राजमाता से लोकमाता बनीं विजयाराजे को शत-शत नमन
ग्वालियर, न.सं.। राजमाता विजयाराजे सिंधिया भले ही राजपरिवार में जन्मीं किंतु दीन-दुखियों के दर्द को दूर करने और सामाजिक, धार्मिक एवं राजनीतिक गतिविधियों में सक्रियता के कारण वे राजमाता से लोकमाता बन गईं। उन्होंने अपना राजनीतिक जीवन कांग्रेस से शुरू किया और बाद में वे जनसंघ जुड़ गईं और भारतीय जनता पार्टी की स्थापना कर ऊंचे आयाम स्थापित किए। उनके द्वारा किए सेवा कार्यों को आज भी याद किया जाता है। राजनीति को उन्होंने कभी भोगा नहीं और आजीवन सेवा एवं पुण्य कार्य में लगी रहीं। यही कारण है कि उनके ऊपर दलगत राजनीति करने का ठप्पा नहीं लगा। क्योंकि संसद में भले ही विरोधी दलों के खिलाफ एक-दूसरे पर प्रहार किए गए हों किंतु बाहर आते ही यह सभी आपस में मित्रवत ही रहे। राजमाता विजयाराजे सिंधिया से जुड़े उनके परिवारजनों एवं वरिष्ठ राजनीतिज्ञों ने कई पुराने प्रसंग स्वदेश के साथ साझा किए हैं।
एक झटके में गिरा दी थी डीपी मिश्र की सरकार
पूर्व राज्यपाल एवं वरिष्ठ भाजपा नेता प्रो. कप्तान सिंह सोलंकी कहते हैं कि श्रद्धेय राजमाता जी समृद्ध तथा राजपरिवार से थीं। महारानी होने के पश्चात् भी देश में स्वतंत्रता के बाद उन्होंने जनउत्थान एवं जनसेवा के लिए अपना संपूर्ण समय लगा दिया। वह सीधे राजनीति में नहीं जाना चाहती थी लेकिन पं. जवाहर लाल नेहरू के आग्रह तथा दबाव के कारण और ग्वालियर के राजा श्रीमंत जीवाजी राव सिंधिया के आग्रह पर वह चुनाव के मैदान में उतरीं। लेकिन कांग्रेस की राजनीति उनके मन और प्रकृति के अनुकूल नहीं थी और वह उस समय चरम पर पहुंची जब 1967 में मध्यप्रदेश के अंदर डॉ. द्वारकाप्रसाद मिश्र के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी और डॉ. द्वारका प्रसाद मिश्र एक तानाशाह के रूप में उस समय के राजा-महाराजाओं, विद्यार्थियों और किसानों पर अमानवीय व्यवहार कर रहे थे। यहां तक कि राजा बस्तर की गोली से मृत्यु करवा दी गई थी। ग्वालियर में विद्यार्थी आंदोलन प्रारंभ हुआ। उस आंदोलन को दबाने के लिए गोलीकांड हुआ और आज के महारानी लक्ष्मीबाई कला एवं वाणिज्य उत्कृष्ट महाविद्यालय के हरिसिंह-दर्शनसिंह दोनों छात्रों का बलिदान हुआ। उसी समय डॉ. द्वारका प्रसाद मिश्र ने विधानसभा में राजाओं के खिलाफ भाषण दिया और उसके परिणाम स्वरूप राजमाता ने कुछ कांग्रेस के विधायकों के साथ पार्टी छोड़ दी और संयुक्त विधायक दल जनसंघ के साथ बनाकर डॉ. गोविन्द नारायण सिंह के नेतृत्व में मध्यप्रदेश में पहली संवित सरकार बनाई। इसलिए मध्यप्रदेश में राजनैतिक क्षेत्र में उन्होंने एक नई दिशा दी और जनसंघ ज्वाइन करके उसके माध्यम से मप्र में आखिरी तक राजनैतिक और सत्ता का केन्द्र बनी रहीं। उनके प्रयास जो जनहित में किए गए वे आज भी हम सबके लिए अनुकरणीय है।
अटल-आडवाणी ने बनाया था जनसंघ का अध्यक्ष
राजमाता जी के भाई एवं पूर्व मंत्री ध्यानेन्द्र सिंह बताते हैं कि एक बार राजमाताजी को जनसंघ का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने की दृष्टि से 1972 में स्वयं अटलजी और आडवाणी जी उनके पास आए, राजमाता से दोनों नेताओं ने चर्चा की। राजमाता ने कहा कि मुझे एक दिन का समय चाहिए। राजमाता आध्यात्मिक भी थीं, वे दतिया पीताम्बरा पीठ गईं, अपने गुरु जी से चर्चा की और लौटीं तो उन्होंने अटलजी और आडवाणीजी से कहा कि वे भारतीय जनसंघ की सेवा एक कार्यकर्ता के रूप में सदैव करती रहेंगी। उन्हें पदों के प्रति कभी आकर्षण नहीं रहा। राजमाता साहब ने भारतीय राजनीति में महिला के नाते देश में एक आदर्श कायम किया। उनकी राष्ट्रहित के प्रति जागरुकता ने ही उन्हें राजमाता से लोकमाता बनाया। भारतीय जनसंघ से भाजपा तक उनकी यात्रा में उनेक उतार-चढ़ाव आए, पर उन्होंने अपने सिद्धांत और विचारधारा के प्रति जो समर्पण रहा उसे कभी नहीं छोड़ा।
जब वृद्धा को घोड़े पर बैठाया
पूर्व मंत्री एवं राजमाता जी की भाभी श्रीमती माया सिंह कहती हैं कि राजमाता जी सरलता, सहजता और संवेदनशीलता की त्रिवेणी थीं। वे वात्सल्य की धनी थीं और ममतामयी थीं। उनके समर्पण की भावना ने आज हम सबको समाजसेवा की बड़ी सीख दी है। उन्होंने राजमहलों के वैभव को त्यागकर गरीबों व अभावग्रसत लोगों की सेवा ही नारायण की सेवा माना। हम सबको उनके जीवन से प्रेरणा लेकर उनके बताए आदर्शों पर चलने का संकल्प लेना चाहिए। वे राजमाता होते हुए सदैव लोकमाता के मार्ग पर चलीं। यही कारण है कि देश ने उन्हें लोकमाता के रूप में स्वीकार किया। एक प्रसंग मुझे आज भी याद है कि एक बार राजमाता जी केदारनाथ की यात्रा पर गईं और वे यात्रा शुरू करने वालीं थी तभी उन्हें एक महिला दिखाई दी जो काफी वृद्ध थी और उनका जत्था आगे निकल गया था। वे कंबल ओढ़े ही लेटी थीं, महिला के पास न तो पैसे थे और वह इतनी स्वस्थ भी नहीं थी कि पैदल चढ़ पातीं। तभी राजमाता ने वृद्धा को एक हजार रुपए दिए और घोड़े वाले को बुलाकर उसमें बैठा दिया। बाद में जब परिचय प्राप्त किया तो पता चला कि उक्त महिला उरई की है। उनका सहजभाव देखकर महिला गदगद हो गई और भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगीं। राजमाता जी सेवा के ऐसे कई उदाहरण हैं।
तीन घंटे चर्चा कर कराया समाधान
भाजपा के वरिष्ठ नेता वैद्य गजेन्द्र गड़कर पुरानी यादें ताजा करते हुए बताते हैं कि वर्ष 1985 की बात है उस समय भाऊसाहब पोतनीस महापौर और मैं नगर निगम में चेयरमैन हुआ करता था। तत्कालीन मुख्यमंत्री मोतीलाल बोरा ने अनुदान बंद कर दिया था और किसी भी विकास कार्य के लिए पैसे नहीं दे रहे थे। जबकि विश्व बैंक से लिए गए कर्ज का भुगतान निगम को करना पड़ रहा था। ऐसे में निगम की हालत काफी खस्ता थी। जिस पर राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने हमें महल बुलाया और पूर्व सांसद नारायण कृष्ण शेजवलकर, संभाजीराव आंग्रे एवं भाऊ साहब पोतनीस के साथ तीन घंटे चर्चा कर एक-एक विषय पर जानकारी ली। फिर उन्होंने यह बात मुख्यमंत्री बोरा तक पहुंचाकर इस विषय का समाधान कराया। राजमाता के प्रयासों के से अनुदान फिर से शुरू हो सका।
बीमार होने के बाद भी करती रहीं सेवा
राजमाता विजयाराजे सिंधिया की पुत्री एवं खेल मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया ने राजमाता की जन्मशती के समापन अवसर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा 12 अक्टूबर को किए जा रहे 100 रुपए के सिक्के के अनावरण पर उनका हृदय से आभार माना है। वे कहती हैं कि मेरी मां ही मेरी प्रेरणा हैं। मां अम्मा महाराज राजमाता विजयाराजे सिंधिया के बताए मार्ग पर चल उनके सिद्धांतों का अनुशरण कर मैं अपने भीतर एक नई ऊर्जा और शक्ति का संचार महसूस करती हूं। मां तुझे प्रणाम। वे कहती हैं कि अम्मा महाराज जब चुनावी दौरे पर जाती थीं और वापस लौटती थीं तब उनके पैरों में छाले पड़ जाते थे। मधुमेह से पीडि़त होने के बाद भी वह महल में आराम करने की बजाय इन दौरों को नहीं छोड़ती थीं। इसमें कहीं न कहीं उनकी जनता के प्रति जनसेवा का भाव रहता था। यही कारण है कि वे राजमाता से लोकमाता बन गईं। राजनीति में उन्होंने नए आयाम स्थापित किए। इसीलिए उन्हें आज भी श्रद्धा के साथ याद किया जाता है।
मतभेद भूलकर विरोधियों को भी गले लगाया
राजमाता विजयाराजे सिंधिया के पौत्र एवं राज्यसभा सदस्य ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कहा है कि भाजपा को स्थापित करने में बड़ी हस्तियों में शुमार जनहितैषी मेरी आजी अम्मा श्रद्धेय राजमाता जी की स्मृति को चिर स्थायी बनाए रखने मान. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को हृदय से आभार। पूज्य राजमाता और भारतरत्न अटल जी, मेरे पिता पूज्य माधवराव सिंधिया जैसे महापुरुष ग्वालियर ने दिए हैं। यह संसद में विरोधियों के समक्ष प्रहार करते थे। किंतु बाहर आने के बाद राजनीतिक मतभेद भूलकर एक-दूसरे से गले भी मिला करते थे। यह शुचिता की राजनीति का परिचायक है, जो राजमाता साहब ने स्थापित किए। उन्होंने ग्वालियर के लिए मन में कई सपने संजोए, जिन्हें समय-समय पर पूर्ण किया गया।