J&K का सशर्त विलय प्रयोजित झूठ, नेहरू के नोट पर राष्ट्रपति से हस्ताक्षर कराकर लागू किया था 35A

J&K का सशर्त विलय प्रयोजित झूठ, नेहरू के नोट पर राष्ट्रपति से हस्ताक्षर कराकर लागू किया था 35A
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जम्मू कश्मीर अधिमिलन दिवस पर आयोजित संगोष्ठी में सीनियर फैलो दिलीप दुबे ने किया संबोधित

श्रीनगर/वेब डेस्क। जम्मू कश्मीर के भारत में अधिमिलन को लेकर एक प्रयोजित झूठ स्वतंत्रता के बाद से स्थापित किया गया कि पाकिस्तानी सेना( कबाइलियों) के आक्रमण से बचाने की शर्त पर कश्मीर के राजा ने भारत में मिलने पर सहमति दी थी। सच्चाई यह है कि 25 जुलाई 1947 को ही राजा हरिसिंह ने इंस्ट्रूमेंट्स ऑफ एक्सेसन पर सहमति दे दी थी लेकिन प्रधानमंत्री नेहरू की दूषित मानसिकता के चलते इसे अमल में नही लाया गया। इसी तरह कश्मीर को विशेष दर्जा देनें वाले 35 ए अनुच्छेद को बगैर संसद से अधिनियमित कराए तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद से स्वीकृति दिलाई थी। हालांकि राजेन्द्र बाबू ने इस विषय पर अपनी आपत्ति भी दर्ज कराई थी लेकिन नेहरू ने अपने प्रभाव का प्रयोग कर 35ए लागू कराया नतीजतन कश्मीर देश के लिए बड़ी समस्या बन गया। यह बात जम्मू कश्मीर अध्ययन केंद्र के सीनियर फैलो दिलीप दुबे ने आज कश्मीर अधिमिलन दिवस पर आयोजित ई संगोष्ठी को संबोधित करते हुए कही।


दिलीप दुबे ने सरकारी पत्राचारों के हवाले से बताया कि कश्मीर को विशेष दर्जा देनें के लिए संविधान सभा में नेहरू जी ने अतिशय प्रयास किये।जब संविधान बनकर तैयार हो गया तब गोपाल स्वामी आयंगर ने 17 ऑक्टुबर 1949 को विशेष दर्जे का प्रस्ताव रखा लेकिन प्रारूप कमेटी के अध्यक्ष डॉ बीआर अम्बेडकर के कड़े प्रतिरोध के चलते कश्मीर के अलग संविधान को मान्यता नही मिल पाई।अलबत्ता रियासतों के लिए बनाई गई राज्य सूची को ही बाद में कश्मीर के पृथक संविधान के रूप संवैधानिक रूप से प्रचारित किया गया। दुबे ने बताया कि 1954 में 35 ए जोड़ने की प्रक्रिया पूरी तरह से असंवैधानिक थी क्योंकि यह केवल नेहरू के एक नोट पर बनाकर राष्ट्रपति से हस्ताक्षरित कराया गया। 5 अगस्त 2019 को इसी असंवैधानिक प्रावधान को सरकार ने समाप्त किया है।

माउंटबेटन की दृष्टि -

दुबे ने ऐतिहासिक तथ्यों के हवाले से बताया कि कश्मीर के मामले को छोड़कर शेष सभी देशी रियासतों के मामलों को गृहमंत्री के रूप में सरदार पटेल ने निराकृत किया इसलिए कहीं कोई समस्या बाद के बर्षों में नही आई लेकिन कश्मीर को नेहरू अपने मित्र माउंटबेटन की दृष्टि से देख रहे थे।माउंटबेटन मूल रूप से कश्मीर को पाकिस्तान या स्वतंत्र राज्य के पक्षधर थे।महाराजा कश्मीर ने 562 रियासतों के साथ ही भारत में विलय पर हस्ताक्षर कर दिए थे लेकिन दिल्ली में रियासत के प्रधानमंत्री को नेहरू जी ने मिलने तक का समय नही दिया। बाद में जब पाकिस्तान ने इस उहापोह का फायदा उठाकर आक्रमण किया तब इस पत्र को संज्ञान में लिया गया और यह धारणा स्थापित कर दी गई कि राजा ने पाकिस्तान से बचने के लिए भारत विलय पर सहमति दी है तब तक सवा दो लाख वर्ग किलोमीटर की कश्मीर रियासत के सवा लाख वर्ग किलोमीटर पर पाकिस्तान का कब्जा हो गया। दुबे पत्रों के आधार पर बताया कि नेहरू जी ने बाकायदा पत्र लिखकर महाराज हरिसिंह को देशद्रोह में बंद शेख अब्दुल्ला को रिहा करने एवं रियासत का प्रधानमंत्री बनाने के निर्देश दिए थे।

बिना शर्त हुआ विलय -

दिलीप दुबे के अनुसार ऐतिहासिक तथ्यों से यह प्रमाणित हो चुका है कि जम्मू कश्मीर का भारत मे विलय किसी भी शर्त के अधीन नही हुआ है लेकिन विशेष राज्य के असंवैधानिक दर्जे को प्रामाणिक बताने के लिए सशर्त विलय की मिथ्या थियरी को प्रचारित किया गया है।उन्होंने बताया कि कश्मीर का आतंक प्रभावित क्षेत्र बमुश्किल 10 से 12 हजार किलोमीटर का है शेष 60 हजार वर्ग किलोमीटर में लद्दाख एवं 29 हजार वर्ग किमी में जम्मू का क्षेत्र आता है लेकिन स्वतंत्रता के बाद कश्मीर के इस छोटे से क्षेत्र को ही जम्मू कश्मीर के रूप में प्रचारित किया जाता है।उन्होंने बताया कि लद्दाख के अलग केंद्र शासित प्रदेश बन जाने एवं नए परिसीमन से जम्मू और कश्मीर का राजनीतिक एवं प्रशासनिक संतुलन निर्मित होगा। दुबे ने विस्तार से उन परिस्थितियों का जिक्र भी किया जब आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक गोलवलकरजी के नेतृत्व में कश्मीर के भारत विलय के लिए मैदानी सँघर्ष किया गया।उन्होंने बताया कि पाकिस्तान से आने वाले हिंदुओ की रक्षा एवं रियासत के विलय के लिए प्रजा परिषद के साथ मिलकर संघ के स्वयंसेवकों ने अभूतपूर्व कार्य किया था जिसे सरदार पटेल ने नेहरू के विरोध के बावजूद अपनी अधिमान्यता दी थी।इस ई संगोष्ठी का संचालन विश्व संवाद केंद्र के सहसचिव डॉ कृपाशंकर चौबे ने किया।

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