सुन सखी निठुर पपैया बोले - आस्था गोस्वामी
- मल्हार के प्रकारों से प्रकाशित होता प्रकृति का संपूर्ण चित्रण
- प्रकृति के संगीत से निर्मित हो रहा सृष्टि का नव जीवन
आगरा/मधुकर चतुर्वेदी। मेघाच्छादित आकाश को देख मयूर नाचने लगे हैं। पपीहा पिहू-पिहू गाने लगा है। दादुर और झींगुर अपनी हर्षध्वनि से मनुष्य को पावस ऋतु के समीप ला रहे हैं। प्रकृति के संगीत से मानवीय उमंग का एक सुंदर संपर्क निर्मित हो रहा है। अविराम वर्षा के बाद धरती की गोद हरी-भरी तथा शरीर स्निग्ध और कोमल दिखाई दे रहा है। जिस प्रकार वर्षा नवजीवन की सृष्टि करती है, उसी प्रकार संगीतकार इस ऋतु के मनोहारी आकर्षण से प्रेरित होकर सृजनधर्मी हो जाते हैं और हम उनकी कलाओं के रस वर्षण का आनंद पाते हैं। चूंकि वर्षा संगीत की ऋतु है और कई प्रकार के मल्हार इस ऋतु में घर, मंदिरों में गाए-बजाए जाते हैं। पावस ऋतु के साहित्य व सांगीतिक सौंदर्य पर पद्म विभूषण विदुषी गिरजा देवी की सुयोग्य शिष्या व देश की सुप्रसिद्ध शास्त्रीय गायिका 'आस्था गोस्वामी' ने दैनिक स्वदेश से वार्ता में कहा कि 'मल्हार' प्रकृति का चित्रण है। मल्हार सुनते ही सबसे पहले राग मन में आता है। तरह-तरह के मल्हार मन में आते हैं। जैसे गौड़ मल्हार, मेघ मल्हार, सूर मल्हार आदि। मल्हार का अर्थ मानव मन में हरियाली के भावों का आना। आस्था ने कहा कि वह जब भी मल्हार का गायन करतीं हैं तो राग का व्याकरण और मन में प्रकृति के विविध चित्र उत्पन्न होते हैं, जब कहीं जाकर राग को खोल पाती हैं।
हम सभी प्रकृति का हिस्सा हैं
आस्था गोस्वामी ने कहा कि हम सभी प्रकृति का हिस्सा हैं और मल्हार की सभी बंदिशें वर्षा ऋतु का वर्णन करतीं हैं। मल्हार के गायन में संपूर्ण वर्षा का सौंदर्य स्वरों द्वारा वर्णित किया जाता है। इसलिए मल्हार के सभी प्रकारों में मीड़ और गमक का प्रयोग भरपूर होता है। मीड़ और गमक के द्वारा ही बादलों की गर्जन और बिजली की चमक की ध्वनि प्रकृति का वर्णन करती है।
आलाप से बनती है प्रकृति की छवि
गायन में आलाप राग के स्वरूप को दर्शाता है। आलाप गायन के प्रारंभ से ही राग के स्वरूप को धीमी गति से विकसित करने और इसके पूर्ण स्वरूप में ले जाने की प्रकिया है। आस्था ने बताया कि मल्हार गायन में आलाप से ही प्रकृति की छवि बन जाती है। आलाप में गायक की अपनी सोच और राग के प्रति गायक की अपनी प्रवृत्ति निकल कर अभिव्यक्त होती है।
ब्रज में मल्हार गायन की परंपरा
आस्था गोस्वामी ने बताया कि ब्रज में मल्हार को शास्त्रीय, उपशास्त्रीय व लोक संगीत के रूप में गाया जाता है। श्री राधारमण, श्री राधाबल्लभ, श्री टटिया स्थान, श्रीनिंबार्क कोट में समाज गायन की परंपरा है। समाज गायन ब्रज की ऐसी गायन शैली है जो धुपद्र से प्रभावित है। इसमें एक मुख्य गायक जिसे मुखिया व अन्य साथ में गायन करने वालों को दुहारिया कहते है। सब मिलकर मल्हारों के प्रकारों का विभिन्न पद-पदावलियों में गायन करते हैं। शास्त्रीय रागों में 'चलों झूलिये हिंडोर वृषभान की लली व राधे झूलन पधारो घिर आए बदरा' आदि पदों का गायन किया जाता है। आस्था ने बताया कि ब्रज में महिलाओं का सावन में अपने पियर चले जाने की परंपरा है और इसी से मल्हार का लोक संगीत पल्लिवित व पुष्पित हुआ है।
कलाकार का अपना मनोयोग भी होता है।
मल्हार गायन में कलाकार का अपना मनोयोग भी वर्षा के सौंदर्य को स्वरबद्ध करता है। आस्था गोस्वामी ने कहा कि वह स्वयं भी ब्रज के पदों का गायन करतीं है। धुन तो नहीं बदलतीं लेकिन, बोल-बनाव आदि करके अपने मनोयोगों के साथ प्रस्तुत करतीं हैं। कलाकार को भी ऐसा करना चाहिए, गुरू से सीखने के बाद अपने स्वयं के मनोयोगों का प्रयोग करना चाहिए।
गुरू शिष्य परंपरा में सीखकर गाना सही है
मल्हार के आज अनेंको प्रकार है लेकिन, कुछ प्रकार अप्रचलित भी हैं। आस्था गोस्वामी ने कहा कि हर घराने की अपनी कुछ अलग विशेषता होती है। जयपुर घराने में अप्रचलित रागों का गायन विशेष है। वह खुद किराना घराने से है। आस्था ने कहा कि आजकल सीखने को नहीं मिलता और कुछ में मेहनत अधिक लगती है। रागों को निभाना आसान नहीं। गुरू-शिष्य परंपरा में सीखकर गाना सही है। आस्था ने उदाहरण देते हुए कहा कि वह खुद भी राग बागेश्वरी 20 वर्षो से गा रहीं हैं फिर भी, अभी तक सीखना जारी रखा है।
ब्रज के अनन्य रस कवियों व अष्टछाप का योगदान
मल्हार को लेकर ब्रज में जितना अधिक साहित्य का लेखन हुआ है, संभवतः उतना और कहीं दिखाई नहीं देता। आस्था ने कहा कि ब्रज के संतों व अष्टछाप के कवियों ने मल्हार के सभी प्रकारों में पदों की रचना की है। नारायण स्वामी का पद 'देख युगल छवि सावन लागे, इत घन उत घन श्याम लाडिलों, उत दामिनी इत पिया संग राजे' व अपनी रूचि का श्री स्वामी ललित किशोरी जी एक पद आस्था ने सुनाते हुए 'चलो पिया वाही कदमतल झूलें' कहा कि उन्होंने छोटा ख्याल के रूप में इसकी बढ़त की है।
ठुमरी अंग भी प्रचलित है।
ठुमरी में राग मल्हार का गायन नहीं होता। फिर भी प्रकृति-वर्षा का चित्रण अवश्य होता है। आस्था ने बताया कि ठुमरी में देश, तिलक कामोद, मिश्र खमाज आदि रागों का गायन होता है। क्योंकि ठुमरी उपशास्त्रीय गायन है। आमजन को समझ में आए, इसलिए इसमें लोक की अधिकता है। जैसे-'बरसन लागी बदरिया, रूम झूम के'। हालांकि ठुमरी में बंदिश की ठुमरी जरूर गायी जाती हैं।
आस्था गोस्वामी - एक परिचय
- जन्म 1980 लखनऊ, वर्तमान में वृंदावन निवास
- प्रारंभिक शिक्षा-पं. सीता शरण सिंह, डाॅ. एसएस अवस्थी-लखनऊ,
बाद में कोलकाता के आईटीसी संगीत रिसर्च एकेडमी के अंतर्गत पं. अरूण भादुडी व विदुषी गिरजा देवी से संगीत की शिक्षा प्राप्त की।
- देशभर के प्रतिष्ठित संगीत सम्मेलनों में प्रस्तुति के साथ कार्यशालाओं में सहभागिता
- 29 विभिन्न प्रतिष्ठित सम्मानों से सम्मानित।
- आकाशवाणी में ख्याल, ठुमरी व भजन गायन