विनम्र श्रद्धांजली: कुछ ऐसी थी प्रभात जी की स्वदेश के साथ यात्रा - अतुल तारे...
स्वदेश,पत्रकारिता की नर्सरी है। वर्ष 1990 की घटना है। मैं स्वदेश में प्रशिक्षु था। घर से स्वदेश और स्वदेश से घर यही मेरी दिनचर्या थी। प्रभात जी, ताड़ गये थे, अवसर की तलाश रही होगी। एक दिन जब मैं घर के लिए निकल रहा था। तब स्वदेश के पास एक एंबेसेडर गाड़ी थी। प्रभात जी पीछे से निकल रहे थे। पूछा कहाँ जा रहे हो? मैंने कहा, घर। बैठो, मैं छोड़ दूँगा।
तब हम फाल्के बाज़ार में आदरणीय श्री इंदापुरकर जी के बाड़े में रहते थे। मैं बैठ गया। पर गाड़ी रास्ते के पास से तो गुजरी, लेकिन बाड़े होते हुए थोड़ी ही देर में लक्ष्मी गंज होते हुए आगरा मुंबई राष्ट्रीय राजमार्ग से बातें करने लगी।
मैं घबरा गया, मोबाइल उन दिनों थे नहीं और घर पर बताया नहीं था। प्रभात जी ने कहा, हम आगरा चल रहे हैं। सदर्न की बड़ी दुर्घटना है। यह मेरी पहली मैदानी रिपोर्टिंग का अभ्यास भी था और इस पेशे में अनिश्चितता भी है, यह समझाने का एक पाठ्य क्रम भी।
आज इंटरनेट की दुनिया है। कल्पना करें, वर्ष 1992 में 6 दिसंबर को अयोध्या में कारसेवकों ने ढाँचे को ध्वस्त कर दिया था। कड़ाके की ठंड, सुरक्षा के ख़तरे को पूरी तरह नजरअंदाज करते हुए अयोध्या से ग्वालियर की दूरी सड़क मार्ग से तय करके आना और फ़ोटो देना, यह साहस प्रभात झा ही कर सकते थे।
कहते हैं, पत्रकार के संपर्क का दायरा तो होता है, पर प्रेम से नहीं, डर के कारण। ग्वालियर में तब बीच में कुछ समय के लिए प्रदीप पंडित कार्यकारी संपादक थे। प्रभात जी से उन्होंने पूछा, आप रिपोर्टर हो, गाड़ी आपको चलाना चाहिए। प्रभात जी ने कहा, रिपोर्टर हूँ, ड्राइवर नहीं। जहां खड़ा होता हूँ, गाड़ी रुक जाती है, भाजपा के बड़े नेता और सांसद के नाते तो यह सुविधा काफ़ी बाद में उनके भविष्य में छिपी थीं। पर मैंने देखा है, लोग अपने गंतव्य की दिशा बदल कर भी उनको उनके गंतव्य तक छोड़ने में ख़ुशी अनुभव करते थे।
न केवल ग्वालियर, यह तो उनकी प्रारंभिक कर्म भूमि रही, पर वह जहाँ भी जाते थे, पूरे परिवार को अपना बना लेते थे। शाम को उनकी टेबल पर अक्सर इतने घरों से खाने के डिब्बे आते थे कि हम देख कर दंग हो जाते थे, पत्रकारिता के सूत्र इस प्रकार की सुई भी गिरती थी तो प्रभात जी को खबर रहती थी।
क्या भाजपा, क्या कांग्रेस, क्या वाम पंथी, प्रभात जी सबकी खबर ले भी लेते थे, पर व्यक्तिगत संबंध उतने ही मधुर। वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी हों या उसी कार्यालय का भृत्य, प्रभात जी उसके हैं यह विश्वास उन्होंने कमाया। लक्ष्मी पुत्रों से भी उनके संबंध चूल्हे तक थे, पर मजाल प्रभात जी की कलम कभी बिकी हो इसका आरोप तो दूर किसी ने चर्चा भी की हो। ऐसे थे, प्रभात जी, ऐसे थे हम सब के भाईसाहब।
अभी अभी ,लगभग एक माह पहले ही, प्रभात जी स्वदेश आये थे। उनका विचार था कि उनके पुराने आलेख, खोजी रिपोर्ट,साक्षात्कार और विश्लेषण जो स्वदेश में प्रकाशित हुए हैं उनको एक पुस्तक का आकार दिया जाये। उनका यह भी सुझाव था कि आयोजन में प्रधानमन्त्री श्री नरेंद्र मोदी को बुलाएँगे।
मैं उत्साहित था। काम भी शुरू किया था।
पर अब …?
जहाँ तक भारतीय जनता पार्टी का प्रश्न है। एक बड़ा शून्य वहाँ भी है। व्यक्तिगत संपर्क, आत्मीय रिश्ते, सतत संवाद प्रभात की पूँजी थी। आज यह पार्टी के विस्तार के साथ कुछ कम हुआ है। ऐसे में प्रभात जी की अनुपस्थिति एक त्रासदी ही है ।
पुनश्च :एक बात प्रभात जी से ही ,
भाईसाहब से ही ,
आप तो संघर्ष के पर्याय थे। हार कैसे गये? पहले भी आपने मृत्यु को चुनौती दी है। इस बार क्यों कमजोर पड़ गये? जवाब दो ?
और आख़िर में …
हे विधाता, समाज में, लोक जीवन में “शुगर “तेज़ी से कम हो रही है। उनके शरीर की शुगर ले लेता और समाज में बाट देता। अब यह दुनिया प्रभात के बिना रस विहीन नहीं होगी?
यह तेरा निर्णय अभी असमय ही है। जाना सबको है।
पर प्रभात का यह अवसान, असमय है।
।।विनम्र श्रद्धांजली।।