हाईकोर्ट के बाद सुप्रीम कोर्ट ने उठाये मप्र में निचली अदालतों पर सवाल

हाईकोर्ट के बाद सुप्रीम कोर्ट ने उठाये मप्र में निचली अदालतों पर सवाल
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सुप्रीम कोर्ट ने खारिज की पोक्सो आरोपियों की जमानत

ग्वारलियर/शिवपुरी। मप्र की निचली अदालतों के कामकाज पर गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं। पिछले एक सप्ताह में प्रदेश के दो सेशन कोर्ट की कार्रवाई पर मप्र उच्च न्यायालय एवं सुप्रीम कोर्ट ने गंभीर टिप्पणी की है। उच्च अदालतों का मानना है कि आरोपियों को जमानत देने से लेकर जमानत खारिज करने जैसे मामलों में स्थानीय अदालतों ने जिस तरह के निर्णय पारित किए हैं उसने न्याय के समावेशी उद्देश्य को कटघरे में खड़ा कर दिया है।

ग्वालियर हाईकोर्ट ने विदिशा के निर्णय पर सवाल उठाए -

विदिशा की तृतीय अतिरिक्त अपर सत्र न्यायाधीश वंदना जैन को सलाह देते हुए न्यायमूर्ति दीपक कुमार अग्रवाल ने 29 मार्च को दिए निर्णय में कहा कि "भविष्य में कानून के प्रावधानों औऱ जांच के दौरान एकत्र किए गए साक्ष्यों के माध्यम से आदेश पारित करें और जमानत आवेदन को आंख बंद करके अस्वीकार न करें।" विदिशा के देवेंद्र लोधी बनाम मप्र राज्य के इस मामले में ग्वालियर हाईकोर्ट ने आवेदक को जमानत देने के साथ जो टिप्पणी की वह बहुत ही महत्वपूर्ण है।

हाईकोर्ट ने कहा- "इस न्यायालय के पास दिन प्रतिदिन का अनुभव है कि निचली अदालतें मामले के गुण दोष पर ध्यान दिए बिना आरोपी की जमानत अर्जी को आंख मूंदकर खारिज किये जा रही हैं। यह बहुत चिंता का विषय है कि पूरे राज्य में सेशन कोर्ट स्थापित होने के बावजूद दूरस्थ औऱ निर्जन क्षेत्र में रहने वाले व्यक्तियों को न्याय प्राप्त करने के लिए इस प्रकार के छोटे मोटे मामलों में हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ता हैं।" विदिशा का यह मामला मामूली मोटरसाइकिल चोरी से जुड़ा था।

कटनी में पोक्सो के आरोपियों को 14 दिन में जमानत -

सुप्रीम कोर्ट ने भी सोमवार को मप्र के ऐसे ही एक मामले में निचली अदालत पर गंभीर सवाल उठाए हैं। कोर्ट ने मप्र हाईकोर्ट के जमानत रद्द करने के आदेश में हस्तक्षेप करने से भी इनकार कर दिया। कटनी जिले में एक नाबालिग बालिका के साथ उसके चाचा और उसके दोस्त ने छह साल तक यौन उत्पीड़न किया। पिछले दिनों इस मामले में एफआईआर हुई लेकिन आरोपियों को महज 14 दिन के अंदर स्थानीय अदालत से जमानत हासिल हो गई। सुप्रीम कोर्ट ने आरोपियों की जमानत रद्द करने के मप्र हाईकोर्ट के निर्णय में हस्तक्षेप से इंकार करते हुए पीड़िता के पक्ष में निर्णय सुनाया। पीड़िता की ओर से सुप्रीम कोर्ट में पैरवी शिवपुरी निवासी निपुण सक्सेना ने की।

न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति बेला त्रिवेदी की खंडपीठ ने कहा कि "निचली अदालत ने अपराध और सजा की गंभीरता एवं एफआईआर में आरोपों की अनदेखी की थी, जोकि बेहद गंभीर प्रकृति के है।" इंदिरा जयसिंह औऱ निपुण सक्सेना ने इस मामले में जमानत अर्जी को खारिज करने का अनुरोध किया था जिसे। दरअसल, ये मामला साल 2013 से 2019 के बीच का है। 2013 में पीड़िता की उम्र 9 वर्ष थी। उस समय से लेकर 2019 तक लगातार 6 साल तक आरोपी चाचा द्वारा लगातार पीड़िता का यौन शोषण किया गया। पीड़िता के सीआरपीसी की धारा 164 के तहत दर्ज बयानों के अनुसार, जब वह छठी कक्षा में थी, तब आरोपी और उसके दोस्त ने घर पर बारी-बारी से उसके साथ दुष्कर्म किया।

केस दर्ज होने के बाद पोक्सो अधिनियम के तहत कटनी की विशेष अदालत ने आरोपियों को 14 दिन के अंदर ही जमानत दे दी। स्पेशल कोर्ट ने जमानत देते हुए कहा था कि दोनों आरोपी छात्र हैं और उच्च शिक्षा ले रहे हैं, उनके खिलाफ पहले से कोई आपराधिक प्रकरण भी दर्ज नहीं है। इसके बाद पीड़ित पक्ष ने मप्र हाईकोर्ट में जमानत रद्द करने की अपील की थी जिस पर न्यायालय ने जमानत रद्द कर दी।

आरोपियों ने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की। सुप्रीम कोर्ट ने कटनी कोर्ट के जमानत आदेश पर एक तरह से आश्चर्य जताते हुए आरोपियों को कोई राहत देने से इंकार ही नहीं किया बल्कि कई गंभीर सवाल भी उठाए हैं।

यह चयन प्रक्रिया पर भी सवाल है- सुनरया

जिला न्यायाधीश के पद पर रहे ओमप्रकाश सुनरया ने ऐसे मामलों पर टिप्पणी करते हुए कहा कि न्यायालयों में भर्ती, प्रशिक्षण और पदोन्नति सब कुछ उच्च अदालतें ही निर्धारित करती हैं इसलिए निचली अदालतों की कार्यपद्धति के लिए अंततः उन्हेंं भी अपनी जबाबदेही समझनी होगी।

प्रशिक्षण और भर्ती प्रक्रिया में सुधार हो-निपुण

सुप्रीम कोर्ट में कई चर्चित मामलों से जुड़े अधिवक्ता निपुण सक्सेना भी मानते है कि निचली अदालतों में भर्ती, प्रशिक्षण के स्तर पर गुणात्मक उन्मुखीकरण की आवश्यकता है। कुछ समय पहले तक ऐसे मामलों में जजों को विधि संस्थान में सरकार या निजी खर्चे पर प्रशिक्षण के लिए भेजा जाता रहा है।

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