शीर्ष अदालत की टिप्पणी समय की मांग

शीर्ष अदालत की टिप्पणी समय की मांग
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देवेश कुमार माथुर, लेखक, शिक्षक एवं चिंतक

वेबडेस्क। देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विगत दिनों दिये गये दो निर्णयों की समीक्षा करें, तो यह पाते हैं कि भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में खादी और अपराधी का रिश्ता कमजोर होने के बजाय धीरे धीरे मजबूत होता जा रहा है। इनमें से प्रथम मामला सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना से जुड़ा हुआ है,जिसमें देश की शीर्ष अदालत ने तीखी टिप्पणी करते हुए कहा है कि "राजनीतिक व्यवस्था केअ अपराधीकरण का खतरा बढ़ता जा रहा है। इसकी शुद्धता के लिये आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को कानून निर्माता बनने अनुमति नही दीजानी चाहिये। मगर हमारे हाथ बँधे हैं। हम सरकार के आरक्षित क्षेत्र में अतिक्रमण नही कर सकते। हम केवल कानून बनाने वालों की अंतरात्मा से अपील कर सकतें है"।

वर्तमान समय में देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में सर्वोच्च पदों पर आसीन व्यक्तियों के व्यक्तित्व और कृतित्व को देखते हुए जेहन में ये सवाल आना लाजिमी है कि कहीं शीर्ष अदालत की ये चिंता अति रंजित तो नहीं है? इस सवाल के जवाब के लिए हमें एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की लोकसभा चुनाव 2019 के बाद प्रस्तुत की गयी रिपोर्ट का अध्ययन करना होगा। इस रिपोर्ट के अनुसार कुल निर्वाचित 539 लोकसभा सांसदों में से लगभग 43% अर्थात 233 सांसदों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। अगर हम 2009, 2014 एवं 2019 के लोकसभा सांसदों पर दर्ज आपराधिक मामलों का निम्नलिखित तालिका की सहायता से अध्ययन करें, तो माननीय सर्वोच्च न्यायालय के विद्वत न्यायाधीशों की पीड़ा को आसानी से समझ सकेंगें।

वर्ष

विश्लेषित सांसद

सांसदों द्वारा घोषित

आपराधिक मामले

प्रतिशत

सांसदों द्वारा घोषित गंभीर

आपराधिक मामले

प्रतिशत

2009

543

162

30%

76

14%

2014

542

185

34%

112

21%

2019

539

233

43%

159

29%

उपरोक्त तालिका से स्पष्ट है कि 2009 में कुल 543 सांसदों में से लगभग 30% अर्थात 162 सांसदों पर आपराधिक मामले घोषित थे , इनमें से भी लगभग 14% अर्थात 76 सांसदों पर गंभीर आपराधिक मामले घोषित थे । वहीं 2014 के निर्वाचित 542 सांसदों में से लगभग 34% अर्थात 185 सांसदों पर आपराधिक मामले घोषित थे, यहाँ पर भी लगभग 21% सांसदों अर्थात 112 सांसदों पर गंभीर आपराधिक मामले घोषित थे। 2019 के लोकसभा में निर्वाचित सांसदों का आंकड़ा और भी भयावह है। कुल निर्वाचित 539 लोकसभा सांसदों में से लगभग 43% अर्थात 233 पर सांसदों पर आपराधिक मामले घोषित थे, इनमें से भी लगभग 29% सांसदों अर्थात 159 सांसदों पर गंभीर आपराधिक मामले घोषित थे। हम यह कह सकतें हैं कि 2009 से 2019 तक के लोकसभा चुनावों में सांसदों पर घोषित आपराधिक मामले 30% से बढ़कर 43% हो गए हैं। यही स्थिति न्यायपालिका की पेशानी पर बल देने के लिए पर्याप्त प्रतीत होती है। शायद इसी कारण सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना प्रकरण में अदालत द्वारा चुनाव आयोग और राजनैतिक दलों को उम्मीदवार की आपराधिक पृष्ठभूमि को सार्वजनिक रूप से प्रकाशित करने हेतु नए दिशा निर्देश जारी किये गयें है और ८ प्रमुख राजनैतिक दलों पर बिहार विधानसभा चुनाव के परिदृश्य में जुर्माना लगाया गया है।

वहीं यदि दूसरे प्रकरण की बात करें तो सुप्रीम कोर्ट की सीजेआई एनवी रमना की अध्यक्षता वाली पीठ ने राज्य सरकारों को निर्देश जारी करते हुए कहा है कि विधायकों एवं सांसदों पर दर्ज मामले संबंधित उच्च न्यायालय की अनुमति के बाद ही सरकार द्वारा वापिस लिए जा सकेंगें। देश की एक राज्य सरकार द्वारा 2017 से अब तक विभिन्न नेताओं पर दर्ज 800 से अधिक मामले वापिस लिए जाने की खबर है ! शीर्ष अदालत के इन फैसलों से शायद राजनीति में व्याप्त आपराधिक तत्वों पर रोकथाम में मदद मिलेगी।शायद देश के नीति नियंता सर्वोच्च न्यायालय की संविधान संशोधन की अपील पर ध्यान देंगें और और गहरी नींद से जागकर इस कुप्रथा को समाप्त करने के लिए एक बड़ी सर्जरी करेंगें।

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