श्रीधर गीता का रूप लेंगी लोकार्पित पुस्तकें
ग्वालियर, न.सं.। कोरोना काल में जब संपूर्ण विश्व में एक भय, निराशा की नकारात्मकता थी, समाज जीवन में अपनी सम्पूर्ण आहूति देने वाले एक साधक ने अपनी लेखनी के माध्यम से दो पुस्तकों का सृजन किया। आज अवसर उन्हीं के लोकार्पण का था। सृजनकर्ता थे अखिल भारतीय साहित्य परिषद के राष्ट्रीय संगठन मंत्री श्रीधर पराड़कर जी। मध्य भारत हिन्दी साहित्य सभा के सभागार में आयोजित एक गरिमामयी आयोजन में आज मूर्धन्य साहित्यकार श्री पराड़कर जी द्वारा रचित 'साहित्य का धर्मÓ एवं 'इतिहासÓ का लोकार्पण हुआ। पहली पुस्तक में जहां साहित्यकारों के कर्तव्य, प्रतिबद्धताओं का विस्तार से वर्णन हैं। वहीं दूसरी पुस्तक इतिहास में साहित्य परिषद के जन्म से लेकर अब तक का इतिहास है। इस अवसर पर समीक्षकों व अतिथियों ने पुस्तकों की भूरि-भूरि प्रशंसा करने के साथ ही कहा कि यह पुस्तकें कालांतर में श्रीधर गीता का रूप लेंगी और युगों-युगों तक साहित्य सभा के इतिहास एवं कार्यों को बताती रहेंगी। कार्यक्रम के दौरान श्रीधर पराड़कर जी का शॉल-श्रीफल भेंटकर सम्मान किया गया।
मुख्य अतिथि वीर काव्य के राष्ट्रीय कवि बलवीर सिंह 'करुण ने साहित्यिक संस्थाओं पर दोहरे चरित्र के व्यक्तियों की पैठ पर चिंता व्यक्त की और राष्ट्रविरोधियों में भेदभाव करने की सलाह दी। उन्होंने भारतीय संस्कृति को गंगा-यमुना तहजीब न मानकर एक ही संस्कृति कहा और बताया कि इसी संस्कृति धर्म का पालन इन कृतियों में किया गया है। श्री करुण ने कहा कि देशभर में 99 प्रतिशत कम्युनिस्ट ही छाए हैं। पाठ्यक्रम से लेकर साहित्यिक संस्थाओं में भी ये ही घुसपैठ बनाने में सफल हो जाते हैं। देश में लंबे समय तक राज करने वाली कांग्रेस की एक बड़ी कमजोरी यही थी कि उसके पास साहित्यक चिंतन शैली के विचारक नहीं होने के कारण उसने ज्यादातर संस्थाओं में इन्हीं कम्युनिस्टों को बैठा दिया था। यही कारण है कि साहित्य में कम्युनिस्टों को ज्यादा संख्या में प्रकाशन उपलब्ध हो जाते हैं। बिरला खानदान का 'बिहारी पुरस्कारÓ इसका ताजा उदाहरण है। अध्यक्षता कर रहे अखिल भारतीय साहित्य परिषद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष व लखनऊ विवि के कुलपति डॉ. सुशील द्विवेदी ने साहित्य के भाव के साथ साहित्यकारों को अपने लेखकीय धर्म का पालन करने की बात कही और अपने लेखकीय धर्म के उत्कृष्ट पालन के लिए श्रीधर पराड़कर जी को महात्मा की संज्ञा से विभूषित किया। इस दौरान सुरेन्द्र ठाकुर का सम्मान किया गया। संचालन डॉ. कुसुम भदौरिया एवं आभार साहित्य सभा के अध्यक्ष वसंत पुरोहित ने व्यक्त किया। इस दौरान स्वामी सुप्र्रदीप्तानंद महाराज, वरिष्ठ साहित्यकार जगदीश तोमर, कृष्णमुरारी शर्मा, संध्या शुक्ला, स्वदेश के समूह संपादक अतुल तारे, राकेश जादौन, बृजेन्द्र सिंह जादौन, पदमा शर्मा, डॉ. उर्मिला तोमर सहित साहित्यकार व प्रबुद्धजन उपस्थित रहे।
समर्पित भाव से लिखा साहित्य समाज को देता है दिशा
लेखकीय वक्तव्य देते हुए श्रीधर पराड़कर जी ने सभी अतिथियों व वक्ताओं के प्रति आभार व्यक्त किया और कहा कि साहित्यकार को अपने कर्तव्य, अपने मान-सम्मान व गरिमा के प्रति समर्पित होना चाहिए। समर्पित भाव से लिखा गया साहित्य देश व समाज को नई दिशा देने का काम करता है। गीता प्रेस गोरखपुर को रामायण व अन्य ग्रंथ बेचने के लिए विज्ञापन नहीं निकालने पड़ते। स्वत: ही इन ग्रंथों की बिक्री होती है। इसलिए साहित्य अच्छा लिखा जाएगा तो वह समाज तक पहुंचेगा और उसके प्रचार-प्रसार की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। परिषद के राष्ट्रीय महामंत्री डॉ. ऋषि कुमार मिश्रा ने कहा कि 2016-17 में जब संस्था के 50 साल पूरे हुए थे तब तय हुआ कि संस्था का इतिहास लिखा जाए। आज काकाजी ने कोरोनाकाल का लाभ उठाकर इस पुस्तक का लेखन किया, जो एक अनुकरणीय कार्य है। इतिहास पहला ऐसा ग्रंथ हैं जो किसी साहित्यिक संस्था के इतिहास को बताता है तथा साहित्यकारों की नीति समझाकर साहित्य के धर्म के पालन की बात करता है। एक साहित्यिक संस्था साहित्य के क्षेत्र में सिरमोर कैसे बनी है, उसके स्थापना काल से लेकर आज तक के कार्यों का बखूबी वर्णन इस पुस्तक में किया गया है।
काकाजी ने साहित्य लेखन में प्रदान किया है पाथेय
पुस्तक साहित्य का धर्म की समीक्षा डॉ. कुमार संजीव ने की तथा इसे कोरोना काल में एक साहित्यकार की बेचैनी का परिणाम बताया। उन्होंने कहा कि भारतीय ज्ञान परम्परा से लोक परम्परा तक 18 अध्यायों में पुस्तक का कलेवर गीता के समतुल्य है। यह ऐसा नहीं इसका संकलन है। इस कालखंड में 18 अध्याय हैं, जो हमें प्रेरणा देते रहेंगे। काकाजी जब विषय रख रहे होते हैं तो वह इस धरा में नहीं रहते। उनके अंदर एक आलौकिक शक्ति आ जाती है। उन्होंने साहित्य के लेखन में हमें पाथेय प्रदान किया है। कालांतर में यह दोनों पुस्तकें श्रीधर गीता का रूप लेंगी और युगों-युगों तक पढ़ी जाती रहेंगी। पुस्तक इतिहास की समीक्षा करते हुए अखिल भारतीय साहित्य परिषद उत्तर प्रदेश के महामंत्री डॉ. पवनपुत्र बादल ने कहा कि पुस्तक का प्रथम भाग साहित्य परिषद का विस्तृत इतिहास है वहीं दूसरा भाग निर्देशों का है, जो साहित्यकारों को साहित्य की मर्यादा और धर्म की सीख देकर सभ्य समाज की नीव को मजबूती प्रदान करता है। पराड़कर जी की दोनों कृतियां समाज को उनका अमूल्य हैं, जो वंदनीय है।