Bihar bridges: बिहार में पुलों का गिरना: विकास या मजाक? पुलों की कहानी – जब पुल बनते ही नहीं, बस गिरते रहते हैं!
बिहार में पुलों का गिरना अब कोई आश्चर्यजनक घटना नहीं रही। पहले जब पुल गिरते थे तो लोग चौंकते थे, अब बस हाथ जोड़कर कहते हैं, "हे भगवान, इस बार कितने दिन टिकेगा?" वैसे, ये पुल टूटने की घटनाएं सिर्फ इंजीनियरिंग की गलती नहीं हैं, बल्कि ये हमें बताती हैं कि 'अरे यार, थोड़ा सब्र करो! पुल जल्दबाजी में नहीं टिकते, जैसे रिश्ते नहीं टिकते!'
पुल के स्लैब ने अचानक धरती माँ को गले लगाया
समस्तीपुर के बख्तियारपुर-ताजपुर निर्माणाधीन ओवरब्रिज के गिरने की घटना सुनकर शायद पुल ने भी कहा होगा, "भाई, मैं थक गया हूँ, अब आराम कर रहा हूँ!" रविवार की रात का वो पल, जब पुल के स्लैब ने अचानक धरती माँ को गले लगाया, मानो उसने कहा हो, "आओ, मैं भी तुम्हारे साथ थोड़ा आराम कर लूँ।" फिर क्या, कर्मचारी जीसीबी से मलबा दबाने में जुट गए, जैसे एक छोटी सी ग़लती को मिटाने की कोशिश की जा रही हो, लेकिन सबने वीडियो बना लिया! अब मुंगेर के बिचली पुल का किस्सा भी कम दिलचस्प नहीं है। वो ऐसे गंगा में बहा जैसे कोई बच्चा अपनी कागज़ की नाव को बारिश के पानी में बहाता है।
हरिणमार और गोगरी के लोग शायद यही सोच रहे होंगे, "भाई, ये पुल हम पर ही क्यों इतना मेहरबान है?" वैसे नाम 'बिचली पुल' एकदम सटीक रखा गया है, आखिर इतने जल्दी बहने वाला पुल इसी नाम के लायक है! मज़े की बात ये है कि अब सिर्फ पुल नहीं, बिहार के लोगों का विश्वास भी धीरे-धीरे बहता जा रहा है। बिचली पुल" का नाम अब इसकी असलियत को बयान करने लगा है। पुल का नाम सुनकर लगता है कि शायद इसे 'बीच में डगमगाने' के लिए ही बनाया गया था। जैसे, 'बिचली' नाम अब उसकी कमजोरी और अस्थिरता को ही दर्शाने लगा है, क्योंकि यह पुल नदी के बीच में ही डगमगाते हुए गंगा में बह जाता है। लगता है, जैसे यह पुल अपने नाम के अनुरूप काम कर रहा हो, यह नाम और घटना का मेल मज़ाकिया जरूर लगता है, लेकिन इसके पीछे की विफलता और लोगों की कठिनाइयों को अनदेखा नहीं किया जा सकता
पुल गिरने का कारण या कॉन्सपिरेसी थ्योरी?
हर बार की तरह, पुल गिरते ही जिम्मेदार लोग सफाई देने में जुट जाते हैं। इस बार नवयुग इंजीनियरिंग कंपनी के प्रोजेक्ट मैनेजर मोहन सिंह जी ने साफ़ कहा, "कुछ नहीं हुआ है, बस एक स्लैब बदल रहे थे और वो गिर गया।" जैसे कह रहे हों, "अरे ये तो रोज की बात है, क्यों इतना हंगामा कर रहे हो?" लेकिन पुल बदलने की बजाय अगर काम को सही तरीके से किया जाए, तो शायद स्लैब खुद ही गिरने की बजाय वहां टिके रहते। पिछले तीन महीनों में बिहार में इतने पुल गिर गए हैं कि लगता है जैसे पुलों को एक-दूसरे से कंपटीशन हो गया है – "देखो, मैं पहले गिरूंगा!" अब सवाल यह है कि कब तक ये पुल ऐसे ही गिरते रहेंगे? और कब तक लोग इसे मज़ाक समझते रहेंगे?
गंभीर मुद्दा: पुलों की गुणवत्ता पर सवाल
अब बात हास्य से हटाकर गंभीरता की ओर करें। बिहार में पुल गिरने की घटनाएं सिर्फ मज़ाक नहीं हैं, ये सरकार और प्रशासन की गंभीर विफलता को दर्शाती हैं। विकास के नाम पर करोड़ों रुपए खर्च किए जाते हैं, पर जब परिणाम ये हो कि पुल बनते ही गिर जाएं, तो ये आम जनता के साथ मजाक के समान है। सवाल ये है कि क्या ऐसे पुलों से हमारा भविष्य सुरक्षित है? हर बार पुल गिरने के बाद ठेकेदार, इंजीनियर और प्रशासन एक-दूसरे पर दोष मढ़ने लगते हैं, लेकिन असली सवाल ये है कि क्या पुल निर्माण के दौरान सही मानकों का पालन किया गया था? क्या गुणवत्तापूर्ण सामग्री का उपयोग हुआ? या फिर जल्दी पैसा कमाने के चक्कर में हर चीज़ को जल्दबाजी में निपटा दिया गया?
समाधान क्या हो सकता है?
सबसे पहला और आवश्यक कदम यह है कि पुल निर्माण के लिए जिम्मेदार ठेकेदारों और इंजीनियरों को सख्त जवाबदेही में लाया जाए। गुणवत्तापूर्ण निर्माण सामग्री का इस्तेमाल हो और पुल निर्माण के दौरान पूरी सुरक्षा और निगरानी सुनिश्चित की जाए। इसके साथ ही, जनता और सरकार को यह समझने की जरूरत है कि विकास सिर्फ कागजों पर नहीं, बल्कि जमीनी स्तर पर होना चाहिए। बिहार जैसे राज्य में, जहां बाढ़ और नदीयों का भरमार है, पुलों का सही तरीके से निर्माण होना बेहद जरूरी है। ये केवल पुल ही नहीं, बल्कि लोगों की जान और उनके रोजमर्रा के जीवन से जुड़े हुए हैं। पुलों की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए हर स्तर पर पारदर्शिता और ईमानदारी आवश्यक है। तो अगली बार जब बिहार में कोई पुल बने, तो बस यही प्रार्थना करें कि वह पुल थोड़ी देर तक खड़ा रहे, क्योंकि अभी के हालात में तो पुल का गिरना ही आम बात हो गई है। जनता के साथ यह मजाक आखिर कब तक चलता रहेगा?हमें उम्मीद है कि बिहार के लोग एक दिन हंसते हुए नहीं, बल्कि गर्व के साथ कह सकें, "यहां के पुल पक्के हैं।