प्रधानमंत्री मोदी के लद्दाख दौरे से बढेगा सेना का मनोबल : कर्नल बागची
कोलकाता। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के औचक लेह दौरे को सेना का मनोबल बढ़ाने वाले कदम के तौर पर देखा जा रहा है। जाने माने सुरक्षा विशेषज्ञ सेवानिवृत्त कर्नल सब्यसाची बागची ने कहा कि प्रधानमंत्री के लेह-लद्दाख दौरे के कई मायने हैं। पहला तो यह कि चीन भारत के बीच तनाव चरम पर है और स्थिति गंभीर है। दूसरी प्रधानमंत्री ने लेह लद्दाख का औचक दौरा कर यह संदेश दे दिया है कि हम चीन को अपने देश की 1 इंच की भूमि नहीं छोड़ेंगे। इसके अलावा प्रधानमंत्री के लद्दाख दौरे से वर्तमान तनावपूर्ण हालात और टकराव के बीच सेना का मनोबल काफी बढ़ेगा। हम तीन तरफ से संकट में घिरे हैं। पाकिस्तान अलग से फायरिंग कर रहा है। चीन पीछे नहीं हट रहा है जिसके वजह से हालात सुधरने के बजाय और तनावपूर्ण होते जा रहे हैं और तीसरा कोरोना संकट है जिससे पूरी दुनिया पस्त है। ऐसे में प्रधानमंत्री का औचक लेह दौरा सैनिकों के लिए काफी मायने रखती है।
कर्नल बागची ने शुक्रवार को भारत-चीन संबंधों के वर्तमान तनावपूर्ण हालात पर हिन्दुस्थान समाचार से विस्तृत बातचीत की। उन्होंने कहा कि अपनी अतिक्रमणवादी नीतियों की वजह से भारत के लिए आज खतरा बन रहा चीन कभी भी भारत का पड़ोसी नहीं रहा। 1962 के युद्ध में भारत की शिकस्त के बाद तत्कालीन सरकार द्वारा उसकी शर्तों को मानकर पीछे हट जाने की भूल हम आज तक भुगत रहे हैं।
कर्नल सब्यसाची बागची ने "हिन्दुस्थान समाचार" से विशेष बातचीत में कही। चीन समस्या के स्थायी समाधान के बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा कि चीन की सीमा कभी भी भारत से नहीं लगती थी। ब्रिटिश काल में चीन और भारत के बीच तिब्बत था तथा तिब्बत से चीन की सीमाएं लगती थीं। 1962 के युद्ध में जब भारत की सशस्त्र सेनाएं परास्त हो गईं तब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने तिब्बत में चीन का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया और उसके बाद से चीन अपने अतिक्रमणवाद की नीति को अपनाते हुए पूरे तिब्बत पर कब्जा जमाया गया और भारत का पड़ोसी बन बैठा।
कर्नल सब्यसाची ने बताया कि चीन के साथ भारत का पंचशील समझौता हुआ था लेकिन चीन आज तक उस पर कायम नहीं रहा है। तिब्बत में चीन का वर्चस्व स्थापित हो जाने के बाद से ही जम्मू कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर तक चीन की सीमा को लेकर विवाद बढ़ा और आज तक कायम है। उन्होंने कहा कि 62 के बाद 67 में भी चीन से युद्ध हुआ था और भारतीय सशस्त्र बलों ने 500 से 700 की संख्या में चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया था। तब चीन को इस बात का अहसास हो गया था कि भारत से सीधी लड़ाई में अब वह कभी जीत नहीं सकता। क्योंकि 62 के युद्ध में भारतीय सशस्त्र सेनाएं तैयार नहीं थीं और तत्कालीन सरकार सशस्त्र सेना की जरूरत को नहीं समझती थी। लेकिन जब हमारी हार हुई उसके बाद उसी सदमे में जवाहरलाल नेहरु की मौत भी हो गई।
उसके लाल बहादुर शास्त्री ने सशस्त्र बलों की ना केवल जरूरत पर बल दिया बल्कि उन्हें शक्तिशाली बनाने के लिए भी आधार तैयार किया। उसके बाद 1967 में जब दोबारा टकराव हुआ तो चीन के दांत खट्टे हो गए थे और उसके बाद से ही चीन को इस बात का अहसास है कि वह भारत से सीधी लड़ाई में अब कभी भी जीत नहीं सकता। हालात बदल गए हैं। आज 2020 है और भारत चीन पर हर तरह से भारी पड़ेगा। उसकी सीमा पर हमारे साजो सामान और मजबूती पहले के मुकाबले कई गुना बढ़ी है जबकि आंतरिक तौर पर चीन खोखला हुआ है।
चीन की सीमा पर कई बटालियन और टुकड़ियों के कमांडर रह चुके सेवानिवृत्त कर्नल बागची ने बताया कि आज हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का रुख चीन के प्रति सख्त है और सेनाओं का मनोबल भी भारी है। इसीलिए चीन भली-भांति यह बात समझता है कि भारत से सीधे टकराव में उसे कभी जीत हासिल नहीं होगी। इसी वजह से अपने अतिक्रमणवादी नीति को अपनाता है। कभी नेपाल को आगे खड़ा करता है तो कभी बैक डोर से पाकिस्तान की मदद करता है। कर्नल सब्यसाची ने बताया कि इस समस्या का स्थाई समाधान निकालने के लिए चाइनीज, तिब्बतियन सीमा पर एग्रीमेंट करना होगा और वह एग्रीमेंट ना केवल कागज पर हो बल्कि भूमि पर उसका रेखांकन किया जाये। सीमाएं तय करनी होंगी। चीन अपनी हद में रहे इस बारे में ठोस दस्तावेज तैयार करने होंगे। तभी चीन की समस्या का स्थाई समाधान हो सकता है।
उन्होंने बताया कि 62 के बाद से चीन ने भारत के 12000 स्क्वायर फुट भूमि पर कब्जा बरकरार रखा है। इसके पीछे कई ग़लतियां हैं। सरकारों का ढुलमुल रवैया और चीन की तरफ से आंखें बंद कर रखना भी एक बड़ी भूल है। हमें अपनी भूल सुधारनी होगी। कर्नल बागची ने स्पष्ट तौर पर बताया कि आने वाली पीढ़ियों को अगर चीन की समस्या से मुक्ति दिलानी है तो यह सही समय है और भारत सरकार को चीन के खिलाफ अपनी कूटनीति से लेकर राजनीतिक और आर्थिक से लेकर सैन्य शक्ति तक का इस्तेमाल कर जमीनी स्तर पर सीमा तय कर लेनी होगी। यह न केवल भारत की आत्मनिर्भरता के लिए जरूरी है बल्कि सुपर पावर बनने की दिशा में भी भारत का सबसे मजबूत कदम होगा।