कांग्रेस ने खोया जनाधार, भाजपा का बढ़ा मत प्रतिशत
ग्वालियर/राजलखन सिंह। प्रदेश में कांग्रेस डेढ़ दशक से सत्ता से दूर है और वापिसी के लिए तरस रही है। सत्ता में काबिज होने के लिए एक-एक मत व प्रतिशत का बड़ा ही महत्व होता है। आज कांग्रेस की जो स्थिति है वह किसी एक चुनाव का नतीजा नहीं बल्कि पिछले तीन दशक से खोते जनाधार की परिणिति है। 1985 के बाद से कांग्रेस का मत प्रतिशत गिरता गया। वहीं भाजपा की बात करें तो उसके मत प्रतिशत में इजाफा हुआ। इन सात चुनावों में भाजपा चार बार एवं कांग्रेस तीन बार सत्ता पर काबिज रही। इस बीच भले ही भाजपा सत्ता से दूर रही पर उसके मत प्रतिशत में ज्यादा अंतर नहीं रहा। 2003 के चुनाव में कांग्रेस की सबसे खराब स्थिति रही। सत्ता विरोधी लहर के चलते पार्टी के हाथों से सत्ता छिन गई और इन सात सालों में सबसे कम 31.61 प्रतिशत ही मत मिले। 1985 में 250 सीटें जीतने वाली कांग्रेस 2003 में 38 सीटों तक सिमटकर रह गई। तभी से वह सत्ता से दूर है।
हालांकि 1993 से 2003 तक दिग्गी की अगुवाई में दस साल सत्ता में रही, लेकिन बंटाधार के नाम से प्रसिद्ध हुए दिग्विजय के बाद कोई सूरमा कांग्रेस की वापसी नहीं करा सका।
निर्दलियों से भी घटता रहा जनता का विश्वास: प्रदेश में कुछ इलाके ऐसे हैं, जहां पर प्रमुख दलों से बगावत कर निर्दलीय प्रत्याशी अपनी ताकत दिखाते रहे हैं। बुंदेलखंड की एक-दो सीट पर निदर्लीय प्रत्याशियों का दबदबा रहा है। अपनों से ही नाराज होकर हर चुनाव में निदर्लीय प्रत्याशी चुनावी वैतरणी को पार करने के लिए उतरे, लेकिन 1985 के बाद इनका भी जनाधार घटा है। 85 में निदर्लीय प्रत्याशियों को 15 लाख मत यानि 10.66 प्रतिशत वोट मिले थे। उसके बाद 1990 में यह बढ़कर 12.22 प्रतिशत हो गया। 90 के बाद से लगातार निदर्लीय प्रत्याशियों को मिलने वाले मतों में कमी आती गई। 2013 के चुाव में महज 5.38 प्रतिशत मत ही प्रत्याशियों को मिले थे।
विभाजन के बाद सत्ता से दूर हुई कांग्रेस: 1998 में दिग्विजयसिंह के नेतृत्व में कांग्रेस दूसरी बार सत्ता पर काबिज हुई। कांग्रेस की सत्ता में ही 2001 में मध्यप्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़ राज्य का गठन हुआ। विभाजन के बाद हुए 2003 के चुनाव में भाजपा ने कांग्रेस से सत्ता हथिया ली। विभाजन के बाद से कांग्रेस सत्ता से लगातार दूर है। वोट प्रतिशत में भी लगातार गिरावट आई है। कभी प्रदेश में सत्ता पर काबिज कांग्रेस अब सत्ता का स्वाद चखने के लिए लालायित है। गुटों में बंटी पार्टी को वापसी करने में काफी कुछ करना होगा। अपनों को साधने के साथ ही जनता का विश्वास भी हासिल करना होगा।
तीसरा विकल्प बनी
बसपा
मध्यप्रदेश में मुख्य मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच रहा। प्रदेश में ज्यादातर समय कांग्रेस की सरकार रही। लेकिन इस बीच बहुजन समाज पार्टी भी अपने पैर पसारती रही और तीसरे विकल्प के रूप में उभर कर सामने आई। 1990 के चुनाव में बसपा को 3.53 प्रतिशत मत मिले, जो उसके लिए किसी संजीवनी से कम नहीं थे। उसके बाद बसपा विंध्य, बुंदेलखंड और ग्वालियर-चंबल संभाग में अपनी जड़ों को और मजबूत करती रही और चुनाव दर चुनाव मत प्रतिशत में भी इजाफा हुआ। 2008 में बसपा ने 22.52 लाख मत के साथ ही अपने प्रतिशत को 8.72 तक बढ़ाया, जो अभी तक मिले मतों का सबसे अधिक है। इसलिए अन्य दल भी बसपा को तबज्जों देने लगे और उसे कम आंकने से कतराने लगे। क्योंकि दोनों प्रमुख दलों को यह भलीभांति पता है कि यह किसी भी प्रत्याशी के जीत का गणित बिगाड़ सकते हैं।