हमको प्रकृति से पोषण पाना है, प्रकृति को जीतना नहीं : डॉ मोहन भागवत
नई दिल्ली। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने कहा कि हमारे पूर्वजों ने ही इस सत्य को सबसे पहले समझा कि हम भी प्रकृति का एक अंग हैं। उन्होंने प्रकृति का मानव शरीर से संबंध व इससे संचालित होने वाली प्रक्रियाओं को समझाते हुए कहा कि जिस तरह शरीर के सब अंग काम करते हैं, तब शरीर चलता है। और जब तक शरीर चलता है, तब तक ही शरीर का कोई अंग चल पाता है। शरीर अंगों के कार्य पर निर्भर है, अंग शरीर से मिलने वाली प्राणिक ऊर्जा पर निर्भर हैं। श्री भागवत रविवार को आभासी कार्यक्रम 'प्रकृति वंदनÓ को संबोधित कर रहे थे।
इस अवसर पर श्री भागवत ने कहा कि यह परस्पर संबंध सृष्टि का हमसे है, हम उसके अंग हैं, सृष्टि का पोषण हमारा कर्तव्य है। अपनी प्राण धारणा के लिए हम सृष्टि से कुछ लेते हैं, शोषण नहीं करते, सृष्टि का दोहन करते हैं। यह जीने का तरीका हमारे पूर्वजों ने समझा और केवल एक दिन के नाते नहीं, एक देह के नाते नहीं तो पूरे जीवन में उसको रचा बसा लिया। श्री भागवत ने कहा कि हमारे यहां, स्वाभाविक कहा जाता है कि शाम को पेड़ों को मत छेड़ो, पेड़ सो जाते हैं। पेड़ों में भी जीव है, इस सृष्टि का वो हिस्सा है। आधुनिक विज्ञान का ये ज्ञान हमारे पास आने के हजारों वर्ष पहले से, हमारे देश का सामान्य अनपढ़ आदमी भी जानता है, पेड़ को शाम को छेडऩा नहीं चाहिए।
उन्होंने कहा कि हमारे यहां नागपंचमी है, हमारे यहां गोवर्धन पूजा है। हमारे यहां तुलसी विवाह है, इन सारे दिनों को मनाते हुए आज के संदर्भ में उचित ढंग से मनाते हुए, हम सब लोगों को इस संस्कार को अपने पूरे जीवन में पुनर्जीवित और पुनर्संचरित करना है। जिससे नई पीढ़ी भी उसको सीखेगी, उस भाव को सीखेगी। हम भी इस प्रकृति के घटक हैं। हमको प्रकृति से पोषण पाना है, प्रकृति को जीतना नहीं। हमें स्वयं प्रकृति से पोषण पाकर प्रकृति को जीवित रखना है।
हम प्रकृति को देव मानते हैं, अन्य देशों में ऐसा नहीं है : स्वामी अवधेशानंद गिरि
प्रकृति वंदन कार्यक्रम को संबोधित करते हुए महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरी जी महाराज ने कहा कि हम प्रकृति को देव मानते हैं, अन्य देशों में ऐसा नहीं है। उन्होंने कहा कि हम अग्नि, वायु, जल, धरती, निहारिका, अंबर, नक्षत्रों को देवता मानते हैं। हमारे यहां वृक्ष देव है। घास का तिनका गणपति पूजा में पहले चढ़ता है। फल-फूल, वन्य औषधियां, बेल पत्र, तुलसी, इनके बिना हमारा कोई जीवन नहीं। हमारे उत्सव, मेले, कुंभ स्नान नदियों के किनारे ही सिद्ध होते हैं। हमारी संस्कृति में तीन शब्द हैं - तर्पण, अर्पण, समर्पण। ये सारे नदियों के तट पर ही संपन्न होते हैं।
प्रकृति के संरक्षण का भारत प्रबल पक्षधर रहा है : श्रीश्री रविशंकर
आध्यात्मिक धर्मगुरु श्रीश्री रविशंकर ने अपने संबोधन में कहा कि परमात्मा प्रकृति में उसी तरह लीन हैं, जैसे तिल में तेल होता है। ईश्वर सर्वत्र है, प्रकृति की पूजा ईश्वर की पूजा है। इसलिए, हम सबको प्रकृति का संरक्षण करना आवश्यक है। भारत ने सदियों से यह संदेश पूरी दुनिया को दिया है। यहां के पर्वत, नदियों, वृक्षों में परमात्मा है, सूर्य व चांद में परमात्मा है। जीव-जन्तु में परमात्मा देखना, मनुष्यों में परमात्मा देखना है। ये सुंदर प्रकृति हमारी है। इसके संरक्षण की जिम्मेदारी भी हमारी है। इसलिए हर एक मानव प्रकृति के संरक्षण की प्रतिज्ञा लेनी होगी। तभी भारत पर्यावरण की दृष्टि से दुनिया का आदर्श देश बनकर उभर आएगा।
उन्होंने कहा कि स्वाभिमान जगाने के लिए हमें आत्मनिर्भर होना चाहिए और आत्मनिर्भर बनने के लिए स्वाभिमान जगाना पड़ेगा। स्वाभिमान का एक अंग है हमारी संस्कृति, हम उसे पहचानें और उसका सम्मान करें।
रविवार को आयोजित इस आभासी कार्यक्रम के जरिए परिवारों ने अपने-अपने घर पर, अथवा समीप स्थित बाग में पेड़ या पौधे के समक्ष बैठ कर आरती व वंदन किया। भारत में 582 स्थानों पर प्रकृति वंदन कार्यक्रम किया गया। इसके अलावा विश्व के 15 देश भी प्रकृति वंदन कार्यक्रम से जुड़े। जानकारी के अनुसार 12 लाख से अधिक परिवारों ने प्रकृति वंदन कार्यक्रम के लिए पंजीकरण करवाया था।
पर्यावरण संरक्षण हमारी संस्कृति का आधारभूत मूल्य : मोदी
प्रकृति वंदन कार्यक्रम के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने संदेश में कहा कि पर्यावरण संरक्षण हमारी संस्कृति का आधारभूत मूल्य है। उन्होंने 130 करोड़ भारतीयों के प्रयासों की सराहना करते हुए कहा कि जनता के बीच जागरूकता लाने के लिए निरंतर प्रयास सराहनीय हैं। जैविक विविधता की रक्षा करने हेतु किये जा रहे निरंतर प्रयासों पर प्रधानमंत्री मोदी ने प्रसन्नता व्यक्त की। प्रधानमंत्री ने इस संदेश में कार्य की सराहना और प्रशंसा करते हुए, प्रेरणा के लिए आयोजकों को बधाई दी।