“प्रभात” का असमय यूँ "अवसान" एक त्रासदी है… - अतुल तारे

“प्रभात” का असमय यूँ अवसान  एक त्रासदी है… - अतुल तारे
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जब तक” जग “को “जीवन “देने वाले “राम “हमारे साथ हैं, तब तक हम किसी भी इंदिरा की लंका का नाश कर सकते हैं। भाषण की यह पंक्तियाँ किसी मंझे हुए परिपक्व वक्ता की लग सकती हैं और यह पंक्तियाँ हैं ही ऐसी।

जब तक” जग “को “जीवन “देने वाले “राम “हमारे साथ हैं, तब तक हम किसी भी इंदिरा की लंका का नाश कर सकते हैं। भाषण की यह पंक्तियाँ किसी मंझे हुए परिपक्व वक्ता की लग सकती हैं और यह पंक्तियाँ हैं ही ऐसी। पर यह बेहद कम ही लोगों को पता होगा कि ग्वालियर के फूलबाग पर आपातकाल हटने के बाद अटल जी की आम सभा से पहले यह गर्जना एक ऐसे नव युवक ने की थी, जो जनता पार्टी में भी किसी बड़े पद पर नहीं था।

यह नव युवक मुखर्जी भवन पार्टी कार्यालय की साफ़ सफ़ाई भी करता था, पढ़ता भी था और शाम को स्वदेश सहित अन्य समाचार पत्रों में प्रेस विज्ञप्ति भी लगाने जाता था। सामान्य क़द काठी, अपूर्व उत्साह और परिश्रम की पराकाष्ठा करने वाले इस नव युवक पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ नेतृत्व की निगाह पड़ी।

प्रेस विज्ञप्ति लगाने आने वाले युवक ने स्वदेश के तत्कालीन संपादक श्री राजेंद्र शर्मा के मार्गदर्शन में कलम पकड़ी और उस कलम ने व्यवस्था के ख़िलाफ़ वह आग उगली कि आप उसे ग्वालियर अंचल की आक्रामक पत्रकारिता का “एंग्री यंग मैन भी“ कह सकते हैं।

लिखने की आवश्यकता नहीं उस नव युवक का नाम प्रभात झा था।

प्रभात जी का परिचय भाजपा के सांसद के रूप में भी दिया जाएगा। उनको प्रदेश अध्यक्ष भाजपा के रूप में भी याद किया जाएगा। राष्ट्रीय उपाध्यक्ष के रूप में उनके अखिल भारतीय प्रवास के योगदान को रेखांकित किया ही जाएगा।


दिग्विजय सिंह के कांग्रेस शासन काल में जब भारतीय जनता पार्टी संघर्ष कर रही थी, तब “संवाद प्रमुख“ के पद को अत्यंत महत्व पूर्ण कैसे बनाया जा सकता है, इसकी भी एक कहानी है और उनके संपादक के कार्यकाल के नाते “कमल संदेश” ने कितने प्रभावी संदेश दिये वह भी एक प्रेरक कहानी है।

लेकिन “प्रभात झा“ और ”स्वदेश“ कैसे एक दूसरे के पूरक बने, यह कलम के हर एक विद्यार्थी को समझना होगा। प्रभात जी ,1993 में स्वदेश के दायित्व से निवृत्त हुए और भोपाल गये। संगठन की योजना से वह भाजपा में गए।

आज इसको तीन दशक से अधिक समय हो गया, पर स्वदेश से उनका संबंध वैसा ही रहा और उन्होंने भी अपना परिचय हमेशा स्वदेश के साथ ही जोड़ कर दिया।

वह संपादक कभी नहीं रहे, स्वदेश में, पर आज भी प्रभात जी का उल्लेख स्वदेश के साथ आता ही है। मैं अभी अभी रायपुर ,बिलासपुर में था। स्वदेश का नाम चले और प्रभात जी का नाम न आए, यह हो ही नहीं सकता था और आया भी।

”स्वदेश“ में तो प्रभात जी भी रहे हैं न …एक वरिष्ठ पत्रकार का प्रश्न था। इसलिए बेशक वह 1993 से स्वदेश में किसी दायित्व पर नहीं थे, पर हम को कभी लगा ही नहीं कि प्रभात जी, स्वदेश में नहीं है। और आज जब कलम लड़खड़ा रही है यह लिखते हुए कि वह अब इस दुनिया में ही नहीं है तो बिना उनके स्वदेश की कल्पना से ही गला रूँध रहा है।

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