लोकतान्त्रिक आदर्शों के जीवंत उदाहरण थे अटल: भारतीय राजनीति में अटल विचारों की जरूरत…
जी. किशन रेड्डी: भारत रत्न व माननीय पूर्व प्रधानमंत्री श्रद्धेय श्री अटल बिहारी वाजपाई जी की जन्म जयंती को आज 100 (शताब्दी) वर्ष पूरा हो रहा है। भाजपा सहित अटल जी को चाहने वालों के लिए ये वर्ष एक गौरवशाली और उनकी अतीत की स्मृतियों से प्रेरणा लेने का ऐतिहासिक वर्ष होगा।
उनकी जन्म शताब्दी देशवासियों और राजनैतिक पार्टियों के नेताओं को जीवन में उच्च मानदंड और उच्च कसौटी गढ़ने की नई प्रेरणा देगी।
उनकी जन्मजयंती पर जब मैं श्रद्धेय श्री अटल जी का स्मरण कर रहा हूं तो मुझे आज के राजनीतिक परिपेक्ष्य में उनका 31 मई 1996 को संसद में विश्वास मत के दौरान दिया गया भाषण याद आता है। जिसमें उन्होंने कहा कि "देश आज संकटों से घिरा हुआ है, ये संकट हमने पैदा नहीं किए हैं, जब भी कभी आवश्यकता पड़ी, संकटों के निराकरण में हमने उस समय की सरकार की मदद की है, सत्ता का खेल तो चलेगा, सरकारें आएंगी-जाएंगी, पार्टियां बनेंगी बिगड़ेंगी, मगर ये देश रहना चाहिए, इस देश का लोकतंत्र अमर रहना चाहिए”।
उनकी ये पंक्तियां भारतीय राजनीति से सदैव लोकतंत्र की रक्षा हेतु अपेक्षा करती रहेंगी। आज जब देश “आजादी का अमृत महोत्सव” मना कर विकसित भारत 2047 के विशाल लक्ष्य के साथ “अमृत काल” की यात्रा पर नई ऊर्जा, नई शक्ति, नए जोश, नए उत्साह, नए विचार और नए लक्ष्यों के साथ तेज गति से आगे बढ़ रहा है। तब लोकतंत्र के मंदिर में प्रतिपक्ष से अच्छे व्यवहार और देश के विकास में सहयोग की अपेक्षा तो की ही जा सकती है। क्योंकि विकसित भारत और आत्मनिर्भर भारत की इस यात्रा में हमारे व्यक्तिगत और पार्टी के हितों से बड़ा देश का हित होना चाहिए।
संसदीय व्यवस्था में सत्ता-पक्ष व विपक्ष के बीच सतत संवाद-सहमति, सहयोग-सहकार, स्वीकार-सम्मान का भाव प्रबल होना चाहिए। विपक्ष का काम सरकार की गलत नीतियों का विरोध करना है, गलत निर्णयों में बदलाव करवाना है। मगर साथ ही विपक्ष सरकार की ऐसी नीतियों का समर्थन भी करे, जिससे गरीब, मजदूर, पिछड़े, महिला, किसान और युवाओं का उत्थान होता हो।
भारतीय राजनीति में 6 दशक से अधिक कांग्रेस पार्टी को सत्ता में रहने का अवसर मिला, वहीं दूसरी ओर जन संघ और भाजपा को लंबे समय तक विपक्ष में रहना पड़ा। जन संघ और भाजपा जब विपक्ष में थी, तब अटल जी ने अनेक बार सरकार के कामों की सराहना की और तत्कालीन सरकारों का समर्थन किया। 1971 का युद्ध हो या 1991 का आर्थिक संकट हो अथवा देश हित का मुद्दा हो, अटल जी के नेतृत्व में जन संघ और भाजपा ने तत्कालीन सरकारों का समर्थन किया।
इतना ही नहीं भाजपा ने ‘शिक्षा का अधिकार 2009’, ‘सूचना का अधिकार 2005’, ‘भूमि अधिग्रहण में उचित मुआवजे और पारदर्शिता का अधिकार 2012’, महिला सुरक्षा के लिए कानून 2013’, ‘स्ट्रीट वेंडर्स बिल 2012’, ‘खाद्य सुरक्षा’, ‘भारतीय कंपनी अधिनियम 2013’ और ‘परमाणु क्षति के लिए नागरिक दायित्व 2010’ जैसे अनेक विधेयकों पर सरकार के निर्णयों का खुले दिल से स्वागत किया। मगर अटल जी का कार्यकाल हो या बीते 10 वर्षों से मोदी जी का कार्यकाल हो, विपक्ष ने देश हित के मुद्दों पर भी सरकार का कभी समर्थन नहीं किया। बल्कि सर्जिकल स्ट्राइक जैसे राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर प्रमाण मांगकर सेना का मनोबल कम करने का भद्दा प्रयास विपक्ष ने किया।
इसलिए लोकतान्त्रिक मर्यादों के लिए अटल जी का 40 वर्षों का संसदीय जीवन अनुकरणीय है। अटल जी के विचार, संस्कार और व्यवहार में उनके पिता कृष्णबिहारी वाजपेयी (अध्यापक) एवं माता कृष्णादेवी जी के संस्कारों की सुगंध जीवन भर आती रही, तथा डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और पं. दीनदयाल उपाध्याय जी के मार्गदर्शन में संघ की व्यक्ति निर्माण की भट्टी में तपकर अटल जी राष्ट्र प्रथम की भावना से और अंत्योदय के उद्देश्य से राजनीति के मैदान में आए।
सन 1957 में जब वो पहली बार बलरामपुर लोकसभा से सांसद निर्वाचित होकर लोकसभा में पहुंचे, तब उन्होंने अपने एक भाषण में कहा था- “सभापति महोदय, मैं विरोधी दल में खड़ा हूँ, लेकिन विरोध के लिए विरोध मेरा उद्देश्य नहीं हो सकता। इस सदन में भारतीय जनसंघ के सदस्यों की संख्या यद्यपि कम है, किन्तु हमारे सामने स्वर्गीय डॉ. श्यामप्रसाद मुखर्जी का आदर्श है और हम इस बात का प्रयत्न करेंगे कि उस से अनुप्राणित हो कर राष्ट्र निर्माण के महान यज्ञ में अपना भी योगदान दें”। इस महान लोकतांत्रिक भावना का पालन अटल जी ने जीवन भर किया।
मगर पिछले 10 वर्षों में विपक्ष के हंगामे, हरकतों और हुड़दंग को सारे देश ने देखा है। इससे जहां एक तरफ लोकतंत्र की मर्यादाएं शर्मसार हुई हैं, वहीं दूसरी तरफ संसद में हिंसा से महात्मा गांधी जी के “अहिंसा परमो धर्मः” जैसे महान दर्शन को भी ठेस पहुंची है। पिछले दिनों जिस प्रकार से संसद के बाहर विपक्ष के द्वारा धक्का-मुक्की हुई और 2 बीजेपी सांसद चोटिल हुए। यह भी भारतीय राजनीति के इतिहास में एक निंदनीय घटना है।
श्रद्धेय अटल जी ने स्वतंत्रता की रजत जयंती के अवसर पर अपने वक्तव्य में कहा था कि “कितने ही प्रश्न हैं जो अनुत्तरित पड़े हैं। कितनी ही चुनौतियाँ हैं जो हमारा सामना कर रही हैं। राजनीतिक मतभेदों के बावजूद कुछ मामलों में सबको मिलकर चलने की जो हमारी पुरानी पद्धति है, वही लोकतंत्र का आधार है। लोकतंत्र को हमने आयात नहीं किया है, पंच परमेश्वर की पुरानी कल्पना है। शास्त्रार्थ के आधार पर फैसले होते थे। यह इस देश की विरासत है। लेकिन हमने राष्ट्रीय पंचायत को मछली मार्किट बना दिया है। यह स्तिथि बदलनी चाहिए”।
आज विपक्ष के करण जो परिस्थितियां दिखाई देती हैं, इससे निश्चित ही लोकतंत्र तो कमजोर होगा ही साथ ही नेताओं के लिए जो जन भावनाएं निर्माण हो रही हैं, वो भी भविष्य के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं। अब जब पूरी दुनिया भारत की ओर आशा भरी निगाहों से देख रही है, तब हमारे माननीय सांसदों के द्वारा देश की सर्वोच्च पंचायत संसद और लोकतंत्र को भी दुनिया के लिए प्रेरणा का केंद्र बनाना चाहिए। श्रद्धेय अटल जी की जन्म जयंती पर उनकी ये पंक्तियाँ हमें प्रेरित करेंगी।
सम्मुख फैला अमर ध्येय पथ,
प्रगति चिरन्तन कैसा इति अथ,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
कदम मिलकर चलना होगा ।।