दिल्ली दंगे कोई फिल्मी सीन नहीं, आखिर क्यों न हो सफूरा से सवाल?
नई दिल्ली। दिल्ली दंगों को लेकर दिल्ली पुलिस अपनी जांच को जैसे-जैसे आगे बढ़ा रही है, दंगाइयों के कृत्य व आरोपितों के साक्ष्य भी काई की तरह साफ होते नजर आ रहे हैं। साक्ष्य बताते हैं कि दंगाइयों ने किस तरह योजनाबद्ध तरीके से निर्दोष लोगों की निर्मम हत्या को अंजाम दिया। करोड़ों की संपत्ति तहस-नहस हो गई। लोग बेराजगार हो गए। किसी ने अपने सहारों को खो दिया तो कई अनाथ हो गए। लेकिन, बावजूद इसके वामपंथी गिरोह के लोग और तथाकिथित उदारवादी मीडिया गेंग दंगाइयों के कृत्यों पर पर्दा डालने में लगे हैं। इसके लिए इन्होंने गर्भवती सफूरा जरगर को ढ़ाल बनाकर एक बार फिर भारत की छवि बिगाडऩे की कोशिशें तेज कर दी हैं। अब, मातृत्व भावना को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं। क्या कारण है कि उदारवादी गिरोह के लोग कभी आतंकवादियों का व्यवसाय खोजते नजर आते थे, अब सफूरा के लिए स्कॉलर जैसे शब्द गढ़ रहे हैं?
गृह मंत्रालय की सख्ती के चलते दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा ने मामले में सक्रियता दिखाते हुए जिस तरह ताबड़तोड़ कार्रवाई की। इसे लेकर, वामपंथी गिरोह के लोग प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से उल्टी हवा बहानी शुरू कर दी है। गिरोह के लोग अब दुस्प्रचार कर रहे हैं कि नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ हुआ प्रदर्शन शांतिपूर्ण था तथा इसे आयोजित करने वाले लोगों की मंशा भी साफ थी। अब इसी कथन को खींचते-खींचते आरोपितों की रिहाई की माँग भी कर रहे हैं। इसी कड़ी में एक नाम सफूरा जरगर का भी है, अंतर बस इतना है कि सफूरा वर्तमान में गर्भवती है। सफूरा पर भी पिंजड़ा तोड़ की सदस्य देवांगना और नताशा के समान संगीन व गंभीर आरोप हैं। सवाल इसी बात को लेकर है कि सफूरा के गर्भवती होने से क्या उसका अपराध कम हो जाएगा? सजा कम करने के बजाए उसे स्वास्थ्य सेवाएं जरूर दी जा सकती हैं। इसी तर्क को आधार मानते हुए अदालत ने भी सफूरा को जमानत नहीं दी। और वो इस समय तिहाड़ जेल में है।
पुलिस और कानून की सख्त निगरानी के चलते वामपंथियों ने अब मीडिया गैंग को उतार दिया है। द वायर ने भारत में मातृत्व प्रेम को अलग-अलग बताकर उस पर सवाल उठा दिए। जिसमें भारत में मातृत्व की परिभाषा को सफूरा जरगर के हालातों से तोल दिया गया । हाल ही में विस्फोटक खिलाकर हथिनी को मारने वाली घटना को भी इससे जोड़ दिया। यह तो समझ में आता है कि हथिनी और सफूरा दोनों गर्भवती हैं। हथिनी के प्रति लोग संवेदनाएं जाहिर कर रहे हैं लेकिन सफूरा के साथ नहीं। अदालत ने भी सफूरा को जमानत नहीं दी। जिस समय हथिनी गर्भवती थी और उसके साथ इस अमानवीय कृत्य को अंजाम दिया गया, उस वक्त अगर वह चाहती तो पूरे इलाके में बदहवास होकर काफी तबाही मचा सकती थी। किंतु उसने ऐसा कुछ भी नुकसान करने की बजाय, चुपचाप पानी में जाकर खड़ा होना मुनासिब समझा। लेकिन, सफूरा दनसान होते हुए भी लोगों को अमानवीय कृत्य के लिए दंगाइयों को उकसाने का अक्षम्य अपराध करती रही। ऐसे में सफूरा जरगर के आरोपों के ऊपर मातृत्व का हवाला देना और भारत पर ऊँगली उठाना क्या सफूरा के अपराधों को छिपाने का प्रयास नहीं है? क्या रानी लक्ष्मीबाई के योगदानों को देश भुला सकता है, जिन्होंने पीठ पर संतान को लेकर दुश्मनों को छठी का दूध याद दिलाया था और उसी देश में कमांडो सुनैना पटेल जैसी जिंदा उदाहरण भी हैं जिन्होंने, गर्भावस्था में भी नक्सलियों के खिलाफ मोर्चा सँभाला।
सफूरा जैसे दोषी साबित होने वाले आरोपितों के बारे में आज वामपंथी और कट्टरपंथी अपनी खून की प्यास को सही ठहराने के लिए माँ के गर्भ का इस्तेमाल करने लगने हैं। क्या इन वामपंथी जमातियों को ये याद नहीं कि जिस मामले में सफूरा गिरफ्तार हुई है, उसी के कारण 50 से ज्यादा निर्दोष लोगों की लाशें गिरी थीं। अनिल स्वीट हाउस में काम करने वाले दिलबर सिंह नेगी के हाथ-पाँव को दंगाइयों की भीड़ ने तलवार से काटकर उनका शव आग के हावाले कर दिया खुफिया एजेंसी का जवान अंकित शर्मा को बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया।
इन सब घटनाओं का जवाब कौन देगा? क्या इसके लिए सफूरा से सवाल नहीं पूछे जाने चाहिए? दिल्ली दंगे कोई फिल्म के सीन नहीं थे, जिन्हें स्मृतियों से रद्द कर दिया जाए। यह कोई काल्पनिक घटना भी नहीं थी, जिसे हिंदुओं ने अपने मनमुताबिक गढ़ लिया हो। बल्कि, रची-रचाई साजिश थी। जिसे सुनियोजित ढंग से अंजाम दिया गया। अब सफूरा का पूरे दंगों में क्या रोल था? इसे साबित करना पुलिस का काम है। लेकिन, बेवजह एक आरोपित के लिए इतनी संवेदनाएँ उड़ेलकर भारत की छवि को बिगाडऩा वामपंथी गिरोह के लोग आखिर क्या साबित करना चाहते हैं?