दिल्ली: गैस चैंबर से जहरीली हवा तक - स्वच्छ पर्यावरण कब बनेगा चुनावी मुद्दा?

गैस चैंबर से जहरीली हवा तक - स्वच्छ पर्यावरण कब बनेगा चुनावी मुद्दा?
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नई दिल्ली और इसके आस-पास के क्षेत्रों में वायु प्रदूषण ने इस कदर गंभीर रूप धारण कर लिया है कि यह अब एक आपातकाल की स्थिति बन गई है। हाल ही में एक्यूआई का स्तर 500 पार कर जाना एक खतरनाक संकेत है |दिल्ली, जो कभी अपनी ऐतिहासिक धरोहरों और विविध संस्कृति के लिए जानी जाती थी, अब हर सर्दी में एक भयावह रूप धारण कर लेती है।

प्रदूषण के कारण यह महानगर अब एक गैस चैंबर में बदल जाता है, जहाँ साँस लेना भी जान जोखिम में डालने के बराबर है। यह स्थिति हर साल दोहराई जाती है, और अब इसे "नया सामान्य" मान लिया गया है। दिल्ली की जहरीली हवा न केवल यहाँ के निवासियों के स्वास्थ्य पर हमला कर रही है, बल्कि भारतीय संविधान में निहित हमारे मौलिक अधिकारों पर भी गंभीर सवाल खड़े कर रही है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 हमें जीवन का अधिकार प्रदान करता है। यह अधिकार केवल साँस लेने तक सीमित नहीं है; इसमें स्वच्छ पर्यावरण में जीने का अधिकार भी शामिल है। सुभाष कुमार बनाम बिहार राज्य (AIR 1991 SC 420) के ऐतिहासिक फैसले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा था कि स्वच्छ और प्रदूषण-मुक्त पर्यावरण का अधिकार जीवन के अधिकार का अभिन्न हिस्सा है।

लेकिन आज जब दिल्ली की हवा और पानी दोनों ही गंभीर रूप से प्रदूषित हैं, तो यह प्रश्न उठता है: क्या यह मौलिक अधिकार केवल कागजों तक सिमट कर रह गया है?

क्या अनुच्छेद 21 का उल्लंघन हो रहा है?

दिल्ली में वायु गुणवत्ता सूचकांक (AQI) हर साल 'गंभीर' श्रेणी में पहुँच जाता है, जो कि स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है। इस संदर्भ में राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन और मानव स्वास्थ्य कार्यक्रम (एनपीसीसीएचएच) ने अपने पुराने दिशा-निर्देशों की याद दिलाते हुए इसे प्रदूषण के आपातकाल के रूप में देखा है।

वर्तमान स्थिति में वायु प्रदूषण का खतरा इंसानों के लिए और अधिक गंभीर हो गया है, जो मस्तिष्क, फेफड़े, हृदय, आंखों, किडनी और त्वचा पर सीधा असर डाल सकता है। इसके कारण मरीजों की संख्या में वृद्धि होने की संभावना है।

एनपीसीसीएचएच ने आम नागरिकों को सलाह दी है कि सुबह और शाम के समय खिड़कियां और दरवाजे बंद रखें। इन्हें खोलने की आवश्यकता हो तो दोपहर 12 से शाम 4 बजे के बीच ऐसा किया जा सकता है। फ्लैट्स में रहने वाले लोगों को मच्छर भगाने वाली क्वाइल और अगरबत्ती का उपयोग तुरंत बंद करने का सुझाव दिया गया है।

इसके साथ ही, एनपीसीसीएचएच ने चेतावनी दी है कि इस समय हवा में पीएम 2.5 का स्तर 700 से अधिक पहुंच चुका है, जो बेहद खतरनाक है। एन-95 मास्क इस स्तर पर प्रभावी नहीं हो सकता, इसलिए एन-99 मास्क का उपयोग करना ज्यादा सुरक्षित रहेगा।

आज देश में यह सवाल उठाना लाजिमी है: क्या भारत में ऐसा कोई स्थान बचा है जहाँ स्वच्छ और प्रदूषण-मुक्त हवा और पानी उपलब्ध हो? हमारी नदियाँ, जो कभी जीवन का प्रतीक थीं, अब जहरीले रसायनों और शहरी कचरे से दूषित हो चुकी हैं। दिल्ली में जो कुछ हो रहा है, वह न केवल राजधानी का मामला है, बल्कि यह पूरे देश के लिए एक चेतावनी है।

वायु प्रदूषण संकट के कारण और चुनावी विफलता

वायु प्रदूषण की यह भयावह स्थिति केवल प्राकृतिक घटनाओं का परिणाम नहीं है, बल्कि मानव-निर्मित गतिविधियों और राजनीतिक उपेक्षा का मिश्रित परिणाम है। दिल्ली और उसके आस-पास की वायु गुणवत्ता हर साल खराब से बदतर होती जा रही है, और इसके पीछे कई गहरे और आपसी जुड़े हुए कारण हैं।

पराली जलाना

हर साल सर्दियों की शुरुआत के साथ, उत्तर-पश्चिम भारत के खेतों में जलती पराली दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों को एक जहरीले गैस चेंबर में बदल देती है। पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में फसल कटाई के बाद बचे हुए अवशेषों को जलाने की प्रक्रिया एक बड़ी समस्या है। हालांकि सरकार ने पराली प्रबंधन के लिए कुछ योजनाएं पेश की हैं, लेकिन इनका प्रभाव सीमित है। पराली जलाने से निकलने वाले धुएं में मौजूद प्रदूषक पदार्थ हवा की गुणवत्ता को गंभीर रूप से प्रभावित करते हैं।

औद्योगिक और वाहनों से उत्सर्जन

दिल्ली जैसे घनी आबादी वाले क्षेत्र में बड़ी संख्या में वाहन और औद्योगिक इकाइयां संचालित होती हैं। वाहनों से निकलने वाला कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड और सूक्ष्म कण वायु प्रदूषण को बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। इसके अलावा, फैक्ट्रियों और थर्मल पावर प्लांट्स से निकलने वाला प्रदूषण वायुमंडल में जहरीले तत्व जोड़ता है।

निर्माण स्थलों से उड़ती धूल

दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र में बड़े पैमाने पर हो रहे निर्माण कार्य प्रदूषण का एक और बड़ा कारण है। निर्माण स्थलों से उड़ने वाली धूल और मलबा वायु गुणवत्ता को और खराब करता है। इसमें खासकर पीएम 2.5 और पीएम 10 जैसे खतरनाक कण मौजूद होते हैं, जो श्वसन और हृदय संबंधी समस्याओं का कारण बनते हैं।

जनसंख्या का घनत्व और अव्यवस्थित शहरीकरण

दिल्ली में तेजी से बढ़ती आबादी और शहरीकरण ने इस संकट को और गहरा बना दिया है। वाहनों की बढ़ती संख्या, ऊर्जा की बढ़ती मांग और कचरे का अव्यवस्थित प्रबंधन वायु प्रदूषण को और अधिक खतरनाक बना रहे हैं।

राजनीतिक उपेक्षा: स्वच्छ हवा और पानी क्यों नहीं बनते चुनावी मुद्दा?

यह अत्यंत विडंबना है कि स्वच्छ हवा, स्वच्छ पानी, और एक स्वस्थ पर्यावरण जैसे मूलभूत और अस्तित्व से जुड़े हुए मुद्दे हमारी चुनावी प्राथमिकताओं का हिस्सा नहीं बन पाते। राजनीतिक दल और चुनाव प्रचार का ध्यान मुफ्त राशन, बिजली, और अन्य सुविधाओं जैसी लोकलुभावन योजनाओं तक सीमित रहता है। लाडली बहना योजना, मुफ्त सिलेंडर, और बिजली सब्सिडी जैसी योजनाएं अक्सर चुनावी वादों का केंद्र बन जाती हैं। परंतु, क्या किसी भी राजनीतिक दल ने कभी स्वच्छ हवा, स्वच्छ पानी, और प्रदूषण-मुक्त पर्यावरण की गारंटी देने का वादा किया है? ध्रुवीकरण और जातिगत राजनीति में उलझा हमारा राजनीतिक तंत्र पर्यावरणीय मुद्दों को पूरी तरह अनदेखा कर देता है।

हमारी प्राथमिकताएं और उनका प्रभाव

हमारे देश में प्राथमिकताओं का यह असंतुलन समाज की जड़ों को कमजोर कर रहा है। यह सवाल उठता है कि क्या मुफ्त राशन और अन्य सुविधाएं स्वच्छ वायु और जल जैसे जीवनदायी संसाधनों का विकल्प बन सकती हैं? एक ओर, राजनीतिक दल लोगों को तात्कालिक राहत देने के लिए लोकलुभावन योजनाएं पेश करते हैं, लेकिन दूसरी ओर, दीर्घकालिक समाधान और स्थायी विकास से जुड़े मुद्दों की पूरी तरह अनदेखी की जाती है।

चुनावों में स्वच्छ पर्यावरण के मुद्दों का गायब होना दिखाता है कि हमारे राजनीतिक नैरेटिव में दूरदर्शिता की कमी है। यह उपेक्षा दीर्घकालिक समस्याओं को जन्म देती है, जैसे दिल्ली की जहरीली हवा, जो हर साल हजारों जिंदगियों पर घातक प्रभाव डालती है।

क्यों नहीं है पर्यावरण हमारी चुनावी चर्चा का हिस्सा?

राजनीतिक दल अक्सर यह मानते हैं कि पर्यावरणीय मुद्दे जनता को प्रभावित करने के लिए पर्याप्त 'लोकप्रिय' नहीं हैं। इसका एक कारण है जनता में जागरूकता और इन मुद्दों के प्रति गंभीरता की कमी। जब तक जनता स्वच्छ हवा और पानी को अपना अधिकार नहीं मानती और इसके लिए राजनीतिक दलों से जवाबदेही की मांग नहीं करती, तब तक ये मुद्दे प्राथमिकता में नहीं आएंगे।

इसके अलावा, राजनीतिक दल अल्पकालिक लाभ पहुंचाने वाले वादों, जैसे कि मुफ्त शिक्षा, स्वास्थ्य बीमा या पेंशन योजनाओं, लाड़ली बहना योजना, जातीय जनगणना, आरक्षण में बढ़ोतरी, साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण आदि मुद्दों पर केंद्रित रहते हैं।

ये सभी मुद्दे वोट हासिल करने के लिए उछाले जाते हैं, लेकिन पर्यावरण संरक्षण और स्वच्छ हवा-पानी जैसे जीवनदायी विषय चुनावी बहसों में स्थान नहीं पाते। हालांकि ये योजनाएं समाज के एक हिस्से के लिए महत्वपूर्ण हो सकती हैं, लेकिन क्या बिना स्वच्छ वायु और जल के यह योजनाएं कारगर हो सकती हैं ? प्रदूषण के कारण बढ़ते स्वास्थ्य संकट और बीमारियों की लागत अंततः इन्हीं योजनाओं को अप्रभावी बना देती है।

दिल्ली का वायु प्रदूषण संकट सिर्फ एक शहर की समस्या नहीं है; यह हमारे विकास मॉडल, राजनीतिक प्राथमिकताओं और सामाजिक चेतना का दर्पण है। जब पर्यावरणीय चिंताएं चुनावी नैरेटिव और सरकारी नीतियों का हिस्सा नहीं बनेंगी, तब तक इस समस्या का स्थायी समाधान संभव नहीं है। स्वच्छ हवा, पानी और पर्यावरण हर भारतीय नागरिक का अधिकार है और इसके संरक्षण के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति, नागरिक जागरूकता और ठोस योजनाओं की आवश्यकता है।

इस समस्या से निपटने के लिए पराली जलाने का मुद्दा सबसे पहले आता है। किसानों को पराली जलाने से रोकने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे। छत्तीसगढ़ के गोधन न्याय योजना जैसे सफल मॉडल से सीख लेते हुए पराली के प्रबंधन और इसे उपयोगी उत्पादों में बदलने के प्रयासों को प्रोत्साहन देना चाहिए। किसानों को पराली प्रबंधन उपकरण, सब्सिडी और प्रोत्साहन योजनाएं उपलब्ध करानी चाहिए।

वाहनों से होने वाले प्रदूषण को रोकने के लिए इलेक्ट्रिक वाहनों (EVs) को बढ़ावा देना होगा। सार्वजनिक परिवहन के बुनियादी ढांचे में सुधार कर लोगों को निजी वाहनों के उपयोग से हतोत्साहित करना जरूरी है। कार-पूलिंग और साइक्लिंग को भी बढ़ावा दिया जाना चाहिए। इसके साथ ही, औद्योगिक क्षेत्रों को स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों जैसे कि सौर, पवन और बायोमास पर निर्भर होने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। कार्बन उत्सर्जन पर कड़े नियम लागू किए जाने चाहिए।

निर्माण स्थलों से उड़ने वाली धूल पर नियंत्रण के लिए तकनीकी उपाय अपनाए जाएं। सड़क सफाई और जल छिड़काव जैसे उपाय नियमित रूप से किए जाएं। वायु गुणवत्ता मानकों का सख्ती से पालन सुनिश्चित करना भी अत्यंत आवश्यक है।

साथ ही, आम लोगों को यह समझाने की जरूरत है कि उनका दैनिक व्यवहार, जैसे बायोमास जलाना, कचरा फेंकना और अनावश्यक वाहन उपयोग, वायु प्रदूषण में कितना योगदान देता है। इसके लिए शैक्षिक कार्यक्रम और स्थानीय सामुदायिक अभियान चलाकर जनता को जिम्मेदार नागरिक बनने के लिए प्रेरित करना होगा।

यह स्पष्ट है कि जब तक पर्यावरणीय मुद्दे राजनीति के केंद्र में नहीं आते, तब तक इन समस्याओं का हल कठिन है। लाड़ली बहना योजना, जातीय जनगणना, आरक्षण बढ़ोतरी और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण जैसे मुद्दों पर ध्यान देने वाले राजनीतिक दलों को अब यह समझना होगा कि स्वच्छ हवा, पानी और पर्यावरण जैसी प्राथमिकताएं केवल वोट बैंक नहीं बल्कि लोगों की जीवनरेखा हैं।

देश के नागरिकों को भी जागरूक होना होगा और पर्यावरणीय मुद्दों को अपनी प्राथमिकताओं में शामिल करना होगा। यह समय है जब हम अपनी जिम्मेदारी समझें और एक हरित और स्वच्छ भारत के निर्माण में अपना योगदान दें।

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