अटल बिहारी वाजपेयी जयंती विशेष: कांग्रेसी तंत्र की उपेक्षा से जन्मा जुनून,‘स्वदेश’ को विश्व मंच पर ले पहुँचा...

कांग्रेसी तंत्र की उपेक्षा से जन्मा जुनून,‘स्वदेश’ को विश्व मंच पर ले पहुँचा...
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राजकुमार शर्मा: यूँ तो अटलजी के साथ के अनेक संस्मरण हैं मगर एक अविस्मरणीय घटना आज तक स्मृतियों में अंकित है। मैं ‘दैनिक स्वदेश’ का दिल्ली ब्यूरो देखता था। केंद्र में प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव की कांग्रेस सरकार थी। ‘

स्वदेश’ को संघ-भाजपा से जुड़ा होने के कारण सरकार की ओर से कई कार्यक्रमों में निमंत्रित नहीं किया जाता था, विशेषकर प्रधानमंत्री के विदेश दौरों में तो बिल्कुल नहीं। इसको लेकर कई बार मैं प्रेस इनफार्मेशन ब्यूरो को अपनी शिकायत करता था।

प्रधानमंत्री प्रत्येक वर्ष संयुक्त राष्ट्र संघ के शिखर सम्मेलन में भाग लेने न्यूयॉर्क जाते हैं। उनके साथ मीडिया पार्टी भी जाती थी। इसमें जाना, प्रत्येक समाचार पत्र के लिए प्रतिष्ठा की बात होती। मेरा प्रयास रहता कि ‘स्वदेश’ को भी निमंत्रण मिले। परंतु ये संभव नहीं हो पा रहा था। अतः एक दिन मैंने उस समय के पीआईबी के एक अधिकारी को चुनौती देते हुए कहा कि ‘एक दिन यूएनओ में स्वदेश जाकर रहेगा!’

मैं इस चुनौती को पूरा करने में जुटा था। एक दिन संसद भवन में उनके कार्यालय में पहुँच गया। तब वे विपक्ष के नेता थे। श्री पी एल शर्मा उनके सचिव। मैंने उनसे ‘स्वदेश’ के बारे में सरकार की उपेक्षाभरे व्यवहार की जानकारी दी। और अनुरोध किया कि वे ‘स्वदेश’ को संयुक्त राष्ट्र संघ की कवरेज़ करने की सिफारिश सरकार को करें। ऐसा कोई प्रावधान नहीं था मगर मुझे चुनौती पूरी करनी थी। सो, मैं उनसे आग्रह करने लगा। उन्होंने समझाया ऐसा कोई प्रावधान नहीं है।

मगर मैं बालहट पर अड़ा था। काफ़ी देर उनसे तर्क वितर्क होने के बाद वो बोले ‘तुम्हें कुछ पता तो है नहीं’, और अपने सचिव शर्माजी को आवाज देकर बुलाया और कहा ‘ ये जिद्द कर रहे हैं, वैसे कुछ होना नहीं है फिर भी इनके समाधान के लिए प्रधानमंत्री को एक फॉरवर्डिंग लेटर भिजवा दो’। मैं अपने साथ जो पत्र लेकर गया था उसे उन्होंने प्रधानमंत्री श्री नरसिम्हा राव को भिजवा दिया।

मुझे भी लगता था कि कुछ ज्यादा तो होना नहीं है फिर भी प्रयास करने में कोई बुराई नहीं है। इसके बाद मैं भी भुला बैठा कि कोई पत्र भी लिखा गया है।

लगभग एक महीने बाद विदेश मंत्रालय के जन संपर्क विभाग से उनके प्रवक्ता श्री (स्वर्गीय) आरिफ खान का लैंडलाइन पर फ़ोन आया कि ‘आप कब न्यूयॉर्क जाना चाहेंगे ? प्रधानमंत्री कार्यालय से आपके बारे में संदेश है।’ मैं चौंका और आश्चर्य भी हुआ कि आख़िर प्रधानमंत्री कैसे मान गए ! निश्चित रूप से ये अटलजी का प्रभाव था।

अगले दिन मैंने अटलजी की कार्यालय से संपर्क किया। अटलजी प्रवास पर थे। उनके सचिव शर्माजी ने बताया कि उनके पास तत्कालीन विदेश सचिव श्री क्रिप्स श्रीनिवासन का पत्र आया है। मैंने वो पत्र वहाँ से लिया और दी गई चुनौती की सफलता का अहसास होने लगा। इस बीच विदेश सचिव के यहाँ से कॉल आई और उन्होंने मिलने के लिए साउथ ब्लॉक के अपने ऑफ़िस में बुलाया। उन्होंने ब्रीफ किया कि अटलजी के पत्र के सिलसिले में मंत्रालय क्या क्या करेगा। ये अटलजी के व्यक्तित्व का प्रभाव था !

कुछ दिन बाद अटलजी प्रवास से लौटे तो मैंने उन्हें इसकी जानकारी दी। वे बोले ‘लगता है गलती से ये हो गया है।’ वे मुझे खींचने के मूड में थे। समय समय पर उनसे ऐसी नोक झोंक चलती रहती थी।

अटलजी के यहाँ से पता चला कि विदेश मंत्रालय के अधिकारी इस बारे में उन्हें भी अपडेट दे रहे थे।

अब समस्या थी कि कैसे जाया जाए ? स्वदेश के पास तो संसाधन नहीं थे और न ही ये कोई ऑफिसियल असाइनमेंट था। विदेश मंत्रालय ने कहा कि वे वहाँ ठहरने की व्यवस्था करेंगे। आना जाना स्वयं को करना पड़ेगा।

सरकारी तंत्र को दी गई चुनौती में जीतने के क्रम में ये एक नई चुनौती खड़ी हो गई! फिर अटलजी का द्वार खटखटाया। स्वर्गीय प्रमोद महाजन संसद की टूरिज्म और ट्रांसपोर्ट संबंधी स्थायी समिति के चेयरमैन थे। भाग दौड़ कर एयर इंडिया से कम्प्लीमेंटरी टिकट की व्यवस्था हुई। और दिसंबर 1994 में, मैं न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र संघ को कवर करने पहुँच गया।

तब वहाँ भारत के स्थायी मिशन के प्रमुख श्री हामिद अंसारी थे जो बाद में देश के उपराष्ट्रपति बने। श्री टी पी श्रीनिवासन, मिशन के नंबर टू थे। संघ मुख्यालय जाने के लिए पास इत्यादि इसी मिशन से मिलना था। तो वहाँ जाना हुआ । श्री अंसारी ने तपाक से कहा ‘ हमारे पास मैसेज था कि वाजपेयी साहेब का कोई आदमी आ रहा है।’ विदेश में इतना ही काफ़ी था। पास की व्यवस्था हुई, संयुक्त राष्ट्र संघ का दौरा किया। और दस दिन के बाद भारत वापसी हुई। एक विजेता की तरह लौटा।

1998, 1999 में भाजपा सरकार बनी। अटलजी प्रधानमंत्री बने। ‘स्वदेश’ को अपेक्षित सम्मान मिलने लगा। फिर संयोग बना कि अटलजी ने मुझे अपने ओएसडी के रूप में नियुक्त किया। और 2003 सितंबर में प्रधानमंत्री के रूप में अटलजी का न्यूयॉर्क दौरा तय हुआ। उनके सरकारी प्रतिनिधिमंडल में एक प्रतिनिधि की हैसियत से वहाँ जाना हुआ। मन प्रफुल्लित था। सीना गर्व से भरा हुआ था । कांग्रेस सरकार के तंत्र ने जिस प्रकार संघ से जुड़े समाचार पत्र को उपेक्षित किया था मानों यह उसका करारा जबाव था !

उस समय पीएमओ में अटलजी के भाषण तैयार करनेवाले सहयोगी अस्वस्थ होने के कारण दौरे में साथ नहीं थे। पहला कार्यक्रम भारतीय मूल के डॉक्टरों की संस्था को संबोधित करना था। भाषण हिंदी में ही होना था। वो कार्य मुझे सौंपा गया। भारत में उनके भाषण तैयार करते थे तो सहज लगता था मगर विदेश में इतने बड़े मंच हेतु भाषण तैयार करने की जिम्मेदारी मिलने पर हाथ पॉव फूलने लगे। आत्म-विश्वास भी थोड़ा डोलने लगा। मगर कोई और विकल्प नहीं था। पूरी रात बैठकर भाषण का प्रारूप तैयार किया। विदेश मंत्रालय के अधिकारियों ने देखा और हरी झंडी दी तो आत्म-विश्वास बड़ा। कार्यक्रम में जाने से पहले अटलजी को पढ़ कर सुनाया। उन्होंने ओके किया तो जान में जान आई।

प्रत्येक भाषण का प्रारूप तैयार करके उनको देते समय मैं उनसे कहता था कि ‘आप इसे भूल जाइए, आप रीडर नहीं, लीडर हैं। आप अपने मन से बोलिए। ओरिजिनल अटलजी वो ही हैं’। वे सुन लेते मगर इस आशंका से कि कहीं कोई गलती न हो जाए, वे लिखित भाषण ही पढ़ते। खैर, उस कार्यक्रम के सफलतापूर्वक संपन्न हो जाने से हम सभी संतुष्ट और प्रसन्न थे।

अगले दिन संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच से भारत के प्रधानमंत्री के रूप में उनका संबोधन होना था। परम्परा यह है कि जब कोई भी राष्ट्राध्यक्ष संबोधित करता है तो उस सभागार में बने एक विशेष बॉक्स में उनके पाँच छ: प्रतिनिधि भी उसमें बैठते हैं। विदेश मंत्री यशवंत सिंह, प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव बृजेश मिश्रा, विदेश सचिव, पीएमओ में संयुक्त सचिव राघवन, प्रधानमंत्री के सचिव अजय बिसारिया इत्यादि के जाने का स्वाभाविक रूप से तय था। मेरे मन में काफी इच्छा थी कि मुझे भी उस बॉक्स में बैठने को मिले मगर संकोच था किससे कहूँ। काफी कशमकश के बाद हिम्मत करके एक अधिकारी को मैंने अपनी बात कही। बात अटलजी तक पहुँची या नहीं, पता नहीं मगर मुझे भी इस बॉक्स में बैठने का सौभाग्य मिल गया। मेरे लिए यह गौरवमयी पल था।

उन क्षणों में ‘स्वदेश’ की उपेक्षा से जन्मा जुनून और उसे हासिल करने के लिए किए सारे प्रयास स्मरण हो आए। मगर मैं मानता हूँ कि इस सफलता के संघर्ष में अटलजी का आशीर्वाद, ‘स्वदेश’ के लिए उनका अपनापन और संवेदनशीलता की अहम् भूमिका रही।

उनकी सौवीं जयंती पर स्मृति के कुछ क्षण फिर से सजीव हो उठे हैं। ऐसे महामानव की स्मृति को नमन!

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