राहुल जोडने नहीं तोडने पर उतारू...!
- त्वरित टिप्पणी : शक्तिसिंह परमार
मध्यप्रदेश में दूसरे दिन ही राहुल गांधी की 'भारत जोड़ो यात्रा' अपने नाम के विपरीत एवं कांग्रेस के उन मंसूबों को पुष्ट कर रही है, जो समाज-राष्ट्र को दशकों से वोट बैंक के नजरिए से परे देखने को तैयार नहीं है..! तभी तो राहुल ने खंडवा के ग्राम बड़ौदा अहीर जो कि जनजातीय गौरव एवं महान क्रांतिकारी टंट्या मामा भील की जन्मस्थली है...यहां से वनवासी समाज को तोडऩे, आपस में भिड़ाने या कहें दिशाभ्रमित करने के मंसूबे उजागर कर दिए हैं...राहुल वनवासी को आदिवासी का दुश्मन बताकर संविधान द्वारा स्वीकार किए गए अनुसूचित जनजाति (अजजा) अर्थात जनजातीय समाज को नजरअंदाज कर अंग्रेजों द्वारा थोपी गई पहचान 'आदिवासीÓ का हमदर्द बनने की कुचेष्टाभर कर रहे हैं...यह संविधान की अधिसूचना का भी अपमान है...
राहुल आखिर क्यों भूल जाते हैं कि अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लडऩे वाले बिरसा मुंडा, ट्ंट्या मामा जैसे नायक वनवासी ही थे...इस वनवासी समाज को तो 1930 में ही अंग्रेजों ने संपूर्ण भारतीय समाज से विभक्त करने या कहें कि दूर करने के लिए 'आदिवासीÓ नाम से पुकारना शुरू किया था...वनवासी, जनजातीय या आदिवासी वास्तव में एक ही हंै...प्राचीनकाल से वन क्षेत्र में रहने वाले वनवासी कहलाते रहे हंै..,रामायण तक में भी इसका उल्लेख है...आदिवासी कहने से वन क्षेत्र में रहने वाली जातियों की पहचान असंभव है..,क्योंकि आदिवासी तो संपूर्ण भारतीय समाज है...इसलिए वन क्षेत्र में वन परंपरा का निर्वाह करने वाले सभी शाश्वतकाल से वनवासी थे और हैं या फिर संविधान ने उन्हें जिस नाम से संबोधित किया वह जनजातीय ही सही है...जंगलों में रहने वालों की कोई जाति नहीं यह वर्ग है, बल्कि यह पूरा समुदाय है जो वनों पर निर्भर हैं, वनों का संरक्षणकर्ता हंै...पौराणिक एवं परंपरा के मान से उन्हें हम वनवासी मानते हैं यह शास्त्रोक्त भी है...और ऐतिहासिक रूप से एवं संवैधानिक दृष्टि से वे जनजातीय हंै...आदिवासी उनके लिए दूर-दूर तक उचित नहीं..,फिर राहुल ऐसा बयानी कृत्य कर वनवासी समाज को जोडऩे के बजाय तोडऩे वाला खेल 'भारत जोड़ो यात्रा' के नाम से क्यों खेल रहे हैं..?
सबसे मौजू सवाल तो राहुल से अब उन वनवासी कांग्रेस नेताओं को पूछना चाहिए जो इस यात्रा के मंच या राहुल के दायरे से गायब है...कहां हैं कांतिलाल भूरिया, गजेन्द्रसिंह राजूखेड़ी, हनीसिंह बघेल, ओमकार सिंह मरकाम, झूमा सोलंकी, ज्योति धुर्वे, कलावती भूरिया, पांचीलाल मेड़ा, हर्षविजय गेहलोत, प्रताप ग्रेवाल, संजीव उइके, महेश पटेल, विक्रांत भूरिया या ऐसे ही देश-प्रदेश के अनेक वनवासी नेतृत्व से राहुल दूरी क्यों बनाए हुए हंै..? वनवासी नेता उमंग सिंघार को संकट के समय में अभी तक राहुल-प्रियंका ने कोई सांत्वना-संरक्षण या समझाइश क्यों नहीं दी है..? और इससे भी बढ़कर सवाल वनवासी समाज को राहुल से पूछना चाहिए कि जिन टंट्या मामा के स्मारक पर उन्होंने नमन किया है उसको सजाने-संवारने में भाजपा सरकार की ही भूमिका है...वरना 50-60 साल तक कांग्रेस को वनवासी समाज की याद ही कहां आई है..? उन्हें आदिवासियों के रूप में अंग्रेजों द्वारा दी गई छाप लुटेरा, डाकू, असभ्य के रूप में ही क्यों आगे बढ़ाया..? क्या राहुल देश को जोडऩे के बजाय तोडऩे के इन मंसूबों से पूर्व इन बातों का जवाब देंगे..? फिर विचार करंे कि अंग्रेजों के साथ और वनवासियों के खिलाफ कौन खड़ा है संघ या राहुल और कांग्रेस..?