UCC: सेकुलर सिविल कोड के पीछे सोची - समझी रणनीति, राम मंदिर और आर्टिकल 370 के बाद UCC पर सरकार का फोकस
राम मंदिर और आर्टिकल 370 के बाद UCC पर सरकार का फोकस
नई दिल्ली। 'देश का वर्तमान सिविल कोड कम्युनल है। आजादी के 75 साल बाद अब देश में सेकुलर सिविल कोड होना चाहिए।' जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से इस बात को कहा था तो मेसेज साफ था जल्द ही यूनिफार्म सिविल कोड पर फैसला होने वाला है। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि, प्रधानमंत्री ने यूनिफॉर्म सिविल कोड नहीं बल्कि सेकुलर सिविल कोड शब्द का उपयोग किया। 'यूनिफॉर्म' के स्थान पर सेकुलर शब्द का उपयोग करना एक तय रणनीति का हिस्सा है। आखिर राम मंदिर और आर्टिकल 370 के बाद अब UCC पर ही सरकार का फोकस है।
राम मंदिर, आर्टिकल 370 और यूनिफॉर्म सिविल कोड - भारतीया जनता पार्टी द्वारा तय किये गए तीन एजेंडे थे। दो मुद्द्दों पर भाजपा अपना वादा निभा चुकी है अब बारी तीसरे वादे की है। भाजपा के वरिष्ठ नेताओं द्वारा तीन टारगेट सेट किए गए थे। इनमें से यूनिफॉर्म सिविल कोड एक ऐसा एजेंडा था जिसकी चर्चा से सबसे ज्यादा असहज अप्ल्संख्यक समुदाय होता रहा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से जब सेकुलर सिविल कोड का जिक्र कर रहे थे तब मंच पर बैठे सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ मुस्कुरा रहे थे। पीएम मोदी द्वारा भाषण में 'सेकुलर सिविल कोड' का उपयोग यूंही नहीं किया गया। इस विषय पर हम चर्चा करेंगे पहले समझते हैं UCC कैसे बना राजनीतिक मुद्दा।
शाह बानो केस से हुई थी शुरुआत :
एक महिला के साथ हुए अन्याय से कैसे देश के राजनीतिक माहौल में उथल - पुथल आ सकती है यह जानने के लिए शाह बानो केस सबसे अच्छा उदाहरण है। इस केस के बाद ही संविधान का आर्टिकल 44 संविधान से निकलकर भाजपा के मेनिफेस्टो में पहुंच गया। दरअसल, बात 179 रुपए प्रति माह गुजारा भत्ता की थी। शाह बानो को उनके पति ने तलाक दे दिया था। गुजारा भत्ता के लिए उन्हें लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी। जब मसला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तब जाकर शाह बानो को न्याय मिला।
शाह बानो बनाम यूनियन ऑफ इंडिया :
शाह बानो बनाम यूनियन ऑफ इंडिया केस में 5 न्यायाधीशों की पीठ फैसला करने बैठी। इनमें मुख्य न्यायाधीश जगदीश सिंह खेहर, न्यायमूर्ति अब्दुल नजीर, न्यायमूर्ति रोहिंटन नरीमन, न्यायमूर्ति यूयू ललित और न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ शामिल थे। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने अप्रैल 1985 में हाईकोर्ट द्वारा दिए गए भरण-पोषण को बरकरार रखा और शाह बानो के पति को लागत के रूप में 10,000 रुपये की अतिरिक्त राशि का भुगतान करने का निर्देश दिया।
मुस्लिम महिलाओं को न्याय :
न्यायालय ने फैसला सुनाया कि, पांच बच्चों के साथ रहने वाली तलाकशुदा मुस्लिम महिला शाह बानो के पूर्व पति को इद्दत (शरिया कानूनों के तहत मुस्लिम महिलाओं को दी जाने वाली राशि) के अलावा 179 रुपये प्रतिमाह गुजारा भत्ता के रूप में देना होगा। यह एक ऐतिहासिक फैसला था। शाह बनो अदालत में तो लड़ाई जीत गईं लेकिन अदालत के बाहर की लड़ाई बाकि थी।
सत्ता जाने का डर सताया :
शाह बानो केस में सुप्रीम कोर्ट का डिसीजन काफी प्रोग्रेसिव था लेकिन रूढ़िवादी समाज को यह पचा नहीं। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद 1985 में ही कई मुस्लिम संगठनों ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया। उस समय राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे। जब उन्हें सत्ता जाने का डर सताया तो दबाव में आकर उन्होंने इस फैैसले को संसद के रास्ते पलट दिया।
माई कंट्री माई लाइफ :
अपनी आत्मकथा 'माई कंट्री माई लाइफ' में भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी लिखते हैं - 'राजीव ने कानून पारित होने से पहले पूछा था कि क्या किया जाना चाहिए - और मैंने (लाल कृष्ण आडवाणी) जवाब दिया कि, कुछ भी करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि यह सर्वोच्च न्यायालय का फैसला था।'
लैंगिक न्याय के खिलाफ :
आडवाणी ने किताब में लिखा है कि, 'हालांकि, यह स्पष्ट था कि भारत के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को मजबूत करने के बजाय, मुस्लिम वोट बैंक के तुष्टिकरण के सरकार के फैसले ने धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रीय एकता को बहुत कमजोर कर दिया था। यह लैंगिक न्याय की वास्तविक मांगों के खिलाफ था।'
'सूडो सेकुलरिस्म'
इसके बाद लाल कृष्ण आडवाणी ने यूनिफार्म सिविल कोड की मांग की। उन्होंने संविधान के आर्टिकल 44 पर बहस छेड़ दी। लाल कृष्ण आडवाणी ने 'सूडो सेकुलरिस्म' (pseudo secularism) शब्द का इजाद किया। इस शब्द का उपयोग उन्होंने उन राजनीतिक पार्टियों को टारगेट करने के लिए किया जो सेकुलर होने का दावा तो करतीं थीं लेकिन एक तब्के को खुश करने के लिए सुधार की राह पर चलने से कतराती थीं।
संविधान सभा में भी हुई थी बहस :
अंग्रेजों ने अपने पूरे शासनकाल में कभी सिविल कोड को हाथ भी नहीं लगाया था। अंग्रेजों ने देश में एक समान क्रिमिनल लॉ तो लागू कर दिया था लेकिन सिविल कोड से वे हमेशा दूर रहे। देश की आजादी के बाद जब संविधान का निर्माण हो रहा था तब समान नागरिक संहिता पर खूब बहस हुई।
प्रोग्रेसिव सोच वाले नेता संविधान यूनिफॉर्म पर्सनल लॉ चाहते थे। इसका उद्देश्य रिचुअल्स को रेगुलेट करना नहीं था बल्कि ये लोग शादी, तलाक और सक्सेशन में समानता चाहते थे ताकि हर तबके की महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार मिल सके।
संविधान सभा में 23 नवंबर, 1948 को इस मुद्दे पर बहस हुई। इस्माइल साहब, नजीरुद्दीन अहमद और पोकर साहब बहादुर ने समान नागरिक संहिता पर आपत्ति जताई और मांग की कि, इससे समुदायों का व्यक्तिगत कानून प्रभावित नहीं होना चाहिए और धार्मिक समुदाय की मंजूरी के बिना व्यक्तिगत कानूनों में कोई हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए।
संविधान सभा में समान नागरिक संहिता के समर्थक केएम मुंशी, अल्लादी कृष्णस्वामी और भीमरावअंबेडकर थे। केएम मुंशी ने कहा कि, कई हिंदू भी विरासत और उत्तराधिकार से संबंधित व्यक्तिगत कानूनों में सुधार का समर्थन नहीं करते हैं क्योंकि वे इन्हें धर्म का हिस्सा मानते हैं। यहां सवाल उठता है कि, सुधार के बिना महिलाओं के लिए समान अधिकार कैसे संभव होंगे जबकि समानता का अधिकार एक मौलिक अधिकार है।
संविधान सभा में बीआर अंबेडकर ने कहा था कि, देश में पहले से ही समान आपराधिक कानून और समान नागरिक कानून हैं। बस विवाह और उत्तराधिकार जैसे पहलुओं को इससे अलग रखा गया है। उन्होंने बताया था कि ऐतिहासिक रूप से मुस्लिम पर्सनल लॉ पूरे भारत में एकसमान नहीं था। साल 1937 तक उत्तर प्रदेश, मध्य प्रांत और बम्बई में मुसलमानों के लिए उत्तराधिकार के मामलों में फैसला हिंदू कानूनों के तहत ही किया जाता था।
इस बीच संविधान सभा में हिन्दू कोड बिल पर भी तीखी बहस जारी थी। जब कोई सहमति नहीं बन पाई तो बीआर अंबेडकर ने बीच का रास्ता अपनाया और समान नागरिक संहिता के विचार को डायरेक्टिव प्रिंसिपल ऑफ स्टेट पॉलिसी के आर्टिकल 44 में डाल दिया।
समान नागरिक संहिता क्या है ?
समान नागरिक संहिता (यूसीसी) भारतीय संविधान में प्रस्तावित एक कानूनी ढांचा है जिसका उद्देश्य विभिन्न धार्मिक समुदायों के मौजूदा व्यक्तिगत कानूनों (personal laws) को सभी नागरिकों पर लागू होने वाले समान नागरिक कानूनों के सेट से बदलना है। संविधान के भाग 4 के आर्टिकल 44 में इसका जिक्र है।
डायरेक्टिव प्रिंसिपल ऑफ स्टेट पॉलिसी :
संविधान में डायरेक्टिव प्रिंसिपल ऑफ स्टेट पॉलिसी वो हिस्सा है जो बताता है कि, सरकार से क्या - क्या अपेक्षाएं की जाती हैं। समान नागरिक संहिता को DPSP के आर्टिकल 44 में डालकर संविधान निर्माता यह अपेक्षा कर रहे थे कि, जब कभी भारत में प्रोग्रेसिव और लिबरल सोसायटी डेवलेप होगी सरकार UCC को लागू कर देगी।
वर्तमान में भारत में विभिन्न धार्मिक समुदायों के लिए अलग-अलग व्यक्तिगत कानून हैं। जैसे हिंदू विवाह अधिनियम (1955), मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) आवेदन अधिनियम (1937), ईसाई विवाह अधिनियम (1872),पारसी विवाह और तलाक अधिनियम (1936).
समान नागरिक संहिता लागू होने पर विवाह, तलाक, उत्तराधिकार और गोद लेने के लिए समान कानून होंगे। संपत्ति और उत्तराधिकार में महिलाओं के लिए समान अधिकार होंगे। इसके अलावा विवाह पंजीकरण और तलाक के लिए मानकीकृत प्रक्रियाएँ होंगी। कानूनों के सरलीकरण और राष्ट्रीय एकीकरण के लिए भी UCC कानून की मांग की जाती रही है।
विपक्ष से छीना मुद्दा :
जब कभी भारत में समान नागरिक संहिता का मुद्दा उठाया गया कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी नेताओं ने भाजपा पर धर्म के आधार पर राजनीति करने का आरोप लगाया। अब यूनिफॉर्म सिविल कोड को सेकुलर सिविल कोड (धर्मनिरपेक्ष नागरिक संहिता) बताकर प्रधानमंत्री मोदी ने विपक्ष से बड़ा मुद्दा छीन लिया है।
आजादी 75 साल बाद UCC की उम्मीद :
भारत को आजाद हुए 75 साल हो गए हैं। देश में आज बहुत कुछ बदल चुका है। राम मंदिर बन गया, जम्मू कश्मीर से धारा 370 समाप्त हो गई, ट्रिपल तलाक भी खत्म हो गया। अब बारी समान नागरिक संहिता और एक देश एक चुनाव की है। वन नेशन वन इलेक्शन पर बहस अब भी जारी है लेकिन समान नागरिक संहिता पर सात दशक से बहस चलती आ रही है। इस सफर में 'समान नागरिक संहिता' (Uniform Civil Code) अब सेकुलर नागरिक संहिता (Secular Civil Code) हो गई है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा यूनिफॉर्म सिविल कोड को सेकुलर सिविल कोड बताकर विपक्ष के सामने एक चुनौती रख दी गई है। यदि विपक्ष सेकुलर सिविल कोड का विरोध करता है तो उन्हें रूढ़िवादी और महिला विरोधी बताया जाएगा। विपक्ष द्वारा UCC का समर्थन करने के भी कोई आसार नजर नहीं आते। ऐसे में सरकार कैसे इस बिल को पेश करेगी और विपक्ष इस पर कैसे प्रतिक्रया देगा यह देखने लायक होगा।