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झूले: सावन में उन्मत्त करने वाला वसंत
कचनारिया/श्याम चौरसिया। कुल 1200 की आबादी के ग्राम कचनारिया के स्कूल परिसर में डले झूले पर लडकिया ओर युवतियां झूल सावन से भींगे गीत गा रही थी।गांव में दो झूले ओर डले थे। मगर अभी वे खाली थे। शायद झूलने के लिए वक्त नही निकाल पाई थी, युवतियां। कचनारिया की तरह ही खजुरिया, खुरी, अरनिया,मोई आदि गांवों में भी मंदिर,स्कूल, चौपाल में झूले डल चुके थे। जन्माष्टमी तक झूले डले रहेंगे। जिसका मन होगा। वो सावन को सार्थक करने झूलने का आनंद लेने लगेगा। खास ये है कि झूलते समय बालिकाए,युवगिया गीत अवश्य गाती है।
शायद ही किसी गांव में अब अमराइया बची होंगी। कही किसी चौपाल,मंदिर,स्कूल में पीपल, नीम, बबूल के दी चार पेड़ दिख जाए तो बहुत है। गांव भी अब शहरों की तरह कांक्रीट के जंगलों में बदलते जा रहे है। प्रधानमंत्री आवासों की माया ने हर आम ओ खास की तस्वीर बदल दी। शहर की मशीनी जिंदगी में सावन के झूलों के दर्शन दुर्लभ है। मगर गांवो में इस सनातन परम्परा को शौकीनों ने जिंदा रख रखा है। मौजूदा पीढ़ी शायद ही इस परम्परा को सुरक्षित रख पाए। वजह। शहरी रंगीनियों का स्वाद लगना। कान्वेंट स्कूलो की शिक्षा की होड़।यदि आदमियों की भूख पेड़ो पर कुल्हाड़ियां न चलाती तो अमराइया जिंदा होती। ग्रामीणों को अस्पतालों का मुह न देखना पड़ता।