भारत के 10 प्रमुख मीडिया समूहों ने कैसे दबाया "कांग्रेस - केजीबी" के रिश्ते और "शास्त्री" की मौत का सच, पढ़े ये स्टोरी
वेबडेस्क। 15 अगस्त 1947 को भारत को आजादी मिलने से पहले तक देश में विदेशियों का राज था।देश की आजादी ये वो ख़ूबसूरत दिन था। जिसे देखने के लिए जाने कितने क्रन्तिकारी और देशभक्तों ने अपने प्राण और पीढ़ियां कुर्बान की थी। लेकिन अफ़सोस आजदी मिलने के बाद जिन हाथों को देश की कमान मिली, उनका नियंत्रण विदेशियों के हाथ में था अर्थात हमारे द्वारा चुने हुए शासक विदेशी ताकतों की कठपुतली थे। उन्होंने देशहित के नाम पर जो नीतियां बनाई वो उनके स्वहित या विदेशी आकाओं को लाभ पहुंचाने के लिए बनी थी। सोवियत संघ की गुप्तचर संस्था केजीबी के हजारों गोपनीय दस्तावेजों को सार्वजनिक होने के बाद सामने आई है।
वासिली मित्रोखिन केजीबी के अभिलेखागार में वरिष्ठ संग्राहक थे। 1972 से 1984 के बीच वह रोजाना केजीबी के गोपनीय दस्तावेजों को चोरी-छिपे बाहर लाते रहे। सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने ब्रिटेन की खुफिया एजेंसी एसआइएस से डील कर दस्तावेजों के बदले में लंदन में शरण ले ली। उन्हीं की पुस्तक 'मित्रोखिन आर्काइव' में इसकी पुष्टि होती है। उनकी इस किताब में भारत और गांधी परिवार को समर्पित कई अध्याय हैं।जो बताते है की कांग्रेस और नेहरू-गांधी परिवार किस तरह केजीबी और सोवियत संघ की कठपुतली बनकर भारत में सत्ता संभाल रहे थे।
इस किताब के अध्याय 'भारत के साथ विशेष संबंध' (भाग 1: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सर्वोच्चता) में मित्रोखिन ने खुलासा किया कि जोसेफ स्टालिन की भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गांधी के बारे में क्या राय थी। मित्रोखिन आर्काइव के अनुसार स्टेलिन नेहरू और गांधी ब्रिटिश साम्राजयवाद का पिट्ठू समझते थे। स्टेलिन की नजरों में ये दोनों स्वतंत्र सेनानी के वेश में लोगों से विश्वासघात करने वाले थे। जिन्होंने अंग्रेजों के सामने झुककर अपने लोगों को धोखा दिया, जिससे अंग्रेजों को भारत पर अपनी पकड़ मजबूत करने में मदद मिली। स्टेलिन द्वारा नेहरू के लिए कठोर शब्दों का प्रयोग करने के बाद भी नेहरू अक्सर सोवियत रूस की कम्युनिस्ट क्रांति की प्रशंसा करते थे और उससे प्रेरणा लेते थे।
मित्रोखिन के अनुसार 1950 के दशक में मास्को स्थित भारतीय दूतावास में केजीबी के गुप्तचरों की पैठ बढ़ गई थी। दूतावास कर्मी केजीबी द्वारा दिए गए प्रलोभनों के जाल में फंसकर उनके मोहरे बन गए थे। केजीबी और सोवियत संघ की इच्छा से ही कम्युनिस्ट कृष्ण मेनन नेहरू सरकार में रक्षा मंत्री बने। मेनन के 1962 और 1967 के चुनावों के लिए केजीबी ने फंडिंग की थी। जिसके बदले में उन्होंने अपने आका सोवियत संघ को लाभ पहुंचाने के लिए रक्षा उपकरणों की खरीद नीति में बदलाव किया और ब्रिटिश लाइटनिंग के बजाय सोवियत मिग खरीदे। मेनन के नेतृत्व और गलत नीतियों की वजह से अक्टूबर, 1962 में चीन के हाथों भारत को शर्मनाक पराजय का मुंह देखना पड़ा। जिसके बाद नेहरू ने भारी मन से मेनन से इस्तीफा ले लिया।
इसके बाद सोवियत संघ ने कई समाचार पत्रों को धन देकर मेनन के पक्ष में लेख छपवाए ताकि उन्हें दोबारा सरकार में शामिल किया जा सकें। मित्रोखिन के अनुसार 1962 से लेकर 1972 के बीच भारत के दस बड़े प्रकाशन समूह केजीबी के पेरोल पर थे, जिनकी कलम केजीबी के शब्दों को लिखती थी।इस दौरान करीब 3500 लेख केजीबी के इशारे पर प्रकाशित हुए थे। मित्रोखिन के अनुसार पूर्व प्रधानमंत्री स्व.लाल बहादुर शास्त्री जी की मौत के बाद जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनने के बाद केजीबी भारत सरकार में गहराई से घुसपैठ करने में कामयाब रहा।इंदिरा गांधी (मित्रोखिन द्वारा कोडनाम 'वानो' दिया गया) है। मित्रोखिन ने खुलासा किया कि इंदिरा गांधी को महत्वपूर्ण जानकारी के बदले में दो करोड़ रुपये दिए गए थे,उन्होंने उस बैग को भी वापस नहीं किया जिसमें उन्हें पैसे मिले थे।
मित्रोखिन की पुस्तक में ये भी दावा किया गया है की 1977 के चुनावों में, 21 गैर-कम्युनिस्ट नेताओं के अभियानों को केजीबी ने फंडिंग की थी। जिसमें से 7 नेता इंदिरा गांधी की सरकार में कैबिनेट रैंक के मंत्री बने थे। उसके अनुसार नेहरू-गांधी शासन काल में किसी भी देश के लिए भारत में जासूसी करना बेहद सहज था। भारत विदेशी जासूसी एजेंसियों के लिए एक खेल का मैदान बन गया था।
किताब के अनुसार 1970 का दशक आते -आते भारत में केजीबी का पूरा दबदबा कायम हो चुका था। जिसका नतीजा ये था की इंदिरा भारत में होने वाली किसी भी गड़बड़ी के लिए सीआइए को कसूरवार बताती थीं। जिसका मुख्य साक्ष्य है इंदिरा गांधी द्वारा 12 जून, 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा अपने निर्वाचन को निरस्त किए जाने की घटना को विदेशी साजिश करार देना। केजीबी ने इंदिरा की इस बात को सही साबित करने के लिए केजीबी ने 1.06 करोड़ रूबल दुष्प्रचार में खर्च किए। केजीबी ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को पैसे देकर इंदिरा और कांग्रेस को समर्थन देने के लिए तैयार किया था। इसी तरह ऑपरेशन ब्लूस्टार को तर्कसंगत साबित करने के लिए केजीबी ने भारी-भरकम राशि खर्च की। सोविययत संघ के इशारों पर समाजवादी अर्थव्यवस्था को लंबे समय तक चलाए रखने के कारण देश 1991 आते-आते कंगाली की कगार पर आ खड़ा हुआ। जिसके बाद एलपीजी को लागू किया गया।
मित्रोखिन के दावों की जांच के लिए यूएसए, यूके ने विशेष समितियों का गठन किया। जबकि भारत में कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व वाली यूपीए -1 सरकार ने दावों को खारिज कर दिया और कोई समिति नहीं बनाई। इन दावों एक सिरे से ख़ारिज कर दिया। ऐसे में प्रश्न उठता है की जिन नेताओं, मीडियाकर्मियों ने देश को बेचा उन्हें जनता से माफ़ी मिलेगी ? जो छद्मयुद्ध विदेशी आकाओं के इशारे पर राजनेताओं के माध्यम से चलता रहा, कहीं ये अब भी वामपंथी मीडिया समूहों, एनजीओ और नक्सलियों के माध्यम से कहीं जारी तो नहीं है ? क्या आज आका और प्यादों के चेहरे भर बदल गए है ?