विपक्षी निर्वात भरने की कोशिशें कितनी होंगी कामयाब
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दो अप्रैल 1975 से लेकर एक दिसंबर 2021 के बीच ममता और कांग्रेस के बीच बहुत कुछ बदल गया है। सिर्फ पंद्रह साल की उम्र में दो अप्रैल 1975 को कोलकाता पहुंचे जयप्रकाश नारायण की कार पर चढ़कममता बनर्जी ने ना सिर्फ राजनीति की दुनिया में कदम रखा था, बल्कि इस एक कदम से वे कांग्रेस के प्रथम परिवार की चहेती बन गईं। इतनी बड़ी कि 1984 में उन्हें जादवपुर से राजीव गांधी ने चुनाव मैदान में उतार दिया। उन्होंने राजीव गांधी को निराश नहीं किया और लोकसभा में उनकी धमाकेदार एंट्री हुई। इसके बाद से उन्हें लगातार कांग्रेस के प्रथम यानी गांधी-नेहरू परिवार का नजदीकी माना जाता रहा। पश्चिम बंगाल की राजनीति में जब वे प्रभावी तौर पर उभरने लगीं तो उन्हें प्रणब मुखर्जी और प्रियरंजन दासमुंशी ने किनारे लगाने की कोशिश शुरू की। इसका उन्होंने कांग्रेस को कराराय जवाब दिया और 1998 के पहले ही दिन कांग्रेस से अपनी अलग राह चुनते हुए अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस का गठन कर लिया। बेशक उन्होंने कांग्रेस से अलग राह चुन ली, लेकिन उनके पार्टी दफ्तर और घर में राजीव गांधी की तसवीर बनी रही। वही ममता बनर्जी जब एक दिसंबर 2021 को यह कहती हैं कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन नहीं रहा तो इसका मतलब साफ है कि कांग्रेस के प्रथम परिवार को लेकर उनकी जो श्रद्धा रही है, वह राजनीति की रपटीली राह में कहीं दूर पीछे छूट गई है।
देखा जाए तो ममता गलत भी नहीं कह रही हैं। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन, जिसे अंग्रेजी में यूनाइटेड प्रोग्रेसिव एलाएंस यानी यूपीए कहा जाता है, उसका गठन साल 2004 में तब हुआ था, जब भारतीय जनता पार्टी की अगुआई वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन-एनडीए चुनाव हार गया था। उसके बाद भाजपा विरोधी दलों को साथ लाने के लिए यूपीए की पहल कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने की। मनमोहन सिंह की अगुआई में जो सरकार चली, वह यूपीए की ही थी, लेकिन 2014 के बाद से यूपीए की कहीं उपस्थिति दिख भी नहीं रही है। नरेंद्र मोदी के उभार और केंद्रीय सत्ता में उनकी प्रतिष्ठा के बाद यूपीए का अस्तित्व कहीं दिखा भी है तो सिर्फ संसद के दोनों सदनों में। नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के विरोध में यूपीए ने संसद के सत्रों में सिर्फ हंगामा ही मचाया है। सत्ता से बाहर होने के बाद विपक्षी गठबंधन के रूप में यूपीए की जो भूमिका होनी चाहिए थी, उस भूमिका पर वह आधा ही खरा उतरा नजर आया है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में विपक्ष की भूमिका संसद के साथ सड़क पर भी होती है। यूपीए सात साल में सड़क पर एक बार भी कोई महत्वपूर्ण और प्रभावी आंदोलन नहीं खड़ा कर पाया। अगर विपक्ष की भूमिका सिर्फ संसद के भीतर सत्ता को पंगु बनाकर रखना है तो कहा जा सकता है कि यूपीए ने विपक्षी गठबंधन के तौर पर अपनी भूमिका निभाई है। हालांकि संसद के भीतर भी कई बार तृणमूल कांग्रेस अपनी अलग भूमिका निभाते नजर आई है। कई बार यूपीए के साथी रहे दल मसलन डीएमके और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी भी अलग सुर अलापते नजर आए हैं।
चाहे 2014 का आम चुनाव हो या फिर 2019 का, राहुल गांधी की अगुआई में कांग्रेस नरेंद्र मोदी का मुकाबला तो छोड़िए, चुनौती भी देती नजर नहीं आई। देश में एक वर्ग नरेंद्र मोदी से निजी खुन्नस जैसा विरोध रखता है। बेशक उसकी नजर में कांग्रेस और राहुल गांधी ही नरेंद्र मोदी को चुनौती देने वाले प्रमुख चेहरा हैं। लेकिन उनके लिए अफसोस की बात यह है कि आम लोगों को ही राहुल गांधी में मोदी को चुनौती देने वाला अक्स नजर नहीं आता। यही वजह है कि पिछले दस साल में जितने भी चुनाव हुए हैं, उनमें से नब्बे फीसद में कांग्रेस को हार ही मिली है। राहुल गांधी को अपनी पारंपरिक अमेठी सीट से हार तो मिली ही, उन्हें केरल के वायनाड से लोकसभा में घुसने की राह तलाशनी पड़ी।
ऐसे माहौल में केंद्रीय स्तर पर अपनी भूमिका तलाशने की दिशा में ममता बनर्जी का आगे बढ़ना असामान्य नहीं है। पश्चिम बंगाल के 2021 के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को पीछे छोड़कर राज्य की सत्ता पर तीसरी बार काबिज होना ममता की कामयाबी तो है ही। और ऐसी हर कामयाबी आगे बढ़ने वाले रास्तों की तलाश की प्रेरणा देती ही है। भारतीय बौद्धिकों के एक वर्ग ने जिस तरह ममता की जीत को भाजपा की हार के तौर पर दिखाया और उसका नैरेटिव रचा है, उसने भी ममता को आगे की राह के लिए प्रेरित किया है। यह व्याख्या ही बेमानी है कि भाजपा की हार हुई है। 2016 के विधानसभा चुनावों की तुलना में 2021 के नतीजों को देखें तो ममता की जीत भले ही नजर आती है, लेकिन भाजपा की हार उतनी नहीं है। बल्कि भाजपा का भी ग्राफ चढ़ा ही है।
लोकतंत्र में सत्ता और विपक्ष का खेल चलता ही रहता है। दिल्ली में हर बार एक ऐसा वर्ग सक्रिय रहता है, जो क्षत्रपों को आगे के सपने दिखाता है और उस पर आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। पिछली सदी के अस्सी के दशक में कर्नाटक में जब रामकृष्ण हेगड़े का उभार हुआ तो उन्हें दिल्ली के बौद्धिकों के एक वर्ग ने भारत का भावी प्रधानमंत्री बताना शुरू कर दिया था। रजनी कोठारी जैसे लोग इसमें आगे थे। लेकिन हेगड़े का क्या हुआ, यह इतिहास में छुपा नहीं है। 1990 में महज 54 सदस्यों के साथ जनता दल से अलग हुए चंद्रशेखर का प्रधानमंत्री बनने के बाद एक मिथ बना। मिथ यह कि जो दल या गठबंधन लोकसभा में चालीस-पचास सीटें जीत सकता है, त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में प्रधानमंत्री बन सकता है। 2004 में समाजवादी पार्टी को चालीस सीट मिली तो मुलायम सिंह यादव भी प्रधानमंत्री बनने का सपना पाल बैठे थे। यह बात और है कि बाजी कांग्रेस के हाथ लगी। पिछली सदी के आखिरी चुनाव में आंध्र में तेलुगू देशम को 30 सीटें मिली थीं तो टीडीपी प्रमुख एन चंद्रबाबू नायडू को भी प्रधानमंत्री के सपने दिखाए जाने लगे थे। 2004 में बिहार में 25 सीट जीतने वाले लालू यादव में भी प्रधानमंत्री का अक्स एक वर्ग को नजर आने लगा था। ममता बनर्जी का भी कुछ वैसा ही हाल है। 2014 के चुनावों में उऩके दल को 34 और 2019 के चुनावों में 42 सीटें मिलीं। भारतीय राजनीति की रवायत के मुताबिक प्रधानमंत्री बनने का सपना ममता के लिए देखना भी लाजमी है।
राहुल गांधी के लगातार विदेश में रहने को लेकर ममता बनर्जी ने जो तंज कसा है, उसे लेकर ऑन द रिकॉर्ड कांग्रेसी चाहे जितना भी विरोध करें, लेकिन अंदरूनी बातचीत में वे भी राहुल के विदेश दौरों पर सवाल उठाने लगे हैं। कांग्रेसी नेता भी कहने लगे हैं कि मोदी से मुकाबले के लिए जैसी इच्छाशक्ति, प्रतिबद्धता और मेहनत चाहिए, वह राहुल गांधी में नहीं है। कांग्रेसी भी मानने लगे हैं कि ऐसी हालत में मोदी का मुकाबला कैसे किया जा सकता है। इससे कांग्रेस में भी निराशा है। यह निराशा ही है कि पिछले साल गुलाम नबी आजाद की अगुआई में 23 नेताओं के विचारों के रूप में सामने आई थी। जिसे एक हद तक कांग्रेस में बागी कहा गया था। कांग्रेस में नेहरू के बाद एक सोच विकसित हो गई है। पार्टी के हित में चाहे जितनी भी अच्छी आवाज उठे, अगर वह गांधी-नेहरू परिवार को मुफीद नहीं बैठती तो उन आवाजों को बागी मान लिया जाता है। शायद यही वजह है कि राहुल की कार्यशैली और विदेश यात्राओं पर सवाल उठाने वाले कांग्रेसी नेता सामने आने से हिचकते हैं।
चूंकि केंद्रीय स्तर पर विपक्ष की उपस्थिति न के बराबर है, मोदी को चुनौती देने की असल स्थिति में कोई नजर नहीं आ रहा है, दूसरे शब्दों में कहें तो एक तरह से वैक्युम यानी निर्वात है। विज्ञान कहता है कि निर्वात को भरने के लिए ताकतवर हवा वहां पहुंचने लगती है, ममता भी उसी सिद्धांत के मुताबिक केंद्रीय विपक्षी की नगण्य उपस्थिति को अपनी सक्रियता से भरना चाहती हैं। इसी भरने की कोशिश में उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर अपनी भूमिका भी नजर आती है। लेकिन उनके साथ एक बड़ी बाधा है। उनकी अब तक की जो राजनीति है, वह राष्ट्रीय नजरिए की नहीं रही है। उनकी 1998 से लेकर अब तक की यात्रा क्षत्रप की यात्रा रही है। पश्चिम बंगाल के हिसाब से उन्होंने राजनीति की है। रेल मंत्री रहते हुए वे अपने स्वीट होम यानी बंगाल को ही तवज्जो देने की बात खुले तौर पर स्वीकार कर चुकी हैं। देश की सोच अजीब है। वह क्षेत्रीय नेता के तौर पर आपको उस खास क्षेत्र के लिए मान्यता दे सकती है। उस क्षेत्र विशेष के लिए क्षत्रप को स्वीकार भी कर सकती है, लेकिन जैसे ही राष्ट्रीय नेतृत्व की बात आती है, वह उसे पीछे छोड़ देती है। उसे राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व के लिए राष्ट्रीय नजरिए वाला व्यक्तित्व ही अच्छा लगता है। ममता ने अब तक के अपने किसी कदम से यह जाहिर नहीं किया है कि वह सर्वसमाज, सर्व क्षेत्र के लिए बहुसंख्यक केंद्रित सोच रखती हैं। अतीत में किसी भी क्षत्रप को अपने क्षेत्र में जबरदस्त ताकत हासिल होने के बावजूद अगर उसे राष्ट्रीय स्वीकार्यता नहीं मिली तो इसकी बड़ी वजह यह सोच ही रही। राष्ट्र की बहुसंख्या आत्माओं, भूमि और संस्कृति को पिरोने की सोच जो नेतृत्व देश के सामने प्रस्तुत होगा, देश उसे ही स्वीकार करेगा। शरद पवार महाराष्ट्र में चाहे जितने भी ताकतवर हों, एन चंद्रबाबू नायडू की लाख तूती बोलती रही, मुलायम सिंह यादव ने चाहे जितना भी दम दिखाया हो, लालू यादव का जादू चाहे जितना भी चला हो, लेकिन राष्ट्रीय नजरिए की कमी देश को नेतृत्व ना दे पाने की उनकी योग्यता की कमी के तौर पर उभरी।
ममता की तीसरी जीत के बाद जिस तरह उऩके विरोधियों पर लगातार हमले हुए हैं, जिस तरह उनके तृणमूल कार्यकर्ताओं ने विरोधियों को निशाना बनाया है, जिस पर कोलकाता हाईकोर्ट को भी टिप्पणी करनी पड़ी है, कम से कम उसे राष्ट्रीय नजरिया तो नहीं ही कहा जा सकता। हालांकि हिंदीभाषियों का खयाल रखने की जिस तरह उन्होंने कोशिश की है, उससे यह संदेश जरूर जाता है कि राष्ट्रीय नजरिए से आगे बढ़ने की कोशिश वे जरूर कर रही हैं।
वैसे यह राष्ट्रीय नेतृत्व वाला नजरिये का सहयोगी राष्ट्रव्यापी संगठन भी बनता है। ममता यह समझती हैं। इसीलिए मुकुल संगमा की अगुआई में मेघालय कांग्रेस के 17 में से 12 विधायकों को तोड़ लाती हैं। गोवा में लुइजिन्हों फलेरियो जैसे पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री को साथ जोड़ने में कामयाब रही हैं। पश्चिम बंगाल की राजनीति में जिन प्रणब मुखर्जी की वजह से ममता को कांग्रेस से अलग राह चुननी पड़ी, उन्हीं प्रणब के बेटे अभिजीत अब ममता के लेफ्टिनेंट बन चुके हैं। जाहिर है कि ममता अपना संगठनात्मक आधार बनाने की दिशा में लगातार आगे बढ़ रही हैं। इस यात्रा में कांग्रेस के ही लोग टूटकर उनके साथ आ रहे हैं। इसकी वजह यह है कि जो ममता की विचारधारा है, कमोबेश वही कांग्रेस की ही है। चूंकि कांग्रेस में मजबूत नेतृत्व की कमी है, और ममता की ही छत्र छाया में उन नेताओं को मजबूत नेतृत्व नजर आता है, लिहाजा वे ममता के तृणमूल की ओर आकर्षित हो रहे हैं। ममता की राजनीतिक यात्रा कांग्रेस के साथ शुरू हुई थी। कांग्रेस मुक्त का नारा भले ही नरेंद्र मोदी ने दिया है, लेकिन ममता लगातार जिस तरह कांग्रेस को निशाना बना रही हैं, उससे लगता है कि असल में कांग्रेस से देश को वही मुक्त कराने की कोशिश में जुटी हुई हैं। माना जा सकता है कि उन्हें इसी राह से खुद के भाजपा विरोधी धुरी बनने की राह दिख रही है।
राजनीतिक कदमों के भावी नतीजों के आकलन का महत्वपूर्ण वैसी ही घटनाओं की ऐतिहासिक कड़ियां और उनके नतीजें बुनियादी आधार बनते हैं। ममता की सफलता इस नजरिए से संदिग्ध नजर आती है। हालांकि यह भी नहीं भूलना चाहिए कि राजनीति असंभव को संभव बनाने की भी कला है। कई बार राजनीति नई परिभाषाएं रचती है, कई बार वह असंभव में भी अपनी राह तलाश लेती है। यही वजह है कि ममता पर ध्यान दिया जा रहा है। वह कितना सफल होंगी या कितनी नाकामयाब, यह तो भविष्य के गर्भ में हैं। लेकिन इतना तो तय है कि कांग्रेस के साथ शुरू उनकी यात्रा कांग्रेस के खात्मे का सहयोगी जरूर बन रही है।