सिखों के लिए विभाजन के बाद सरकारी मदद की रही-सही उम्मीद भी मिटती गई। उनके मन में भय था और वे जल्दी भारत चले आना चाहते थे। संघ से उनका भावनात्मक जुड़ाव इस दौरान और गहरा हो गया। विभाजन के नौ दिन पहले तक गुरुजी ने सिंध का प्रवास करके वहां की स्थिति का स्वयं निरीक्षण किया था। उन्होंने स्वयंसेवकों को निर्देश दिया कि वे लोगों को सुरक्षा प्रदान करें और सुनिश्चित करें कि उनका पाकिस्तान से भारत में स्थानांतरण बिना किसी असुविधा के हो । यह दायित्व स्वयंसेवकों ने अपनी जान संकट में डालकर निभाया । पाकिस्तान में अपना सब कुछ छोड़कर भागने को मजबूर कर दिए गए लाखों लोगों के पुनर्वास के लिए संघ ने विभिन्न क्षेत्रों में राहत अभियान चलाए । पाकिस्तान बनने के बाद भी संघ के लोग वहां रुके रहे। कुछ स्वयंसेवकों ने पाकिस्तान सरकार के विरुद्ध सशस्त्र अभियान छेड़ने की योजना पर काम शुरू किया । नंद बदलानी सहित 13 स्वयंसेवकों को पाकिस्तान को पुनः अखंड भारत में विलीन करने के प्रयास के आरोप में कराची जेल में रखा गया था। संघ का नेटवर्क इतना मजबूत था कि बंद स्वयंसेवकों तक गुरुजी का पत्र पहुंच जाता था।नवनिर्मित पाकिस्तान के निशाने पर संघ था । उसी दौरान कराची की शिकारपुर कॉलोनी में एक बम विस्फोट हुआ।
इस घटना को मोहम्मद अली जिन्ना सहित कई महत्वपूर्ण लोगों की हत्या की योजना से जोड़कर मुकदमा दर्ज किया गया। 20 स्वयंसेवक गिरफ्तार किए गए। पाकिस्तान सरकार के खोजी अभियान के बीच स्वयंसेवकों ने भूमिगत रहकर काम जारी रखा। राज्यपाल पुरी वेश बदलकर एयरपोर्ट के सुरक्षाकर्मियों को चकमा देकर निकलने में सफल रहे। उस दौरान सिंध के प्रमुख नेताओं में झमटमल वाधवानी रह गए थे । वे पाकिस्तान में रहकर शिकारपुर कॉलोनी केस के फरार अभियुक्तों की सहायता करते रहे। स्वयंसेवकों की रिहाई के लिए भारत और पाकिस्तान की सरकारों द्वारा कैदियों का हस्तांतरण ही एक मार्ग था । गुरुजी के प्रयासों से भारत सरकार का सहयोग मिला। फिरोजपुर की सीमा पर हस्तांतरण की तारीख भी निश्चित हो गई। लेकिन अंतिम समय में पाकिस्तान की ओर से अड़चन लगा दी गई । पाकिस्तान का कहना था कि दोनों देश बराबर संख्या में कैदी छोड़ेंगे । इसके पीछे गुत्थी यह थी कि भारत में तब केवल एक पाकिस्तानी नागरिक डॉ. कुरैशी को कैद रखा गया था। मोहम्मद अली जिन्ना के घनिष्ठ मित्र डॉ. कुरैशी की रिहाई के लिए पाकिस्तान सरकार काफी प्रयास कर रही थी । एक के बदले एक का नियम बनाकर पाकिस्तान ने सिर्फ संघचालक बैरिस्टर खानचंद गोपालदास को छोड़ने का फैसला किया । गुरुजी को इसकी जानकारी मिली तो उन्होंने तुरंत गृह मंत्रालय से संपर्क किया । गृह मंत्री सरदार पटेल की अनुपस्थिति में काकासाहब गाडगिल प्रभारी मंत्री की भूमिका में थे । गुरुजी ने उनसे बात की। इसके बाद पाकिस्तान सरकार को सूचना भेजी गई कि अगर सभी स्वयंसेवकों को नहीं छोड़ा गया तो भारत डॉ. कुरैशी को रिहा नहीं करेगा । हस्तांतरण की प्रक्रिया तत्काल के लिए टाल दी गई, लेकिन अंततः पाकिस्तान को शर्त माननी पड़ी और सभी स्वयंसेवक सकुशल भारत आ गए ।'