20 साल में प्रदेश में खत्म हो गया क्षेत्रीय दलों का जनाधार, सिर्फ चुनाव मैदान में सिंबल बांटने तक सीमित हैं पार्टियां

20 साल में प्रदेश में खत्म हो गया क्षेत्रीय दलों का जनाधार, सिर्फ चुनाव मैदान में सिंबल बांटने तक सीमित हैं पार्टियां
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2003 तक रहा क्षेत्रीय दलों का प्रभाव

भोपाल। देश एवं प्रदेश की चुनावी राजनीति में राष्ट्रीय के अलावा क्षेत्रीय दलों का भी अच्छा खासा प्रभाव रहा है, लेकिन प्रदेश में पिछले 20 साल के भीतर क्षेत्रीय दलों का जनाधार तेजी से घटा है। यही वजह कि सीटों की संख्या के हिसाब से मप्र में क्षेत्रीय दलों का जनाधार पूरी तरह से खत्म हो गया है। यह बात अलग है कि ये दल हर चुनाव में अपने प्रत्याशी उतारते हैं, लेकिन जनता उन्हें नकारने लगी है। 2008 के बाद मप्र विधानसभा चुनाव में कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा के अलावा अन्य कोई दल एक सीट भी जीत नहीं पाया है।

मप्र में क्षेत्रीय दलों जनाधार खत्म होने की पीछे की प्रमुख वजह मप्र की चुनावी राजनीति दो प्रमुख दल कांग्रेस एवं भाजपा तक सिमटकर रह गई है। 2013 एवं 2018 के चुनाव में बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी भी मप्र में अपनी सियासी जमीन बचाने के लिए जद्दोजहज कर रही हैं। आज की स्थिति में मप्र विधानसभा में समाजवादी पार्टी के पास सिर्फ 1 सीट बची है। इसी तरह बहुजन समाज पार्टी के पास 2 विधायक हैं। मप्र में छोटे दलों को सियासी गलियारों में चर्चा रहती है कि बसपा और सपा से विधायक बनने वाले ज्यादातर नेताओं ने अपना दल बदला है और वे अपनी पार्टी से दूसरी बार टिकट पाने में भी सफल नहीं हो पाते हैं। यही वजह हो सकती है कि छतरपुर जिले की बिजावर सीट से सपा के इकलौते विधायक राजेश शुक्ला भाजपा के पाले में पहले ही आ चुके हैं। इसी तरह बसपा के दो विधायक भिंड से संजीव सिंह और दमोह जिले की पथरिया से रामबाई भी भाजपा के नजदीक हैं। हालांकि संजीव सिंह के भाजपा में जाने की पूरी संभावना है। उल्लेखनीय है कि प्रदेश में 2003 से भाजपा की सरकार है।

2003 तक रहा क्षेत्रीय दलों का प्रभाव

मप्र में 2003 तक विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीय दलों का भी दबदबा था। 2003 में समाजवादी पार्टी (सपा)7, बसपा के 2 , गोंडवाना गणतंत्र पार्टी (जीजीपी) के 3, राष्ट्रीय समानता दल (आरएसडी)के 2, कम्युनिष्ट पार्टी ऑफ (सीपीयूआई एम)इंडिया, जनता दल यूनाईटेड (जेडीयू) और नेशनलिष्ट कांग्रेस पार्टी (एनसीपी)के 1-1 विधायक चुनकर आए थे। जबकि 2008 के चुनाव में सपा और बसपा को छोड़कर अन्य शेष सभी क्षेत्रीय एवं राष्ट्रीय पार्टियां का जनाधार खत्म हो चुका था। 2008 में बसपा को 7, सपा को 1 सीट मिली थी। उमा भारती की जनशक्ति पार्टी भी 5 सीट जीती थी। जबकि 2013 के चुनाव में तीसरी पार्टी के रूप में सिर्फ बसपा ही 3 सीट जीत पाई थी। इसी तरह 2018 के चुनाव में बसपा 2 और सपा 1 सीट जीतकर पहुंची थी। मौजूदा स्थिति में सपा और बसपा का जनाधान सिर्फ यूपी सीमा से सटे जिलों में ही बचा है। दोनों पार्टियों का मप्र में जनाधार कम हो गया है।

जनाधार घटने की प्रमुख वजह

ऐसा नहीं है कि क्षेत्रीय दलों का जनाधार मप्र में ही घटा हो। अन्य राज्यों मेंं भी ये दल अपनी राजनीतिक विरासत बचाने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। मप्र से सटे उप्र में बसपा और सपा का लंबे समय तक राज कायम रहा है, लेकिन आज दोनों दलों की स्थित किसी से छिपी नहीं है। क्षेत्रीय दलों का प्रभाव घटने की कई वजह हैं। जिनमें से प्रमुख यह है कि भाजपा ने इन दलों के खिलाफ एक व्यक्ति या एक परिवार की पार्टी बताकर सियासी हमला बोला। इन दलों को स्थापित करने वाले नेताओं ने दूसरी पीड़ी केा खड़ा नहीं किया। अंतिम समय तक पार्टी की कमान खुद के हाथ में रखे रहे। पार्टी में फूट भी बड़ा कारण है। साथ ही बढ़ते चुनाव खर्च के अलावा अन्य भी कारण हैं।

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