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झोला छाप डॉक्टरों को मप्र सरकार ने पद्मश्री से नवाजा
सागर/ श्याम चौरसिया। कोरोना महामारी काल मे अमेरिका आदि विकसित देशों के मुकाबले भारत को श्मशान में बदलने से बचाने में अभूतपूर्व योग देने वाले झोला छाप डॉक्टरों के योगदान ओर अस्तित्व को मप्र सरकार ने कबूल करते हुए रूरल मेडिकल प्रैक्टिसनर के खिताब से नवाज दिया। अब वे झोला छाप के कलंक से मुक्त हो सम्मानित हो गए।
मप्र ही नही सारे भारत के करीब 06 लाख ग्रामों में एक एमबीबीएस के मुकाबले बेहत्तर, विश्वसनीय,सस्ती,सुलभ चिकित्सा सुविधा सुलभ कराने वाले इन डॉक्टरों के मुरीद लगभग हर ग्रामीण होता है।एमबीबीएस जितनी फीस वसूलते है। उतने में तो ये 04-06 मरीजों को चंगा कर देते है।कोरोना काल मे तो इनने कमाल ही कर दिया। बिना किसी छुआ छूट,भेदभाव के चंद दिनों में अपने ही घर में या किसी बरामदे में मरीज को भर्ती करके इलाज किया। नामी गिरामी नर्सिंग होम में लाखों स्वाहा करने के बाबजूद जिंदा बहुत कम लौटे। मगर इन झोला छाप ने 01 हजार से भी कम में कोरोना को काबू में करके लाखों लोगों को बचा लिया। यह एक शोध का विषय है। हालांकि अपवाद भी है। बहुत से ठीक भी नही हो सके।मगर मंहगे नर्सिंग होम से तुलना करने पर झोला छाप आर्थिक नजरिये से 21 ही बैठेंगे।
झोला छाप अभी आरएमपी नही है। 40%से अधिक 08 पास, या किसी एमबीबीएस के चेले या जुगाड़ी भी है। ये हल्की फुल्की बीमारी का इलाज कर देते है। गम्भीर को किसी बड़े डॉक्टर के पास भेज कर्तव्य निभा लेते है। कोरोना काल के अलावा अन्य समय भी शिकायत मिलने पर प्रशासन झोला छाप पर दबिश देते है। जिला चिकित्सालय के सूरमाओं को ये होली,दीपावली पर नजराना पेश करके वरदान पा लेते है।ग्रामों में ये रसूखदार की सेवा करने का मौका नही चूकते। खिलाफत में जबान न खोले। बतौर मंत्र रसूखदार से पारिवारिक,सामाजिक रिश्ता गांठ लेते है। बदले में कोई इनकी तरफ कोई आंख उठा के देखने की हिम्मत नही करता।