स्वदेश विशेष: अटल - प्रतिबद्धता ही सच्ची पत्रकारिता की कसौटी

अटल - प्रतिबद्धता ही सच्ची पत्रकारिता की कसौटी
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राज कुमार सिंह। भारत विश्व का सबसे बडा लोकतंत्र है। आजादी का अमृत महोत्सव काल चल रहा है। ऐसे में क्या राजनेताओं के आचरण और भूमिका पर उठते सवाल-गहराते संदेह चौंकाने से भी ज्यादा डराते नहीं हैं? लोकतंत्र को सबसे जिम्मेदार और जवाबदेह शासन प्रणाली माना जाता है।

फिर ऐसा क्यों है कि विश्व के सबसे बडे. लोकतंत्र में मात्र सात दशक में ही खुद लोकतंत्र के प्रतिनिधि कठघरे में खडे. नजर आने लगे हैं? समस्या निश्चय ही बडी. है, पर उससे भी गंभीर संकट है कि जिस पत्रकारिता से पूरी व्यवस्था का प्रहरी होने की भूमिका निभाने की अपेक्षा है, वह खुद कमोवेश वैसे ही कठघरे में खडी. नजर आ रही है।

राजनेताओं के आचरण को ले कर जितने सवाल उठ रहे हैं, उससे कम पत्रकारिता के चरित्र पर भी नहीं उठ रहे। दोनों के परस्पर संबंध पर तो सवाल से भी ज्यादा संदेह की स्थिति है।

अपने देश में यह स्थिति और भी विडंबनापूर्ण इसलिए लगती है, क्योंकि पहले स्वाधीनता संग्राम में और फिर स्वतंत्र भारत की राजनीति में पत्रकारों तथा पत्रकारिता से राजनीति में आये लोगों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी स्वयं पत्रकार -संपादक थे। शहीद-ए-आजम भगत सिंह भी पत्रकार रहे। आगरा से प्रकाशित अपने समय के अग्रणी हिंदी दैनिक सैनिक के संस्थापक संपादक श्रीकृष्ण दत्त पालीवाल स्वतंत्रता सेनानी तथा जवाहर लाल नेहरू के समकालीन कांग्रेसी नेता रहे। वह उत्तर प्रदेश में मंत्री भी रहे, पर न तो पत्रकार और न ही राजनेता के रूप में उनकी भूमिका पर कभी सवालिया निशान लगे।

उनकी समाज और देश के प्रति प्रतिबद्धता इतनी स्पष्ट और मुखर थी कि राजनीतिक भविष्य का जोखिम उठा कर नेहरू सरीखे विराट व्यक्तित्ववाले शीर्ष नेता से भी टकरा जाते थे। ऐसे उदाहरण अन्य राज्यों में भी कम नहीं, पर वह देश-काल भी ऐसा था, जब निजी स्वार्थ और संकीर्णता व्यापक देश-समाज हित पर हावी नहीं हुई थी। इतिहास साक्षी है कि लंबे चले भारत के स्वाधीनता संग्राम में विभिन्न वर्गों-लोगों ने अलग-अलग भूमिकाएं निभाते हुए अविस्मरणीय योगदान दिया। पत्रकार-संपादक और साहित्यकार अपनी लेखनी से अंग्रेजी हुकूमत के शोषण-दमन चक्र का विरोध करते हुए आजादी का अलख जगा रहे थे तो बडी. संख्या में जागरूक सामाजिक कार्यकर्ता कांग्रेस के बैनर तले जन जागरण के जरिये इसे एक आंदोलन का रूप देने का प्रयास कर रहे थे।

अनेक युवाओं को लगता था कि जो अंग्रेजी साम्राज्य इतना विशाल है कि उसमें सूरज ही नहीं डूबता, उसे सविनय अवज्ञा और अहिंसक सत्याग्रह से नहीं हराया-भगाया जा सकता। इसलिए वे सशस्त्र संघर्ष यानि क्रांति को ही आजादी का कारगर हथियार मानते थे। राजा महेंद्र प्रताप और नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने तो इसके लिए दूसरे देशों तक से संपर्क कर सहयोग हासिल किया।

कई बार ये भूमिकाएं दोहरी-तिहरी भी रहीं, पर उद्देश्य एक और लक्ष्य स्पष्ट था, इसलिए कभी परस्पर टकराव नहीं हुआ। शायद इसीलिए आजादी का लक्ष्य हासिल हो जाने के बाद अनेक पत्रकार- साहित्यकार सक्रिय राजनीति में भी आ गये। न तो उन्हें ऐसा करने में संकोच हुआ और न ही देशवासियों ने उनके भूमिका- परिवर्तन को किसी स्वार्थ या संदेह की दृष्टि से देखा। कारण भी स्पष्ट है कि ये पत्रकार-साहित्यकार स्वतंत्र भारत के नव निर्माण के सपने को साकार करने में भी भूमिका निभाना चाहते थे तो देशवासियों की दृष्टि में उनकी सोच और सरोकार हर दृष्टि से असंदिग्ध थे ही।

अपवाद ढूंढे. जा सकते हैं, पर ज्यादातर पत्रकार-साहित्यकार, देश-समाज निर्माण में अपनी भूमिका की सकारात्मक सोच के साथ ही सक्रिय राजनीति, जिसे अब सत्ता-राजनीति कहा जाने लगा है, में आये। सच यह भी है कि देश-समाज निर्माण को ले कर उनकी अपनी स्पष्ट सोच थी, जो अपने समकालीनों से अलग भी हो सकती थी। पत्रकारिता में प्रखर पहचान के बाद राजनीति में भी ऊंचा मुकाम हासिल करनेवाले पत्रकारों की सूची लंबी बन सकती है, लेकिन हिंदी पत्रकारिता, जो निश्चय ही भारत की प्रतिनिधि पत्रकारिता भी है, के संदर्भ में स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी की चर्चा करना ज्यादा प्रासंगिक होगा।

राष्ट्रधर्म, पांचजन्य, स्वदेश और वीर अर्जुन सरीखे समाचार पत्र-पत्रिकाओं में अपनी विभिन्न भूमिकाओं से प्रखर पत्रकार-संपादक की पहचान बना चुके वाजपेयी राजनीति में आ कर भी शीर्ष पद—प्रधानमंत्री-- तक पहुंचे। उनकी किसी भी भूमिका पर उनके राजनीतिक विरोधियों तक ने कभी सवाल नहीं उठाया। शायद इसलिए कि उनकी देश-समाज के प्रति प्रतिबद्धता और स्वयं की विश्वसनीयता असंदिग्ध थी।

वाजपेयी की विचारधारा से असहमति हो सकती है। राजनीतिक स्तर पर यह रही भी, लेकिन उनकी सोच,समझ और प्रतिबद्धता पर संदेह कभी किसी ने नहीं किया। लखनऊ से प्रकाशित राष्ट्रधर्म के संपादक पद के लिए अनेक उम्मीदवार थे, पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन प्रांत प्रचारक भाऊराव और सह प्रांत प्रचारक पंडित दीनदयाल उपाध्याय को युवा अटल बिहारी वाजपेयी ही सबसे उपयुक्त लगे। राष्ट्रधर्म के प्रथम अंक (31 अगस्त,1947) में प्रकाशित अपने गीत से ही वाजपेयी ने वैचारिक उद्घोष भी कर दिया था:

हिंदू तन-मन, हिंदू जीवन, रग-रग हिंदू मेरा परिचय

मैं शंकर का वह क्रोधानल, कर सकता जगती क्षार-क्षार

मैं डमरू की ही प्रलय ध्वनि, जिसमें नचता भीषण संहार

रणचंडी की अतृप्त प्यास, मैं दुर्गा का उन्मत हास

मूलत: कवि ह्रदय वाजपेयी प्रखर पत्रकार-संपादक के रूप में अपनी पहचान बना चुकने के बाद राजनीति में आये तो वह भी उनकी वैचारिक स्पष्टता और प्रतिबद्धता का ही परिणाम रहा। स्वयं वाजपेयी ने एक इंटरव्यू में बताया था कि उनके राजनीति में आने के मूल में 1953 के आसपास का एक घटनाक्रम रहा। जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जम्मू-कश्मीर को दिये गये विशेष दर्जे के मुखर विरोधी थे।

शेष भारत के लोगों के लिए वहां जाने के लिए लागू परिमिट व्यवस्था का भी मुखर्जी विरोध करते थे। इसी का विरोध करते हुए डॉ. मुखर्जी बिना परिमिट लिये श्रीनगर गये, जहां उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। वाजपेयी पत्रकार के रूप में उनकी उस श्रीनगर यात्रा की रिपोर्टिंग करने साथ गये थे। डॉ. मुखर्जी ने गिरफ्तार हो जाने पर कहा: वाजपेयी जाओ और दुनिया को बताओ कि मैं कश्मीर आ गया हूं—बिना किसी परिमिट के। नजरबंदी के दौरान ही कुछ समय बाद डॉ. मुखर्जी का निधन हो गया, तो वाजपेयी को लगा कि उनके अधूरे काम को आगे बढा.ना चाहिए। स्पष्ट है कि वाजपेयी किसी सत्ता महत्वाकांक्षा से प्रेरित हो कर नहीं, बल्कि राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के एजेंडा के साथ राजनीति में आये। विचारधारा स्पष्ट थी और मुखर भी, पर उसमें अलग विचारधारा या असहमति के लिए कोई दुराग्रह नहीं था।

हर मुद्दे पर संवाद की गुंजाइश ही नहीं, बल्कि स्वागत भी था। वैचारिक अलगाव के बावजूद परस्पर सम्मान और सौहार्द था। अगर स्वाभिमान और अभिमान में अंतर करना आ जाये तो फिर बहुत सारे अवांछित वाद-विवाद से बचते हुए सम्मान किया जा सकता है और पाया भी जा सकता है।

एक और प्रकरण इस बात को पुष्ट करता है। सफल पत्रकार-संपादक के रूप में अपनी पारी खेलने के बाद वाजपेयी राजनीति में भी अपनी विशिष्ट पहचान बना चुके थे। उल्लेख के अनुसार 1977 का वाकया है। देश में पहली बार जनता पार्टी के रूप केंद्र में गैर कांग्रेसी सरकार पदारूढ. हुई थी। मोरारजी देसाई के नेतृत्ववाली उस सरकार में अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री थे। आपातकाल के दौरान जेल में ज्यादा संवेदनशील और मुखर रहा कवि ह्रदय सत्ताकाल में भी जब-तब जाग उठता था। वाजपेयी जी ने एक गीत प्रकाशनार्थ तत्कालीन प्रमुख हिंदी पत्रिका साप्ताहिक हिंदुस्तान को भेजा। वाजपेयी से उम्र में नौ वर्ष छोटे मनोहर श्याम जोशी संपादक थे। जब कुछ दिनों तक गीत नहीं छपा तो वाजपेयी ने अपने आधिकारिक लेटर हेड पर उन्हें पत्र लिखा:

“प्रिय संपादक जी,

जय राम जी की…. समाचार यह है कि कुछ दिन पहले मैंने एक अदद गीत आपकी सेवा में रवाना किया था। पता नहीं, आपको मिला या नहीं….नीका लगे तो छाप लें, नहीं तो रद्दी की टोकरी में फेंक दें। इस संबंध में एक कुंडली लिखी है:

कैदी कविराय लटके हुए,

संपादक की मौज;

कविता हिंदुस्तान में,

मन है कांजी हौज;

मन है कांजी हौज,

सब्र की सीमा टूटी;

तीखी हुई छपास,

करे क्या टूटी-फूटी;

कह कैदी कविराय,

कठिन कविता कर पाना

लेकिन उससे कठिन

कहीं कविता छपवाना!”

जमीन से जुडे. साहित्यकार- संपादक जोशी जी का जवाबी पत्र भी कम दिलचस्प नहीं था:

“आदरणीय अटल जी महाराज,

आपकी शिकायती चिठ्ठी मिली। इससे पहले कोई एक सज्जन टाइप की हुई एक कविता दस्ती दे गये थे कि अटल जी की है। न कोई खत, न कहीं दस्तखत…आपके पत्र से स्थिति स्पष्ट हुई और संबद्ध कविता पृष्ठ 15 पर प्रकाशित हुई। आपने एक कुंडली कही तो हमारा भी कवित्व जागा:

“कह जोशी कविराय

सुनो जी अटल बिहारी,

बिना पत्र के कविवर,

कविता मिली तिहारी,

कविता मिली तिहारी;

साइन किंतु न पाया,

हमें लगा चमचा कोई,

खुद ही लिख लाया,

कविता छपे आपकी

यह तो बडा. सरल है,

टाले से कब टले, नाम

जब स्वयं अटल है। ”

तब ऐसे परस्पर सम्मान और सौहार्दपूर्ण होते थे सत्तासीन नेता और पत्रकार-संपादक के संबंध, पर आज उन्हें किस तरह सत्ता की तिकड.म और निहित स्वार्थ का ग्रहण लग गया है—किसी से छिपा नहीं है। सत्ता शीर्ष तक पहुंच कर राजनीति ही नहीं, विदेश नीति तक की नयी सोच और परिभाषा गढ. कर देश में विरोधियों ही नहीं, सदैव शत्रुवत व्यवहार करनेवाले पडो.सियों तक दिल जीतनेवाले अटल बिहारी वाजपेयी यह सब इसलिए कर पाये कि कुशल वक्ता के साथ ही वह अत्यंत सरल ह्रदय संवेदनशील, मगर कभी हार न माननेवाले इनसान भी थे। ऐसे ही एक और वाकये के जिक्र के बिना वाजपेयी की चर्चा को विराम नहीं दिया जा सकता।

वाकया वर्ष 1988 का है। राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे और वाजपेयी किडनी की ऐसी बीमारी से ग्रस्त थे, जिसका बेहतर इलाज अमेरिका में हो सकता था। राजनीतिक विरोध को दरकिनार कर राजीव ने संयुक्त राष्ट्र जानेवाले प्रतिनिधिमंडल में उनका नाम शामिल किया, ताकि उन्हें बेहतर इलाज उपलब्ध हो सके। तब भी वहां अस्पताल से वाजपेयी जी ने तत्कालीन लोकप्रिय हिंदी साप्ताहिक धर्मयुग के संपादक एवं मूर्धन्य साहित्यकार डॉ. धर्मवीर भारती को लिखे पत्र के साथ एक कविता भेजी थी। अस्पताल के बिस्तर से लिखी और धर्मयुग में प्रकाशित वह कविता बहुत चर्चित हुई थी:

ठन गई! मौत से ठन गई! जूझने का मेरा इरादा न था, मोड. पर मिलेंगे इसका वादा न था,

रास्ता रोक कर वह खडी. हो गई, यों लगा जिंदगी से बडी. हो गई।

मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,

जिंदगी सिलसिला, आज कल की नहीं।

मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं,

लौट कर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं?

जैसा कि पहले भी लिखा गया है, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वाजपेयी के अलावा भी कई साहित्यकार-पत्रकार अलग-अलग प्रेरणाओं-संकल्पों के साथ राजनीति में आये। उनमें से अनेक ने अपनी साख बरकरार रखते हुए राजनीति के जरिये भी देश-समाज के निर्माण-बदलाव में उल्लेखनीय योगदान दिया, लेकिन पिछले कुछ दशकों में साहित्य या पत्रकारिता की अपनी साख अथवा कहें कि संपर्कों के सहारे राजनीति में आये ज्यादातर चेहरे विरासत की शानदार कसौटी पर खरा नहीं उतर पाये। कमियां किसी में भी हो सकती हैं। ऐसा नहीं है कि आजादी के तुरंत बाद राजनीति में आये सभी साहित्यकार-पत्रकार महा मानव थे। उनमें भी कुछ कमियां रही होंगी, लेकिन उनकी सोच स्पष्ट थी और सरोकार असंदिग्ध। सच कहें तो तब लोग देश-समाज के निर्माण-बदलाव में योगदान की सोच और संकल्प के साथ राजनीति में आते थे, मगर फिर सत्ता एकमात्र साध्य बन गयी है और राजनीति उसका साधन। जाहिर है, राजनीति में प्रवेश करते ही तमाम विकृतियां इनसान में नहीं आ जातीं, वे पहले से चरित्र का हिस्सा होती हैं। इसीलिए आज हम जो विचार और सरोकार का संकट राजनीति में देख रहे हैं, पत्रकारिता में भी कम बडा. नहीं है। हां, इतना अवश्य है कि उसकी उतनी चर्चा नहीं होती। अब खबरवालों की खबर कौन बताये-दिखाये? अगर हमारी राजनीति विचार और सामाजिक सरोकार से भटक गयी है तो कटु सत्य यह है कि पत्रकारिता अपने सरोकारों और प्रतिबद्धता से कट चुकी है।

बेशक राजनीति की तरह पत्रकारिता में भी अपवाद ढूंढे. जा सकते हैं, पर अन्ना हजारे के शब्दों में कहें तो जिस तरह वर्तमान राजनीति पैसे से सत्ता और सत्ता से पैसा बनाने का खेल भर रह गयी है, उसी तरह ज्यादातर मीडिया समूहों के लिए पत्रकारिता विशुद्ध व्यवसाय तथा पत्रकारों के लिए आकर्षक वेतन के साथ ही उपयोगी संपर्क बनानेवाला ग्लैमरस प्रोफेशन। प्रिंट हो या इलेक्ट्रोनिक मीडिया—पूरी पत्रकारिता प्रेस नोट/प्रेस कान्फ्रेंस/साउंड/बाइट तथा किसी के पक्ष या विपक्ष में स्टोरी करने तक सीमित हो कर रह गयी है। किस नीति-घटना का देश-समाज पर क्या प्रभाव पडे.गा—यह मीडिया की चिंता नहीं है। सच तो यह है कि ज्यादातर को इसकी समझ भी नहीं है। ऐसे में आश्चर्य कैसा कि पहले मीडिया के एजेंडा से गांव-किसान-कृषि गायब हुए तो अब गरीब ही नहीं, आम आदमी से जुडे. शिक्षा,स्वास्थ्य और रोजगार के मुद्दे भी उसकी चिंता का विषय नहीं रह गये हैं। स्वयं को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहे जाने पर आत्ममुग्ध मीडिया तेजी से दो अन्य स्तंभों: विधायिका और कार्यपालिका की राह पर ही दौड. रहा है। इन दोनों की साख का हाल किसी से छिपा नहीं है। फिर मीडिया क्यों आत्मघात की राह पर रपटना चाहता है? जिन पर देश-समाज के पथ प्रदर्शन और तंत्र पर निगरानी का दायित्व है, उन्हें कौन रास्ता दिखायेगा? इस आलोचनात्मक दृष्टि का भी आग्रह यही है कि खासकर भारत सरीखे विश्व के सबसे बडे. लोकतंत्र में तो राजनीति और पत्रकारिता को अपने कर्तव्य पथ से इस तरह पलायन की अनुमति नहीं दी जा सकती। स्थितियां और बिगडें., उससे पहले ही राजनीति और पत्रकारिता को स्वयं आत्मचिंतन करना चाहिए।

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