चार धाम - लघु कथा

श्याम चौरसिया

चार धाम दर्शन, हज यात्रा सानंद सम्पन्न करने वाली विभूतियां लोभ, लालच, निंदा, कूट रचना, हिंसा,वाणी हिंसा, भेद भाव, असत्य पर निंदा, दुराभाव, आदि मानवीय विकारों, से मुक्ति पाने का प्रयास करती है। भगवत भजन या नैतिक, मानवीय धर्म के पालन में खुद को समर्पित कर देती है। मगर साहब ये कलयुग है। कलयुग ने चारधाम ओर हज के मायने बदल दिए। चारधाम, हज यात्रा का उत्सव खत्म होने से पहले ही हेमा ने यात्रा के सहयात्रियों के आचरण और उनके व्यवहार की निंदा का श्रीगणेश कर दिया। दर्शनों में आई कठनाइयों ओर भोजन की गुवत्ता के नुक्स निकाल ईश्वर के वरदान को झुठला दिया। दरअसल चारधाम यात्रा को पंच तारा पर्यटन मॉन रही थी हेमा।

यात्रा चाहे धार्मिक हो या सामाजिक, व्यपारिक, राजनीतिक, पारिवारिक। जिसको जैसा देश वैसा भेष में ढलने की कला आती है। उसको पल, प्रतिपल, कदम कदम पर आनंद मिलता है। कमाल नजरिये का है। घोर असुविधाओं, विषमताओं में सुविधा तलाशने वाले कर्मयोगी से कम नही होते। हेमा यही मात खाती आ रही थी। उसकी तमाम पुण्याई सूखे कुए में डूब जाती। हेमा ने आज तक ये नही सोचा। उसके साथ क्यो परिजन जाने से कतराते है? क्यो अकेली भेज उसकी यात्रा की ललक का रास्ता साफ केर देते। रोड़ा बन इच्छाओ का दमन नही करते।

हेमा ने चार धाम यात्रा के प्रताप को खूंटी पर टांग दिया। निंदा, वाणी निंदा, वाणी हिंसा, भेदभाव, घृणा, असत्य, दुराभाव के बकासुर को रोज अमृत पान कराती। रोज किसी न किसी मे बात-बेबात कमियां निकाल बबाल मचाना आदत बन चुका था। कान पक्के न होकर बहुत कच्चे। कलह के तांडव के लिए कच्चे कान जिम्मेदार होते ही है। यदि हेमा का मन शुद्ध, स्वात्विक, गंगा न सही कावेरी भी होता तो चार न सही एक या दो धाम का पुण्य अवश्य मिलता।

कर्म, आचरण के मामले में प्रेमा सो टच थी। मजाल उसने कभी सामूहिक तो छोड़ो अकेले में किसी की निंदा की हो। किसी परिजन या पड़ोसी में कमियां निकली हो।कलह के असुर को देहरी के अंदर आने दिया हो। उसकी सदा बहार मुस्कान,तनाव रहित चेहरा मोहरा ही चार धाम यात्रा के पुण्य, प्रताप का यशोगान करती लगती थी। जबकि चार धाम तो छोड़ो उसने स्थानीय देवालयों के दर्शन भी नही किए थे। उसका मन चंगा था। नतीजन गंगा ने उसे घाट बना लिया था। वह घाट जिस पर बैठ डुबकी लगाई जाती है।

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