स्वदेश विषेश: बांग्लादेश में हिंदू दमन को लेकर कथित प्रगतिशील और सेक्युलर खेमे में खतरनाक चुप्पी…
सोनाली मिश्र: बांग्लादेश में हिंदुओं के साथ जो हो रहा है, वह किसी से छिपा नहीं है और न ही अब यह छिपी बात रह गई है कि आखिर कथित छात्र आंदोलन किसलिए हुआ था। वह छात्र आंदोलन हुआ ही बांग्लादेश की उस पहचान से मुक्ति पाने के लिए था, जो पहचान उसे कुछ समय के लिए शेख मुजीबुर्रहमान ने दिलाई थी। शेख मुजीबुर्रहमान की भी वह असली पहचान नहीं थी।
शेख मुजीबुर्रहमान की पहचान भी वही पहचान थी, जो जिन्ना की थी। दोनों का ही सपना ढाका में वर्ष 1906 में स्थापित मुस्लिम लीग से जुड़ा था। दोनों ही मुस्लिम पहचान को लेकर अपना नया मुल्क चाहते थे।
मगर 1947 में भारत से अलग होने के बाद पूर्वी पाकिस्तान के साथ भाषाई आधार पर पश्चिमी पाकिस्तान ने जो भेदभाव किया, उससे पूर्वी पाकिस्तान दंग रह गया था और जब उसने अपने अधिकार की बात की तो वहाँ पर तमाम अत्याचार पश्चिमी पाकिस्तान ने किए।
उन अत्याचारों का सामना करने के लिए भारत ने पूर्वी पाकिस्तान की सहायता की और भारत की सहायता से शेख मुजीबुर्रहमान ने बांग्लादेश की स्थापना की। क्योंकि वह मुल्क भाषा के आधार पर बना था। मगर यह भी सच है कि बहुत बड़ा वर्ग ऐसा था जिसे भारत की सहायता से मिली यह पहचान परेशान करती थी।
क्योंकि भारत अर्थात हिंदुओं से अलग होकर ही तो उन्होनें एक मुस्लिम मुल्क बनाया था, तो ऐसे में वे उसी हिंदू भारत की सहायता कैसे ले सकते थे। और कट्टरपंथी तत्व लगातार बांग्लादेश में हावी ही रहे।
शेख हसीना के संबंध भारत के साथ मधुर रहे थे। मगर हिंदुओं के प्रति लगातार बांग्लादेश में हिंसा की घटनाएं होती रही थीं। हालांकि शेख हसीना के शासन में वे तब भी सीमित थीं।
यह भी हैरानी की बात रही कि एक समय में भारत के कथित प्रगतिशील लोगों का प्रिय और आदर्श रहे बांग्लादेश में शेख हसीना के प्रति उनका व्यवहार लगातार बदलता रहा। शेख हसीना उनके लिए भी तानाशाह ही बनती गईं।
मगर शेख हसीना तब तक तानाशाह नहीं थीं, जब तक भारत में कॉंग्रेस की सरकार थी। शेख हसीना के नेतृत्व में भारत की नई सरकार के साथ मधुर संबंधों के कारण उनकी सरकार कब कथित सेक्युलर विमर्श में तानाशाह बनती गई यह पता ही नहीं चला।
ऐसा लगा जैसे कि भारत का विपक्ष शेख हसीना की सरकार को भी अपना दुश्मन मान बैठा था और अभी तक माने बैठा है। शेख हसीना को तानाशाह मानना उनका विकल्प हो सकता है, मगर यह विकल्प नहीं हो सकता कि शेख हसीना के बांग्लादेश छोड़ने पर तो उनकी ओर से यह टिप्पणियाँ आएं कि “तानाशाही का यही नतीजा होता है!” मगर हिंदुओं के साथ हो रहे अत्याचारों पर कोई बात न आए।
यह कितनी हैरानी की बात है कि कुछ ऐसे भी कथित प्रगतिशील लोग सोशल मीडिया पर दिखे जिन्होनें यह तक कहा कि बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार दरअसल मीडिया बढ़ाचढ़ा कर दिखा रही है। मगर स्वामी चिन्मय दास की गिरफ़्तारी यह स्पष्ट करती है कि जो भी कुछ हो रहा है वह मीडिया बढ़ाचढ़ा कर नहीं दिखा रही है, बल्कि बहुत कम दिखा रही है।
मगर चुप्पी है कि टूटती ही नहीं है। शेख मुजीबुर्रहमान भी उन्हें तभी तक प्रिय रहे जब तक उनकी पहचान जिन्ना के साथ जुड़ी रही। जिन्ना के पाकिस्तान से अलग होते ही वे उस वर्ग के दुश्मन हो गए, जो उर्दू भाषा बोलने वालों के शोषण का शिकार हुआ था।
भारत का कथित प्रगतिशील लेखक वर्ग उर्दू को सबसे सभ्य और प्रगतिशील भाषा मानता है। मगर उस उर्दू को नहीं, जिसमें संस्कृत निष्ठ शब्द हों, और जिसकी पहचान भारतीय हो, बल्कि वह उर्दू जिसे परिष्कृत करके अरबी और फारसी शब्दों से भर दिया गया था।
इसलिए भारत के सेक्युलर वर्ग की चुप्पी मुझे हैरान नहीं करती है। उनसे यही अपेक्षित था और यही वे कर रहे हैं। वे अभी तक उसी गुलामी की मानसिकता में जी रहे हैं, जहां पर उर्दू जुबान बोलने वाले ही उनके मसीहा हैं और उर्दू जुबान से बढ़कर मजहबी मानसिकता रखने वाले लोगों को वे अपना मसीहा मानते हैं, क्योंकि उनके लिए इतिहास ही सल्तनत काल से आरंभ होता है और उनकी दृष्टि में मुगल शासन भारत के इतिहास का सबसे उन्नत शासन काल था।
यही मानसिकता उन्हें हिंदुओं की किसी भी उस पीड़ा का अहसास नहीं होने देगी जो कट्टरपंथी लोगों के हाथों हिंदुओं की धार्मिक पहचान के आधार पर मिलती है। फिर चाहे बांग्लादेश के हिन्दू हों, या फिर पाकिस्तान के हिंदू, उनकी पीड़ा से कथित प्रगतिशील वर्ग कभी भी विचलित नहीं होगा।