Maharaj Controversy : आमिर के बेटे जुनैद खान की फिल्म 'महाराज' से बिगड़ेगी कानून व्यवस्था!
Maharaj Controversy
Maharaj Controversy : जिस बात को नैतिकता के आधार पर सही साबित नहीं कर सकते क्या वही बात धर्मशास्त्र के आधार पर सही ठहराई जा सकती ? यह सवाल सदियों पुराना है। 1862 में तो ये सवाल कोर्ट तक पहुंच गया था। आज 162 साल बाद दोबारा यह सवाल हमारे सामने है। आमिर खान (Aamir Khan) के बेटे जुनैद खान (Junaid Khan) ने एक फिल्म बनाई है जिसका नाम है 'महाराज'। इस फिल्म को बैन करने के लिए याचिका लगाई जा रही है सोशल मीडिया पर कैंपेन चलाया जा रहा है।
जुनैद खान की डेब्यू फिल्म महाराज (Maharaj) एक सच्ची घटना पर आधारित है। इस फिल्म का टीजर तक सामने नहीं आया है लोगों ने फिल्म के पोस्टर को देखकर ही विरोध शुरू कर दिया है। लोगों का कहना है कि, इस फिल्म से कानून व्यवस्था बिगड़ सकती है, हिन्दुओं की धार्मिक भावना को ठेंस पहुंच सकती है। पढ़िए 1862 के महाराज डिफेमेशन केस (Maharaj Defamation Case 1862) की कहानी और खुद तय करिए कि, क्या यह फिल्म वास्तव में कानून व्यवस्था को बिगाड़ सकती है या किसी व्यक्ति की धार्मिक भावना को ठेस पहुंचा सकती है...।
अंग्रेजों से आजादी के बाद और आजादी के पहले भारत के इतिहास में ऐसे कई केस हुए जिन्होंने भारत की दिशा और दशा ही बदल दी। आजादी से पहले कई ऐसी परंपरा प्रचलित थी जिन्हें धर्म शास्त्रों की आड़ लेकर सही ठहराया जाता था। कई समाज सुधारक जो महिलाओं के हक के लिए काम करते थे उन्हें सबसे पहला विरोध तो अपने घर की महिलाओं से ही झेलना पड़ता था। जब वे इससे आगे बड़ जाते तो समाज में धर्म के रक्षक कहलाने वाले लोग उनका विरोध करते लेकिन बावजूद इसके भारत में समाज सुधारक पीछे नहीं हटे और महिलाओं के हक के लिए लड़ते रहे।
ऐसी ही एक कहानी है करसनदास मुलजी (Karsandas Mulji) की। करसनदास जैसे समाज सुधारकों का नाम कम ही लोगों ने सुना होगा लेकिन वर्तमान परिदृश्य में इनके बारे में जानना जरूरी हो गया है। ये वहीं व्यक्ति हैं जिन्होंने 1862 का महाराज मानहानि मामला जीता था और रूढ़िवादी लोगों को आइना दिखाया था।
कौन थे करसनदास मुलजी :
करसनदास मुलजी का जन्म 25 जुलाई 1832 को हुआ था। वे पेशे से एक पत्रकार थे। उस समय के अधिकतर पत्रकार समाज सुधार के उद्देश्य से कलम उठाया करते थे। करसनदास भी उन्ही में से एक थे। स्वतंत्र विचारों वाले करसनदास के क्रांतिकारी विचार उनके समय से कई आधुनिक थे। यही वजह है कि, उनके बारे आज तक चर्चा की जा रही है।
करसनदास गुजराती भाषा में लिखा करते थे। वे एलफिंस्टन कॉलेज की गुजराती ज्ञानप्रसारक मंडली के सदस्य थे। इस मंडली की स्थापना छात्रों द्वारा की गई थी। मंडली में उनके जैसे विचारों वाले लोग थे। उन्होंने 1851 में पत्रकारिता की शुरुआत की तो उनकी उम्र उस समय 19 - 20 वर्ष थी। उनकी लिखावट जबरदस्त थी। उन्होंने उसी साल राफ्ट गोफ्तार (Raft Goftar) समाचार पत्र के लिए लिखना शुरू कर दिया। ये एंग्लो - गुजराती समाचार पत्र दादा भाई नौरोजी (Dadabhai Naoroji) द्वारा शुरू किया गया था।
स्वतंत्र विचारों की सजा :
एलफिंस्टन कॉलेज में करसनदास कई ऐसे लोगों के सम्पर्क में थे जिन्होंने उनके विचारों को प्रभावित किया। इनमें गुजरती समाज सुधारक कवी नर्मद और शिक्षाविद महीपतराम नीलकंठ शामिल थे। अब तक उनके जीवन में सब कुछ ठीक ही चल रहा था कि, उन्होंने अपने विचारों को लोगों के सामने लाना शुरू कर दिया। यहां से उनके जीवन में संघर्ष का दौर शुरू हुआ।
अब पहली चुनौती तो मिलती ही घर से है। करसनदास ने एक निबंध लिखा - विषय था विधवा पुनर्विवाह। घर के बेटे को विधवा पुनर्विवाह का समर्थन करते देख घर में सबसे पहली आवाज उनकी चाची ने उठाई। मां की मौत के बाद उन्ही ने करसनदास का पालन पोषण किया था। जैसे ही उन्हें पता चला कि, करसनदास विधवा पुनर्विवाह के बारे में क्या सोचते हैं उन्होंने तुरंत करसनदास को घर से निकाल दिया।
पहली लड़ाई महिलाओं से :
इसके लिए करसनदास की बूढ़ी चाची को दोष भी नहीं दिया जा सकता क्योंकि उस समय समाज सुधारकों को महिलाओं के हक़ के लिए पहली लड़ाई महिलाओं से ही लड़नी पड़ती थी। चाची ने समाज द्वारा बहिष्कार कर दिए जाने के डर से उन्हें घर से निकल दिया। उस समय वे शादी शुदा थे। करसनदास भी अपना बोरिया - बिस्तर समेट कर अपनी पत्नी के साथ समाज सुधार की राह पर निकल पड़े। समाज में स्वतंत्र विचार रखने और महिलाओं के हक़ में बात करने की ये पहली सजा थी।
अब घर से निकाल दिए जाने के बाद उनके कन्धों पर जिम्मेदारी और बढ़ गई। घर चलाने के लिए वे एक स्कॉलरशिप पर निर्भर थे जो उन्हें सेठ गोकुलदास तेजपाल द्वारा स्थापित एक स्कूल में नौकरी करने और परीक्षा पास करने के बाद मिली थी। इस दौरान वे राफ्ट गोफ्तार के लिए भी लिखते रहे लेकिन जल्द ही उन्हें महसूस हुआ कि, इससे घर नहीं चलेगा। इसके बाद उन्होंने खुद की एक पत्रिका शुरू कर दी।
साल 1855 में कुछ धनि और समाज सुधार के प्रति जागरूक लोगों के समर्थन से उन्होंने एक पत्रिका शुरू की जिसका नाम था 'सत्य प्रकाश' (Satya Prakash) जल्द ही ये पत्रिका समाज में शोषितों की आवाज बन गई। पत्रिका के लेख चर्चा का विषय बन गए। लोगों के बीच 'सत्य प्रकाश' ने अलग ही पहचान बना ली। अब यहीं से शुरू होगी करसनदास की असली कहानी।
सत्यप्रकाश के लेख समाज में रूढ़िवादियों को आइना दिखाने का काम करने लगे। जल्द ही इस कहानी ने नया मोड़ लिया। सत्यप्रकाश में कई लिखों के माध्यम से वैष्णव पुजारियों द्वारा महिलाओं के यौन उत्पीड़न का मुद्दा उठाया गया। उनका एक लेख काफी चर्चा का विषय बना हुआ था जिसमें उन्होंने वैष्णव मत के महाराज की काफी आलोचना की थी।
दरअसल, 1858 को दयाल मोतीराम द्वारा बंबई उच्च न्यायालय में एक केस लगाया गया था। इस केस के चलते वैष्णव पुजारी जीवनलालजी महाराज को अदालत में बुलाया गया था लेकिन उन्होंने कोर्ट में आने से मना कर दिया। इतना ही नहीं कोर्ट में पेश न होना पड़े इसके लिए उन्होंने लंदन तक अर्जी लगा दी। अब भी कसर बाकी थी तो उन्होंने वैष्णव अनुयायियों की सभा बुलाई। इस सभा में तीन बातों पर सभी को सहमत कर लिया। पहली बात कि, कोई उनके खिलाफ नहीं लिखेगा। दूसरा - कोई भी वैष्णव उन्हें अदालत में नहीं बुला सकता यानि केस नहीं कर सकता। तीसरी और आखिरी बात कि, अगर उनके खिलाफ मुकदमा होता है तो इस केस का खर्च वैष्णव सम्प्रदाय के अनुयायी वहन करेंगे।
करसनदास ने जीवनलालजी महाराज की तीनों ही शर्तों को आलोचना की। सत्यप्रकाश में लेख के माध्यम से इन शर्तों को जबरदस्ती और गुलामी का समझौता बताया। बता दें कि, करसनदास खुद वैष्णव सम्प्रदाय को मानते थे। उन्होंने जब लेख के माध्यम से इस मुद्दे को उठाया तो जीवनलाल महाराज का समर्थन करने वाले लोगों ने भी उनका समर्थन करना बंद कर दिया। उनके अनुयायी कम होने लगे तो वे बंबई छोड़ कर ही चले गए।
कहानी में नए किरदार की एंट्री :
अब इस कहानी में एक नए किरदार की एंट्री हुई। जिनका नाम था जदुनाथ महाराज। पाखंडी पुजारियों का विरोध जब बढ़ने लगा तो जदुनाथ महाराज ने वैष्णव सम्प्रदाय की बागडोर अपने हाथ में ली। पहले तो उन्होंने सुधारवादी लोगों का समर्थन किया। यहाँ तक की महिला शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए आयोजित एक सम्मान सम्मेलन की अध्यक्षता भी की लेकिन सच कहां ज्यादा समय तक छिपता। कहानी तब पलटी जब जदुनाथ महाराज को ,नर्मद ने एक पब्लिक डिबेट के लिए बुलाया। विषय था - क्या शास्त्र विधवा पुनर्विवाह की अनुमति देते हैं? लेकिन डिबेट को शास्त्रों की दिव्य उत्पत्ति की ओर मोड़ दिया गया।
हिंदुओं का आदिम धर्म और वर्तमान विधर्मी मत :
इसके बाद नर्मद और करसनदास पुजारियों के खिलाफ आवाज उठाने लगे। यहां स्पष्ट करना जरुरी है कि, उस समय समाज सुधारक धर्म का विरोध नहीं कर रहे थे बल्कि वे उन मूल्यों की रक्षा करना चाहते थे जो भारतीय समाज वर्षों से मानता आ रहा था। अब करसनदास की कलम अपना काम बखूबी कर रही थी। उन्होंने सत्य प्रकाश में एक लेख लिखा जिसका शीर्षक था - 'हिंदुओनो असल धर्म एने हलना पाखंडी मातो' इसका अर्थ है - हिंदुओं का आदिम धर्म और वर्तमान विधर्मी मत। लगभग - लगभग कुछ यही मतलब था।
बहस का गरम मुद्दा :
अब इस लेख ने सत्य पर इतना प्रकाश डाल दिया कि, करसनदास को सीधे कोर्ट बुला लिया गया। 21 सितंबर 1961 को छपे इस लेख में पुजारियों द्वारा महिलाओं के यौन उत्पीड़न के विषय पर जो लिखा गया कई लोग उसे पढ़ के प्रभावित हो गए। अब महाराज इस लेख की प्रतिक्रिया कैसे देते। उन्होंने कोर्ट का रास्ता अपनाया। महाराजजी ने कोर्ट में मानहानि का वो मुकदमा लगाया जिसकी चर्चा आज तक हो रही है और ये बहस का गरम मुद्दा बना हुआ है।
यह उस समय का सबसे बड़ा मुकदमा था। करसनदास और अख़बार के प्रकाशक नानाभाई रानीना के खिलाफ महाराजजी ने 50 हजार रुपए का मानहानि का मुकदमा ठोका। अभी ये राशि उतनी बड़ी नहीं लग रही लेकिन उस समय यह बहुत अधिक थी।
कोर्ट के बाहर षड्यंत्र :
कहीं सच बाहर ना जाए और बाजी उलटी न पड़ जाये इसके लिए कोर्ट के बाहर षड्यंत्र रचा गया। महाराजजी ने अपने शिष्यों को गवाही न देने के लिए डराया। कहा कि, अगर किसी ने कोर्ट में गवाही दी तो उसे समाज से बहिष्कृत कर दिया जाएगा। ये शिष्य भाटिया थे, करसनदास को भाटिया शिष्यों और महाराजजी के बीच हुई इस सीक्रेट डील के बारे में पता लग गया। ये मानहानि से अलग एक मामला था जिसे कोर्ट में दायर किया गया था। अदालत ने भाटिया षड्यंत्र मान के इस केस में भाटिया नेताओं पर जुर्माना लगाया और करसनदास को कम्पनसेशन भी दिया। अब ये तो हुआ एक केस लेकिन इसी से जुड़े दूसरे ऐतिहासिक केस की सुनवाई अभी बाकि थी।
महाराज मानहानि केस 1862 :
बॉम्बे हाई कोर्ट में इस मामले की सुनवाई 25 जनवरी 1862 को शुरू हुई। इस केस को जानने के लिए अदालत में लोगों की भीड़ इकठ्ठा हो गई थी। इस अदालत में इतिहास रचा जाना था। जदुनाथ महाराज अदालत में पेश हुए। कोर्ट ने सभी वाद - विवाद को सुना और फैसला 22 अप्रैल 1862 को सुनाया। जज अर्नोल्ड ने कहा - कोर्ट के सामने सवाल धर्मशास्त्र का नहीं बल्कि नैतिकता का है। तर्क यही है कि, जो नैतिक रूप से गलत है वह धर्मशास्त्रीय रूप से सही नहीं हो सकता।
इस तरह करसनदास ये मुकदमा जीत गए। समाज में गलत के प्रति आवाज उठाए जाने के लिए करसनदास की सराहना की गई। अदालत ने करसनदास को 11,500 रुपये का मुआवजा भी दिया। अब 162 साल बाद इस केस की चर्चा फिर से है। सच्चाई जानने के बाद खुद तय करें कि, क्या एक सच्ची घटना पर आधारित फिल्म सच में कानून व्यवस्था को खतरा हो सकती है?