15 अगस्त 1947: स्वतंत्रता दिवस पर जानिए तंजौर नदी का जल, चावल और भभूत जवाहरलाल नेहरू को क्यों और किसने दिए

स्वतंत्रता दिवस पर जानिए तंजौर नदी का जल, चावल और भभूत जवाहरलाल नेहरू को क्यों और किसने दिए

नई दिल्ली। 15 अगस्त 1947, के ठीक पहले जवाहरलाल नेहरू से नई दिल्ली में मिलने लिए कुछ लोग आए। ये अपने साथ चावल, तंजौर नदी का जल और भभूत लेकर आए थे। जैसे ही जवाहरलाल नेहरू को उनके बारे में पता चला...वे इन लोगों से मिलने के लिए घर से बाहर आ गये। इधर प्रिंसिस पार्क में देश का राष्ट्रीय ध्वज फहराना था। 200 साल की गुलामी के बाद ये सौभाग्य भारत के नसीब आया था। सवाल उठना चाहिए कि कौन थे ये लोग जो जवाहरलाल नेहरू से मिलने दिल्‍ली आए थे।

कोई कैसे भूल सकता था देश की आजादी के संघर्ष को। न जाने कितनों का खून बहा, कितनों का घर उजड़ा, इस आजादी की कीमत हमने खून बहाकर चुकाई थी। स्वदेश आपको बताएगा 15 अगस्त 1947 के दिन का एक - एक घटनाक्रम। जानने के लिए इस लेख को अंत तक पढ़ते रहें।

15 अगस्त की तारीख भारत का भाग्य बदलने वाली तारीख थी। इस दिन के बारे में जानने से पहले शुरुआत 14 अगस्त से करते हैं। लॉर्ड माउंटबेटन कराची से लौट रहे थे। इसी दौरान उन्हें मध्य पंजाब के आसमान में काले धूंए की परत नजर आ रही थी। ये धुआं बेवजह नहीं था। यहां लाखों लोग हिंसा का शिकार हो रहे थे। इन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि, आजादी मिली है या सजा। हालत इतने बत्तर थे कि, पाकिस्तान के हिस्से में आने वाले पंजाब में हिन्दुओं और सिक्खों के इलाकों की पानी की सप्लाई रोक दी गई। जब कोई घर से बाहर निकलता तो उसकी लाश भी घर न लौटती। माउंटबेटन और दिल्ली में मौजूद तमाम नेताओं को भी इन घटनाओं की पूरी जानकारी थी। खैर आज बात दर्द की नहीं बल्कि आजादी के जश्न की...

सन्यासी खाली हाथ नहीं आये थे :

14 अगस्त की शाम तक भारत के बच्चे - बच्चे को पता चल चुका था कि, 15 अगस्त को हम आजाद हो जाएंगे। ऐसे में शाम को दो सन्यासी जवाहरलाल नेहरू से मिलने पहुंचे। ये सन्यासी खाली हाथ नहीं आये थे। ये अपने साथ लाए थे सफ़ेद सिल्क पीताम्बरं, तंजौर नदी का पवित्र जल, भभूत और मद्रास के नटराजन मंदिर में चढ़ाए गए चावल। ये सभी पवित्र वस्तुएं पंडित जवाहरलाल नेहरू को दी जानी थी।

रस्म के लिए इंकार नहीं कर पाए :

दोनों सन्यासी जब पंडित नेहरू से मिले तो उन्होंने पंडित नेहरू को सफ़ेद सिल्क पीताम्बरं, तंजौर नदी का पवित्र जल, भभूत और मद्रास के नटराजन मंदिर में चढ़ाए जाने वाले चावल रस्म निभाते हुए दे दिए। नेहरू वो व्यक्ति नहीं थे जो इन सब रस्मों को मानते हों लेकिन उस दिन सन्यासियों द्वारा इतने स्नेह से लाई इन पवित्र वस्तुओं के साथ की गई रस्म के लिए वे इंकार नहीं कर पाए।

भाषण से पहले दुखी थे नेहरू :

देश की आजादी की खुशी किसे नहीं होती लेकिन पंजाब में जो कुछ हो रहा था वह परेशान करने वाला था। नेहरू सन्यासियों से मिलने के बाद खाने की मेज पर बैठे तो फोन की रिंग बजने लगी। फ़ोन के दूसरी ओर जो व्यक्ति था वह नेहरू को लाहौर के हालातों के बारे में बता रहा था। सब कुछ जानने के बाद नेहरू की हिम्मत टूट गई और वे कुछ देर के लिए बैठ गए। उन्होंने कहा कि, जब लाहौर जल रहा है तो मैं खुशी कैसे जाहिर कर सकता हूं। मैं भाषण कैसे दूंगा ? उनकी बेटी इंदिरा गांधी ने अपने पिता को संभाला, उन्हें हिम्मत दी।

नियति से किया था वादा :

इसके बाद नेहरू उठे और उन्होंने ऐतिहासिक भाषण दिया। "बहुत समय पहले हमने नियति से वादा किया था, अब वो समय आ गया है कि, हम अपना वादा निभाएं। पूरी तरह से न सही तो बहुत हद तक हम अपना वादा निभाएंगे। आधी रात को जब पूरी दुनिया सो रही है तो भारत आजादी में सास ले रहा है।" नेहरू के यह शब्द इतिहास में दर्ज हो गए।

प्रकृति की आंखों से भी आंसू झलक उठे :

रात के ठीक 12 बजे सेन्ट्रल हॉल शंख की आवाज से गूंज उठा। वहां मौजूद एक - एक व्यक्ति इस आवाज को अंतर्मन तक महसूस कर पा रहा था। लोगों की आँखों से आंसू बाह रहे थे और महात्मा गांधी के जयकारे किसी सुरीली धुन से लगते थे। सुचेता कृपलानी ने सारे जहां से अच्छा और वन्दे मातरम गाया। पूरा मंजर किसी सपने जैसा था। इस दिन तो प्रकृति की आंखों से भी आंसू झलक उठे थे। दिल्ली में सेन्ट्रल हॉल के बाहर मूसलाधार बारिश हो रही थी। लोग यहां खड़े होकर नेहरू की एक झलक पा लेने का इंतजार कर रहे थे। नेहरू के बाहर आते ही नेहरू और गांधी के लिए नारे लगने लगे।

माउंटबेटन को मिला खाली लिफाफा :

जवाहरलाल नेहरू और राजेंद्र प्रसाद कुछ देर बाद माउंटबेटन से मिलने पहुंचे। उन्होंने माउंटबेटन को भारत का पहला गवर्नर जनरल बनने के लिए आमंत्रित किया। इसके बाद माउंटबेटन ने नेहरू को वाइन सर्व की और देश की आजादी के लिए शुभकामनाएं दी। नेहरू अपने साथ एक लिफाफा भी लाए थे। इसमें उन मंत्रियों के नाम थे जो 15 अगस्त को शपथ लेने वाले थे। जब माउंटबेटन ने लिफाफा खोला तो चौंक गए क्योंकि लिफाफा तो खाली था। पंडित नेहरू इतने व्यस्त थे कि, वे लिफाफे में मंत्रियों ने नाम डालना ही भूल गए। इसके बाद कुछ देर तक माउंटबेटन खूब हंसे।

15 अगस्त को प्रिंसिस पार्क हालात :

सुबह 8 बजे मंत्रियों के बाद माउंटबेटन ने भी शपथ ली। 15 अगस्त को शाम 5 बजे दिल्ली के प्रिंसिस पार्क में माउंटबेटन राष्ट्रीय ध्वज फहराने वाले थे। अनुमान था कि, 30 से 40 हजार लोग आ सकते हैं लेंकिन शाम को पता चला कि, उस दिन प्रिंसिस पार्क में लाखों लोग आए थे। वहां पांव रखने की भी जगह नहीं थी। भीड़ के कारण सभी व्यवस्था कम पड़ गई थी।

माउंटबेटन की बेटी पामेला भी वहीं थीं। उन्होंने अपनी किताब 'इंडिया रिमेम्बर' में लिखा, नेहरू लोगों के सिर पर पैर रखकर तिरंगे झंडे तक पहुंचे थे। मैं ऐसा करने में असहज हो रहीं थीं क्योंकि मैंने हील वाली सैंडल पहन रखी थी। नेहरू ने पामेला से कहा - तुम सैंडल पहनकर ही आ जाओ कोई बुरा नहीं मानेगा लेकिन पामेला ने ऐसा करने से मना कर दिया। इसके बाद पामेला को चिल्लाते हुए नेहरू ने कहा - पागल लड़की अपनी सैंडल हाथ में लो और लोगों के ऊपर से चढ़ते हुए आ जाओ। पामेला ने नेहरू की बात मानी और वे सैंडल हाथ में लेकर लोगों के सिर पर कदम रखते हुए मंच तक पहुंच गई।

माउंटबेटन बग्घी में कैद हो गए :

पामेला तो पहुँच गईं लेकिन माउंटबेटन बग्घी में कैद हो गए। इतनी भीड़ के बीच से निकलकर जवाहरलाल नेहरु तक पहुंचना उनके लिए नामुमकिन था। उन्होंने नेहरू को आवाज लगाई और कहा - झंडा फहरा दीजिए। इसके बाद नेहरू ने राष्ट्रीय ध्वज फहराया और माउंटबेटन ने बग्घी से खड़े होकर ही सलामी दी।

तिरंगा झंडा फहराते ही माउंटबेटन के जयकारे लगने लगे। वे पहले ऐसे अंग्रेज थे जिन पर भारतीय इतना प्यार लुटा रहे थे। ये सौभाग्य 200 सालों तक किसी अंग्रेज को नहीं मिला था। यही थी 15 अगस्त के दिन की पूरी कहानी। वाकई 15 अगस्त 1947 के दिन का एक - एक क्षण यादगार था, शानदार था...।

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