पिटे मोहरे, नाराज सिंधिया, कैसे होगी कांग्रेस की सत्ता वापसी ?
स्वदेश वेब डेस्क। मध्यप्रदेश में सत्ता से बेदखल कांग्रेस अपने जिन क्षत्रपों के बल पर सत्ता में वापसी का सपना देख रही है इसे पलीता लगाने में खुद कांग्रेस के क्षत्रप ही अहम् भूमिका निभाते दिखाई दे रहे हैं । फिर दिग्विजयसिंह द्वारा अपनी कथित चाणक्यनीति से वचनपत्र में संघ पर प्रतिबन्ध का मुद्दा शामिल कराकर कांग्रेस के लिए खड़ी की गई मुसीबतें हो या अरुण यादव की नाराजगी और सत्यव्रत चतुर्वेदी के बगावती तेवर कांग्रेस का मध्यप्रदेश जीतने का सपना ही सपना रहता प्रतीत हो रहा है।
चलिए अब बात करते हैं मध्यप्रदेश में कांग्रेस की चुनावी वैतरणी पार लगाने का दंभ भरने वाले किरदारों की। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को भरोसा हो चला था कि प्रदेश कांग्रेस के क्षत्रप कमलनाथ, दिग्विजयसिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया मिलकर पन्द्रह साल बाद मध्यप्रदेश से कांग्रेस का वनवास न केवल समाप्त करा देंगे बल्कि साल 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव की पटकथा भी लिख देंगे। लेकिन अपने सपनों को तोडऩे की आधारशिला खुद राहुल गांधी ने रख दी। जब टिकिट वितरण के दौरान दिग्विजयसिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया के मध्य विवाद हुआ और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने दिग्विजयसिंह के प्रति नरमी और सिंधिया के प्रति बेरुखी दिखाई। हालांकि अपनी गलती का आभास होते ही राहुल गांधी ने दोनों नेताओं को बैठक से बाहर कर सिंधिया के जख्मों पर मरहम लगाने का प्रयास किया लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। क्योंकि सिंधिया जैसे स्वाभिमानी क्षत्रप के लिए यह असहनीय वाकया रहा। उस पर भी आग पर घी का काम प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ तथा सिंधिया के बीच बढ़ती खाई ने कर दिया।
यहां आपको बताते चले कि कांग्रेस की राष्ट्रीय चुनाव कार्यसमिति की बैठक में कमलनाथ द्वारा खुलकर पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का साथ देते हुए सिंधिया के प्रभाव वाले ग्वालियर-चम्बल और मालवांचल इलाकों के लिए उम्मीदवारों का फैसला करते समय न केवल दखल दी बल्कि सिंधिया समर्थकों की उम्मीदवारी पर कुल्हाड़ी चलवाई। चुनाव में जीतने वाले चेहरों की सिंधिया के लाख कहने के बाद भी अनदेखी की गई। सिंधिया चाहते थे कि पार्टी उन्हीं चेहरों पर दांव खेले जो जीत सकें। यही नही कमलनाथ और दिग्विजयसिंह की जोड़ी ने सिंधिया को इस बात का आभास करा दिया कि भले राहुल गांधी ने उन्हे मध्यप्रदेश में चुनाव अभियानसमिति का अध्यक्ष बनाया है, किन्तु सारा चुनाव प्रबन्धन और उम्मीदवार चयन का अंतिम फैसला लेने में उन्हीं की चलेगी।
इधर पूर्व केन्द्रीय मंत्री सुरेश पचौरी के प्रभाव का उपयोग समूचे प्रदेश में करने की जगह सोची समझी रणनीति के तहत भोजपुर में बांध दिया है। खरगौन से विधानसभा का टिकिट मांग रहे अरुण यादव को न चाहते हुए भी बुधनी में मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चैहान के खिलाफ चुनाव मैदान में उतारकर बलि का बकरा बनाया गया जिससे न केवल स्वयं यादव बल्कि उनके समर्थकों में आक्रोश है, तो यादव जाति के लोग भी इसे अपने स्वाभिमान पर चोट मान रहे हैं। उधर सत्यव्रत चतुर्वेदी ने पुत्रमोह में बगावत का बिगुल फूंक दिया है। मालवांचल में प्रेमचन्द गुड्डू ने कांग्रेस का हाथ छोडक़र मुश्किलें बढ़ा दी हैं, तो प्रदेश कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष जीतू पटवारी द्वारा पार्टी को लेकर कही गई बात ने भी कांग्रेस की सत्ता वापसी की उम्मीदों पर तुषारापात कर दिया है।
कुल मिलाकर एक बात तो साफ है कि चुनाव की रणभेरी बजने से पहले प्रदेश कांग्रेस के क्षत्रपों में पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी ने जो जोश भरने का प्रयास किया था वह अब उडऩ छू हो चुका है। ज्योतिरादित्य सिंधिया प्रदेश में सक्रिय तो हैं लेकिन उन्हीं इलाकों या उन्हीं विधानसभा क्षेत्रों में जहां उनकी पसन्द के उम्मीदवार मैदान में शिवराज की सेना के सामने ताल ठोक रहे हैं। दिग्विजयसिंह गाहे-बगाहे अपनी फितरत के मुताबिक बयान देकर नित नये विवाद खड़े करने का कोई मौका नही चूक रहे हैं। कांग्रेस के वचन पत्र में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सरकारी परिसरों में संचालित शाखाओं पर प्रतिबन्ध लगाने के बहाने कांग्रेस को मुश्किल में डाल दिया है। कमलनाथ अपनी ढलती उम्र के साथ अन्याय करने के बावजूद कोई ऐसा करिश्मा नही कर पा रहे जो कांग्रेस की वैतरणी को पार लगा सके। मतलब अब वही 2013 वाली पुरानी कांग्रेस शिवराज की सेना के सामने खड़ी है जिसके हाथ में शिवराज की सेना को डराने के लिए बन्दूक तो है, लेकिन कारतूस नही। (हि.स.)