Indian Cinema: भारतीय संस्कृति और सिनेमा - वही प्रोपेगेंडा फिल्मों का षडयंत्र

भारतीय संस्कृति और सिनेमा - वही प्रोपेगेंडा फिल्मों का षडयंत्र

भारतीय संस्कृति और सिनेमा - वहीं प्रोपेगेंडा फिल्मों का षडयंत्र

माही दुबे, स्वदेश डेस्क। भारत की कला और संस्कृति का इतिहास अत्यंत समृद्ध और वैभवशाली रहा है। भारतीय संस्कृति में कला मनोरंजन का साधन तो थी मगर इसकी रचना मनुष्य के हित के लिए हुई उदाहरण प्राचीन ग्रंथ 'नाट्यशास्त्र' में मिलता है: सतयुग के अंत में, जब त्रेता प्रारंभ हुआ, तब मानव समाज में नैतिकता का पतन होने लगा और लोग धर्म से विमुख होकर असत्य, हिंसा, और अधर्म के मार्ग पर चलने लगे। देवताओं ने इस स्थिति से चिंतित होकर भगवान ब्रह्मा से आग्रह किया कि वे ऐसा कुछ सृजन करें, जिससे समाज में नैतिकता की पुनर्स्थापना हो सके और लोगों को धर्म और सत्य के मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिले। तब ब्रह्माजी ने चारों वेदों से मूल्यों को निकालकर 'भरतमुनि' को 'नाट्यशास्त्र' रचने के लिए प्रेरित किया।

भारत मुनि के नाट्यशास्त्र में क्या है ?

नाट्यशास्त्र में भारतीय नाटक, नृत्य और संगीत की संपूर्ण विधियों और नियमों का वर्णन है और इसे वर्तमान समय में भी ऑथेंटिक माना जाता है। इसमें भरतमुनि ने पहला नाटक 'समुद्रमंथन' पर लिखा, जो देवताओं और असुरों के बीच अमृत की प्राप्ति के लिए किए गए संघर्ष पर आधारित था। अखंड ब्रह्मांड के नायक भगवान विष्णु का 'ड्रैग ऐक्टिंग' से मोहिनी अवतार धारण करना भी इसी से जुड़ा है। रिसर्चर्स के अनुसार, इसे विश्व का पहला 'अभिनय' और 'प्ले' माना गया, और यहीं से वैश्विक थिएटर का इतिहास प्रारंभ हुआ।

इतिहास इस तथ्य की गवाही देता है कि भारत की सांस्कृतिक विरासत और कला की समृद्ध परंपरा को नष्ट करने के लिए यहां के शोध संस्थानों, प्ले थिएटर्स, और नालंदा विश्वविद्यालय जैसे प्रतिष्ठानों को आक्रमणकारियों द्वारा सुनियोजित तरीके से तबाह किया गया। वे जानते थे कि भारत की कला और संस्कृति उसकी असली शक्ति है, और इसे नष्ट करके वे भारतीय सभ्यता को कमजोर कर सकते हैं।

प्रोपेगेंडा फिल्मों का इतिहास :

हमारी संस्कृति के विरुद्ध चल रहे इस षडयंत्र को ध्वस्त करने आज हमें सिनेमा को लेकर जागरूक व सावधान होने की जरूरत है। ऐसा सिमिलर सा कुछ पिछले 60-70 सालों से भारतीय सिनेमा के साथ हो रहा है। इसके लिए हमें "प्रोपेगेंडा फिल्मों का इतिहास" समझना होगा - किसी भी कंस्ट्रक्टिव चीज की रचना के बाद उपद्रवियों द्वारा उससे छेड़छाड़ की जाना स्वाभाविक है।

जहां सिनेमा का प्रारंभ 1895 में हो गया था, सिनेमा अच्छा चल रहा था वही 30 साल बाद वामपंथी उपद्रवियों द्वारा ट्रेडिशनल सिनेमा स्ट्रक्चर से छेड़छाड़ करने के प्रयास शुरू हुए और 'प्रोपेगेंडा फिल्मों का युग' भी सिनेमाई इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय बना, जिसमें सिनेमा को केवल मनोरंजन या कला के माध्यम के रूप में नहीं, बल्कि एक सशक्त उपकरण के रूप में देखा गया, जिसका उपयोग राजनीतिक, सामाजिक, कम्युनिज्म और साम्यवादी विचारधाराओं को प्रसारित करने के लिए किया गया। वैश्विक स्तर पर प्रोपेगेंडा फिल्मों का प्रारंभ 20वीं सदी के आरंभ में हुआ, जब फिल्म को विचारधारा के प्रचार का माध्यम बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई।

सोवियत संघ से हुई शुरुआत :

उल्लेखनीय है सबसे पहले सोवियत संघ में, जब फिल्म निर्माता "सर्गेई आइज़ेंस्टीन" ने 'बैटलशिप पोटेमकिन' (1925) जैसी फिल्में बनाईं। जिसमें कम्युनिज्म के लेबर और केपिटलिस्ट के बीच क्लास स्ट्रगल ' रेडिकल ओपरेशन थ्योरी और लाल क्रांति' को दर्शाया गया। फिल्म की रिलीज के बाद समाज में विद्रोह और असंतोष बढ़ गया, इसे विभिन्न देशों जैसे पश्चिम और अमेरिका में प्रतिबंधित किया गया। इसके बाद विभिन्न देशों में साम्यवादी विचार की प्रसार के लिए प्रोपेगेंडा फिल्में बनती रही।

भारतीय सिनेमा का मुख्य उद्देश्य :

वहीं भारतीय सिनेमा के इतिहास में, प्रारंभिक दौर की फिल्मों का मुख्य उद्देश्य समाज और भारतीय संस्कृति के आदर्शों को दर्शाना था। राजा हरिश्चंद्र (1913) जैसी फिल्में, जो कि भारत की पहली मूक फिल्म थी, या मोहिनी भस्मासुर और कृष्ण जन्म जैसी फिल्मों में धार्मिक और नैतिक मूल्यों का प्रचार किया गया था। लेकिन समय के साथ, भारतीय सिनेमा में एक ऐसा भयानक बदलाव आया जहां हिंदू धर्म, भारतीय परंपराओं, और संस्कृति को एक नकारात्मक रूप में दिखाने का प्रयास किया गया जो आज भी 'एंटी भारत नॉरेटिव' जारी है।

हिंदू प्रतीकों का मजाक उड़ाकर पेश किया गया :

यह बदलाव विशेष रूप से 1970 के बाद से देखा गया जब सिनेमा में हिंदू प्रतीकों और धार्मिक आस्थाओं को या तो विकृत करके या फिर उनका मजाक उड़ाकर पेश किया गया। इन फिल्मों में हिंदुओं को कभी अंधविश्वासी, कभी कट्टरपंथी, तो कभी अत्याचारी के रूप में दर्शाया गया। मगर यही तक वह सीमित नहीं रहे जैसे-जैसे समय बिता (वर्तमान समय मे) हम देखते हैं वामपंथी इकोसिस्टम ने बॉलीवुड, फिल्म फेस्टिवल्स, सेलिब्रिटी, इनफ्लुएंसर, और सोशल मीडिया को अपने राष्ट्रद्रोही विचारधारा के प्रचार के लिए इस्तेमाल किया है इसीलिए इन्हें 'टूल्स एंड इंस्ट्रूमेंट' कहा जाता है।

फिल्म फेस्टिवल्स में चयनित फिल्मों का उद्देश्य :

मैनली कम्युनिस्ट स्पोंसर्ड फिल्म फेस्टिवल्स में चयनित फिल्मों का उद्देश्य केवल सिनेमा की कला का सम्मान करना नहीं होता, बल्कि साम्यवादी विचारधारा को समर्थन देने वाले कथानकों को प्रमोट करना होता है। ऐसे फेस्टिवल्स में अक्सर वही फिल्में पुरस्कार प्राप्त करती हैं जो उनके विचारों को आगे बढ़ाती हैं। उदाहरणस्वरूप, जो फिल्में LGBTQ+ अधिकारों, जेंडर इक्वलिटी, फ्रीडम, मल्टी कल्चरिज़्म, प्राइड मंथ, धर्मनिरपेक्षता, समाज में स्थापित ढांचे को चुनौती देने से लेकर परिवारों के टूटने जैसे मुद्दों पर केंद्रित होती हैं, उन्हें प्रमुखता दी जाती है।

एक्सटर्नल मैरिटल अफेयर्स को मनोरंजन के साथ दिखाया जाता है :

आज भी सिनेमा में भी डार्लिंग, जाने जान, हसीन दिलरूबा, बेड न्यूज़, दो और दो प्यार जैसी फ़िल्में रिलीज होती है जहां एक्सटर्नल मैरिटल अफेयर्स को हल्के-फुल्के मनोरंजन के साथ दिखाया जाता है - फिल्मों को ऑथेंटिक बताने के लिए या स्वीकार्यता दिखाने के लिए फर्जी रिव्यू, लेख, वीडियो बनाए जाते हैं, प्रमोशनल एक्टिविटीज के थ्रू आम जन को जाल में फसाया जाता है।

एक तरफ तो पेरेलल और यथार्थवादी सिनेमा के नाम पर फूहड़ता का प्रचार किया जाता है, वहीं दुसरी ओर समय-समय पर वामपंथी लेखक राष्ट्रवादी फिल्मों के प्रति जहर उगलते हैं और उनके विचार की फिल्मों का महिमा मंडन करते हुए लेख लिखते हैं.. जबकि भारत के 'सत्यजीत रे' जैसी फिल्मकारो में विश्व को 'पैरेलल सिनेमा' दिया यह वह पैरेलल सिनेमा नहीं है एक पूरा का पूरा इकोसिस्टम पैरेलल फिल्मों की डेफिनेशन बदलने के लिए काम करता है जिसमें लेखक, कॉर्पोरेट ओनर, ग्लोबल फिल्म स्कॉलर्स, फेस्टिवल्स, सेलिब्रिटीज, मीडिया पेज, इन्फ्लूएसर्स, सेलिब्रिटी शामिल रहते हैं!

एंटी भारत फिल्म फेस्टिवल वालों का बहिष्कार करना चाहिए :

यदि मेकिंग के तौर पर देखा जाए तो इस वर्ष राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाली फिल्में आट्टम, कंतारा, गुलमोहर, कधीकन भी पेरेलल फिल्में ही है मगर इसकी बात नहीं करेंगे वहीं ये समय-समय पर कश्मीर फाइल्स, अजमेर 1992 जैसी सत्य घटनाओं पर आधारित फिल्मों को प्रपोगेंडा बताते हैं। जबकि हम जानते हैं फिल्मों में असल प्रोपेगेंडा क्या है जो 1925 के बाद से शुरू हुआ हमें एंटी भारत फिल्म फेस्टिवल वालों का बहिष्कार करना चाहिए.. बड़े ही प्लांड तरीके से वामपंथी अपने 'टूल्स एंड इंस्ट्रूमेंट' का उपयोग करके एक विमर्श खड़ा करते हैं, अभी समय समय पर एलजीबीटी, प्लस प्राईड मंथ, जैसे विषयों को चिल्लाएंगे हमें उसका हिस्सा नहीं बनना है अपितु अपने विचार पर ध्यान देना होगा क्योंकि हम जानते हैं भारत का विचार ओर भारतीयता ही सर्वश्रेष्ठ है, जिसमें सभी को ओर नैतिकताओं को जगह दी गई है आज आवश्यकता है हम एन्टीभारत वाली प्रोपेगेंडा फिल्मों के षड्यंत को समझें ओर भारतीय विचार की फिल्मों के दर्शक बनें।

By : माही दुबे, फ़िल्म निर्माता व निर्देशक, गुना (म.प्र.)

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