दिल्ली विधानसभा चुनाव: वरिष्ठ पत्रकार रमण रावल का विश्लेषण, असल लड़ाई मतदाता व केजरीवाल के बीच है…
रमण रावल: केजरीवाल की सबसे बड़ी फितरत यह है कि वे जो चाहते हैं उसे पाने के लिये वे किसी भी हद को पार कर जाने से परहेज नहीं करते। उनके अभी तक के क्रियाकलाप को देख लेने भर से तसल्ली की जा सकती है ।
उन्होंने अपनी राह के प्रत्येक कांटे,कंकर-पत्थर को उखाड़ फेंका और पलट कर भी नहीं देखा ।जनता तो उनकी असलियत समझ ही चुकी है, कांग्रेस ने भी इसीलिये केजरीवाल की राह में रोड़ा डाला है।
कोई कुछ भी कहे, लेकिन मेरा ऐसा मानना है कि इस बार दिल्ली विधानसभा चुनाव देश की राजधानी के निवासियों व आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल के बीच है। यहां आम आदमी पार्टी गौण है। आप के अभी तक के सफर में इस दल की पहचान केजरीवाल की वजह से ही है और केजरीवाल ने भी अपने आचरण से इस धारणा को पुख्ता किया है कि केजरीवाल ही आम आदमी पार्टी है। शेष जो भी हैं, वे हाशिये पर हैं।
जो गिने-चुने आप नेता ऐसा नहीं मानते थे, उन्हें केजरीवाल ने बेहद चतुराई से हाशिये पर धकेल दिया । इसलिये आम तौर पर चुनाव में जो जंग राजनीतिक दलों व उनके नेताओं के बीच होती है, वह दिल्ली में मतदाता व केजरीवाल के बीच ही मानी जानी चाहिये। मतदान के संकेत बता रहे हैं किे दिल्ली के नतीजे पिछले दो चुनावों के उलट जा रहे हैं ।
देश भर में एक चर्चा तो आम है कि दिल्ली इस बार ज्यादा दूर केजरीवाल के लिये है। हमेशा की तरह कांग्रेस के पास खोने-पाने को न कुछ है, न कोई खुशी न कोई गम होने वाला है । खोने का डर केजरीवाल को ही सबसे अधिक है और उसके ढेर सारे कारण हैं।
सबसे बड़ा तो यह कि जीत जहां दुकान को डिपार्टमेंटल स्टोर में बदल देती, वहीं हार दुकान भी खाली कराने के दबाव में आ जायेगी। इससे भी बढ़कर सदी के इस महा महत्वाकांक्षी नेता के सामने यह संकट खड़ा हो जायेगा कि उसके राष्ट्रीय नेता होने का सपना चकनाचूर हो जायेगा।
चुनाव के पहले से उनके सारे पैंतरें इस बाबत थे कि वे विपक्षी दलों के गठबंधन के नेता हो जायें। फिर अगले लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद के दावेदार बनकर खड़े हो सकें। राजनीति में इस तरह के मुगालते पालने का अधिकार सभी को है । केजरीवाल की सबसे बड़ी फितरत यह है कि वे जो चाहते हैं उसे पाने के लिये वे किसी भी हद को पार कर जाने से परहेज नहीं करते।
उनके अभी तक के क्रियाकलाप को देख लेने भर से तसल्ली की जा सकती है । उन्होंने अपनी राह के प्रत्येक कांटे,कंकर-पत्थर को उखाड़ फेंका और पलट कर भी नहीं देखा । इसके लिये तमाम सफेद झूठ भी पुरजोर तरीके से कहे। संभवत केजरीवाल की इसी मंशा को भांपकर ही कांग्रेस रियासत के राजकुमार राहुल गांधी ने दिल्ली विधानसभा चुनाव का मैदान संभाला था। उनका मकसद केजरीवाल की हार भर ही नहीं था, बल्कि बुरी गत करने का मन भी रहा ही होगा। उसकी वजह यह है कि वे भविष्य में विपक्ष की राजनीति के केंद्र में आ गये तो गांधी परिवार के रुतबे,एकाधिकार पर ग्रहण लग जायेगा।
राजनीति का प्राथमिक छात्र भी यह समझ सकता है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में यदि लोकसभा चुनाव के समय के विपक्षी गठबंधन में साथ रहे कांग्रेस व आम आदमी पार्टी विभाजित हुए तो इसका सीधा फायदा केवल भाजपा को ही मिलेगा। फिर भी कांग्रेस ने मजबूत उपस्थिति दर्शाई तो समझ में न आने जैसा बचता ही क्या है?
केजरीवाल के सामने पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के बेटे संदीप को इसीलिये खड़ा किया गया कि वे उस क्षेत्र के मुस्लिम,दलित,पिछड़े मतदाताओं का अधिकतम समर्थन हासिल कर केजरीवाल के वोट बैंक को खाली करें, ताकि भाजपा प्रत्याशी प्रवेश वर्मा की राह आसान हो सके। ऐसा कमोबेश उन सभी सीटो पर होने की संभावना है, जो मुस्लिम व पिछड़े बहुल क्षेत्र हैं। वैसे भी आप गौर करें कि इस बार का चुनाव केजरीवाल ने बेहद रक्षात्मक तरीके से लड़ा।
वे अपने ऊपर लगे आरोंपों से ही पार नहीं पा सके। खुद गंभीर भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे होने के अलावा शीशमहल,शराब घोटाला,दंगे के आरोपियों का बचाव,सहयोगियों के भ्रष्टाचार के दलदल में ऐसे फंसे कि बचाव की मुद्रा ज्यादा अनुकूल लगी। फिर पिछले दो चुनावों में जिस तरह से रेवड़ियों का मायाजाल था,उसे तो भाजपा-कांग्रेस दोनों ने ही तार-तार कर रखा था। यही कारण था कि भारतीय चुनाव राजनीति का सबसे बोथरा तीर चलाते हुए उन्होंने हरियाणा की भाजपा सरकार पर यमुना के पानी में जहर मिला देने जैसा आधारहीन आरोप लगा दिया, जिसका पलटवार उन्हें आगामी दिनों में भी भारी पड़ने वाला है।
अपनी आसन्न हार के मद्देनजर उनकी खीज का दूसरा नमूना यह रहा कि उन्होंने इस आरोप को लेकर चुनाव आयोग को शिकायत कर दी और जब आयोग ने प्रमाण मांगा तो उस पर भी आरोप लगाने से नहीं चूके। इसने भी दिल्ली के लोगों के सामने पूरी तरह से केजरीवाल का चेहरा उजागर कर दिया।
दिल्ली विधानसभा चुनाव में एक और ऐसा तबका है, जिसके वोट मायने रखते हैं, वह है विभिन्न राज्यों के ऐसे करीब 15 लाख मतदाता, जो अपने गृह राज्य में भी मतदाता हैं । याने वे दो जगह मतदान करते हैं।
ये लोग ज्यादातर उप्र, बिहार, हरियाणा, पंजाब, बंगाल, उड़ीसा, झारखंड से अकेले दिल्ली में रोजगार के लिये रहते हैं, जहां मतदाता परिचय पत्र भी बने हैं। जिस दिन मतदान आधार से संबद्ध कर दिया जायेगा,उस दिन इस तरह का फर्जीवाड़ा भी खत्म हो जायेगा। इनकी भूमिका भी मायने रखेगी।
बहरहाल, एक बात तो पक्की है कि इस बार केजरीवाल के पास जादू की ऐसी कोई छड़ी नहीं है, जिसके घुमाते ही 60 से ऊपर सीटें प्राप्त कर लें। अभी तक वे जिस तरह से डमरू बजाकर मुफ्त की रेवड़ियां लुटा देते थे, वे तो भाजपा और कांग्रेस ने भी भर पल्ले लुटा दी। याने केजरीवाल के लिये नया कुछ नहीं छोड़ा । उन्हें नुकसान इस बात का है कि उनके विधायकों,पार्षदों व गली-मोहल्ले के नेताओं ने भी सार्वजनिक कामों में जमकर चांदी कूटी है। एक ही उदाहरण काफी होगा कि चांदनी चौक क्षेत्र के अंदर की गलियां अभी-भी राजस्व रिकॉर्ड में गरीब बस्तियां ही हैं।
वहां कोई नक्शा स्वीकृत नहीं होता याने नया निर्माण नहीं कर सकते । इसका तोड़ यह है कि क्षेत्रीय पार्षद व नगर निगम अधिकारी को रिश्वत दो और मनचाहा निर्माण कर लो। इस लूट से जनता खासी चिढ़ी हुई है।
फिर, सड़क, गटर, ड्रेनेज, सफाई व अन्य विकास कार्यों के मसले अपनी जगह पर हैं ही। शराब दुकानों के किराना दुकान की तरह खुलने, सस्ती शराब मिलने व शराब घोटाले में करोड़ों के भ्रष्टाचार के मामले में मंत्रियों सहित केजरीवाल के जेल जाने के मुद्दे मध्यम तथा उच्च वर्ग के लिये मायने रखते ही हैं।
उधर, भाजपा ने दिल्ली में विकास के सुनहरे सपने दिखाकर प्रभावित तो किया ही है, केजरीवाल से कई कदम आगे बढ़कर सुविधाओं का पिटारा भी खोल ही दिया था। रही-सही कसर नया वेतनमान घोषित करने से पूरी हो गई।
इसने केंद्रीय कर्मचारियों को खुश कर दिया है। ऐसे में ताज्जुब नहीं कि आम आदमी पार्टी 20 सीटों के भीतर ही छटपटा कर रह जाये।