पुस्तक समीक्षा: हवेली संगीत की सांगीतिक यात्रा का नवाचार और नाद का भक्ति रूप है 'हिलग'
पुष्टिमार्गीय शीतकालीन पदों का काव्यसंग्रह 'हिलग'
@मधुकर चतुर्वेदी : धर्म ने अपने विचारों को जब गद्य में व्यक्त किया तो इसे कथा कहा गया। जब कथा को पद्य में बांधा गया तो इसे वाणी कहा गया और जब वाणी को संगीत से सजाया गया, तब इसे कीर्तन कहा गया। भारतवर्ष में अनादिकाल से कीर्तन ही वह माध्यम है रहा है, जिससे मानव मात्र का अपने आराध्य से सीधा सम्बंध स्थापित हो जाता है। साहित्य और संगीत की दृष्टि से देखें तो पुष्टिमार्गीय संगीत की परंपरा मध्यकाल से वर्तमान तक अति समृद्ध, प्राचीन और प्रमाणिक है। जगद्गुरू श्रीमद् बल्लभाचार्य से लेकर गोस्वामी श्री विठ्लनाथ और अष्टछाप के महान कवियों ने अपने कीर्तन में ध्रुपद-धमार की पुरातन शैली को अमरत्व प्रदान करते हुए उसे उत्कर्ष पर पहुंचाया। आज भी ध्रुपद-धमार, ख्याल, होरी, ठुमरी लोक गायन, फिल्मी संगीत के कलाकार अष्टछाप और हवेली संगीत के प्रति आभार व्यक्त करते हैं। मध्यकाल से लेकर वर्तमान तक हवेली संगीत की इस यात्रा में नवाचार जारी है और इस नवाचार का नाम है ‘हिलग’।
प्रभू परवशता की वांग्मय विवशता है ‘हिलग’ काव्यग्रंथ
‘हिलग’ इस शब्द के उच्चारण में भक्ति का नाद है, गोपी का भाव और ब्रजवास की लय के साथ प्रकृति की कलाधर्मिता भी है। यह ‘हिलग’ जितना विलक्षण है, इसके शिल्पकार गोस्वामी ‘श्री आभरण रणछोड़लाल’ भी उतने विलक्षण हैं। ‘हिलग’ पुष्टिमार्ग के आचार्य और ब्रज—संस्कृत भाषा के लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार, संगीतज्ञ ‘गोस्वामी आभरण’ की काव्यकृति है और प्रभू परवशता की वांग्मय विवशता भी है। भक्ति संगीत के नवोत्थान का प्रयास भी। अहमदाबाद स्थित श्री नववरप्रभू को नित्य लाढ़ लढ़ाते हुए गोस्वामी आभरण ने प्रभू की शीतकालीन कीर्तन सेवा में अतिशय वृद्धि करते हुए अहमदाबाद स्थित गोस्वामी श्री विठ्लनाथ जी लीलास्थली असारवा बैठक से ‘हिलग’ काव्य ग्रंथ साहित्य और संगीत प्रेमियों को प्रदान किया है। हिलग काव्यग्रंथ में पाठकों को संगीत, भाषा, काव्य, छंद, अलंकार, पद्धतियां, प्रणालियां, धाराएं, शैलियां, वाद्य, नृत्य, गायन और तालें तो मिलेंगी ही, साथ ही मन के कोमल और रागमय भावों की लय सहित सरसता पूर्वक अभिव्यक्ति भी पाठकों को ब्रज के उस प्राचीन रूवरूप का अनुभव कराएंगी, जिसमें प्रिया-प्रियमत अपनी सहचरियों के साथ नित्य विहार करते हैं।
ब्रजभक्तों के हृदय का भाव है ‘हिलग’
हिलग काव्यग्रंथ का परिचय देते हुए गोस्वामी आभरण कहते हैं कि हिलग ब्रजभक्तों के हृदय के भाव हैं। हिलग अर्थात ‘हियलय’। पुष्टिमार्ग में अंतरमन की स्नेह दशा और बाह्य व्याकुलता का वर्णन हिलग के पदो में किया जाता है। यह भक्त के अपने भगवान के प्रति मनोवस्था का काव्य है। पुष्टिमार्ग के आचार्यो सहित अष्टछाप कवियों ने खंडिता के सुंदर भाव से हिलग के पदों का गायन किया है। हिलग के पद शीत प्रधान हैं और पुष्टिमार्ग में हिलग के पद प्रभू सेवा में हेमंत ऋतु में प्रकट होते हैं। गोस्वामी आभरण बताते हैं कि हिलग के पद प्रभू को अतिप्रिय हैं। हिलग के कई प्रकार के भाव रस शास्त्रों में अभिवर्णित है और भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में दसरस के अंतर्गत हिलग के भावों का वर्णन मिलता है। हिलग के पदों का पवित्रम संगीतमय रूवरूप अति आनंददायी है।
नौ खंडों में निबद्ध है ‘हिलग’ काव्यग्रंथ
गोस्वामी आभरण ने हिलग काव्यग्रंथ की रचना नौ खंडों में की है और मंगलाचरण सहित इसमें विभिन्न रागों में 109 पदों का संग्रह है। काव्यग्रंथ में मुकुन्द मूरतमाधुरी, मोहन मोहिनीमाधुरी, माधव मनोरथमाधुरी, श्यामल सुरतमाधुरी, श्रीपति सौभाग्यमाधुरी, वेणुधर विप्रयोगमाधुरी, विष्णु व्यवसनमाधुरी, बल्लभ वाममाधुरी और अच्युत आश्रयमाधुरी इन नौ खंडों में प्रत्येक में 12 पद हैं। पाठक के मंगलाचरण में प्रवेश करते ही उन्हें अनुभव हो जाएगा कि काव्यग्रंथ में केवल साहित्य ही नहीं, केवल संगीत ही नहीं, बल्कि पूरा काव्यग्रंथ नाद रूप है-‘न नादेन विना गीतं न नादेन विना स्वरः। न नादेन विना नृत्यं तस्मात्रादात्मकं जगत’। मंगलाचरण का प्रथम पद राग आसावरी में निबद्ध है। ‘चहु रूप मंगल तिहरे ही देखत, भई हौं अडग आधीन। रूप गोपाल मेरे जीवन धन, धेतु चरावत लीन। बालकृष्ण छवि गृह अंगना, धरू गिरिधन जग तल्लीन, आपु सुघर रस वर मधुसूदन करि विलोक रस भीन। भांत रमण रस रूप एक वपु पद रज द्यों तिप छीन। आभरण बिनु कासौं कुछ उचरौं, कथन कला बल हीन। मंगलाचरण के बाद प्रथम खंड मुकुन्द मूरतमाधुरी में प्रेमलक्षणा भक्ति का वर्णन किया गया है। राग तोड़ी में प्रथम पद-अहौ वे नैनन की सुंदराई। अति ही अगाध पयोधि रसिक मणि रत्नाकर दृष्टि माई। इसी में आगे एक और पद गोस्वामी आभरण ने बहुत सुंदर लिखा है-माधौ जू द्वै लोचन अति प्यारे, नेह भरे गुन करूब अरून अलि पंकज जोर सुचारे। इस खंड में संगीत प्रेमियों को राग धनाश्री और असावरी की कई रचनाएं मिलेंगी। अगला खंड मोहन मोहनीमाधुरी में राग आसावरी में ‘मोहन साखी देख देख जी आयो, अति रस मैन गहन दृग संग अंग कौबु नहि आयो’ में ब्रजभाषा की शब्द रचना अति विलक्षण हैं। माधव मनोरथमाधुरी खंड में प्रेमलक्षणा भक्ति के अंतर्गत गोपियों के मन में प्रभू के प्रति जो मनोरथ उत्पन्न होता है, उसका वर्णन है। राग आसावरी में ‘नित सुमरू गोवर्धननाथ, कब वपु देखूं रसबसु पैखूं कब पामू शिर हाथ’ पद में अनुप्रास अलंकार की शोभा देखते ही बनती है। ‘चोर तो चोर चुगलखोर नंद को खिलार जसुमति के कहन बचन जब ही हौं आउं’ एक ध्रुपद रचना की ओर संकेत करती है।
श्याममल सुरतमाधुरी खंड में राग रामकली का पद ‘प्रीत बहु कीनी काल्ह हि सजनी’ एक छोटी लेकिन, सुंदर रचना है। श्रीपति सौभाग्यमाधुरी खंड में राग तोड़ी में ‘तोडी री जग की सब प्रीत, पूरन रसिक नंदनंदने लीनौ हिरदौ जीत’ पद भारतीय शास्त्रीय संगीत की स्वर गंभीरता को व्यक्त करता है। इसी में आगे एक पद ‘कौनु म्हूर्त नच्छत्र छिनक दिन बार जू लागै नैन’ लेखक की ब्रजभाषा की व्यापक पकड़ को दर्शाता है। वेणुधर विप्रयोगमाधुरी खंड में श्रीकृष्ण के वेणुधारण करने के प्रयोजन और उसके माधुर्य पर काव्य रचनाएं हैं। राग तोड़ी में ‘मेरो मन तरपत हरि पे अटकयो’ पद में संसार से विरक्ति की भावदशा और प्रभू की ओर ध्यान का आकर्षण है। वेणुधर विप्रयोगमाधुरी खंड में प्रभू के प्रति जो नित्य प्रेम व्यसन हैं, उसको काव्य रूप देते हुए गोस्वामी आभरण लिखते हैं ‘अब तो श्याम छवि हिय भावै, हों तो चोंक परूं छिन छिन मैं जब जब मुरली बजावै’। वल्लव वाममाधुरी खंड के प्रत्येक पद को पढ़ने से ध्यान में आता है कि धर्म का संगीत के साथ जो सम्बंध है, उसका तादात्म्य स्थूल से कहीं अधिक सूक्ष्म से है। लिखा है ‘हौं तो बहु समुझाये नैना, धीर न धारे चंचल बिचारे, अनियारे नहीं चैना’। पुस्तक के अंतिम खंड अच्युत आश्रयमाधुरी के पदों में जो रस है, वह अवर्णनीय है। प्रथम और अंतिम पद ही बहुत सुंदर है ‘मन तो वा स्यामल को होनों, अंश न आनि लाग काहू की नेह ह्रदय को कोनों’। आगे गोस्वामी आभरण ने ‘बंदौं ते हियलग बारंबार, जा गति गंध हूं दुर्लभ देव मुनिजन मन धर सार। सो गिरिवरस्वामी बहुनायक खेलत बोलन द्वार, सदा रहौ हिय मूढ आभरण गोवल्लभ उपहार’ लिखकर काव्यग्रंथ की पूर्ति की है।
ब्रजभाषा के सौंदर्य के साथ हस्तनिर्मित चित्रों का संग्रह
गोस्वामी आभरण ने काव्यग्रंथ हिलग में सभी पदों को ब्रजभाषा में लिखा है। गोस्वामी आभरण ने बताया कि आज भी पुष्टिमार्ग की ऊर्जा भूमि गोकुल है। मुगलकाल में प्रभू के साथ उनके पूर्वज अहमदाबाद में जाकर बसे। गोस्वामी आभरण बताते हैं कि उनका पूरे गुजरात में प्रवास रहता है लेकिन, निजी जीवन में सभी कार्य ब्रजभाषा में ही होते हैं। हिलग काव्यग्रंथ में ब्रजभाषा के प्राचीन शब्दों का प्रयोग इसलिए भी किया है क्योंकि पुष्टिमार्ग के अधिकांश पद ब्रजभाषा में निबद्व हैं और आज भी शास्त्रीय संगीत से लेकर लोक और फिल्मी संगीत में ब्रजभाषा की रचनाओं का गायन होता है। ब्रजभाषा को साहित्य में इतना अधिक महत्व इसलिए भी दिया गया है क्योंकि वह हमारे जीवन को बहुत प्रभावित करती है, शिक्षित, प्रशिक्षित कर जीवन की सृजनात्मक क्षमता का भी नियमन करती है। वैसे भी भारतीय भाषाओं ने ही तो जीवन को आदर्शमय बनाया है और ब्रजभाषा का तो कहना ही क्या, ब्रजभाषा के साथ कला भी है और इसलिए ब्रजभाषा को जीवन कहा गया है। ब्रजभाषा के कण-कण में संगीत सरिता का कर्णप्रिय कल-कल निनाद व्याप्त है। गायकों को ब्रजभाषा की नई रचनाएं मिलें, वैष्णव भक्तों को प्रभू की सेवा के लिए पद मिलें और भारतीय साहित्य को जीवन मिले, इस दृष्टि से हिलग काव्य ग्रंथ की रचना की। गोस्वामी आभरण ने बताया कि संपूर्ण काव्यग्रंथ में प्राचीन शैली में श्रीराधाकृष्ण के चित्र हैं और सभी चित्र किसी से प्राप्त ना करते हुए अहमदाबाद के ही स्थानीय वैष्णव भक्त से काव्यानुसार बनवाए गए हैं।
भक्तिमार्ग की उत्कृष्ट परिकल्पनाओं की शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्ति ‘हिलग’
हिलग पुस्तक पढ़ने से ध्यान में आता है कि राष्ट्र के नवोत्थान के लिए महापुरूषों ने संगीत को माध्यम माना। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण कृष्ण भक्ति कालीन साहित्य है। जिसके निर्माण में संगीत अपनी धार्मिक प्रवृति तथा विश्वव्यापी महत्ता के कारण प्रमुख माध्यम आधार तथा उपादान बना। संगीत में स्वर श्रुति आदि का एक स्वाभाविक अर्थ है जिसमें रस उत्पन्न होता है। ना केवल साधना बल्कि संगीत से जुड़ी नाट्यलीला, कीर्तन, स्मरण आदि क्रियाओं से लोक को धर्मोन्मुख करने की दिशा में प्राचीन काल से धर्म ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसलिए मंदिरों को धार्मिक संगीत और उससे जुड़ी अन्य विधाओं का आश्रयक कहा गया है। हिलग काव्यग्रंथ में देव स्वरूपों पर ध्यान, उनके श्रंगार, उनकी स्थिति, उनसे जुड़े पर्व प्रसंग और लीलाओं की अभिव्यक्ति के रूप में पद कीर्तनों का देवालयों की छत्र-छाया में पोषण स्पष्ट दिखायी देता है। हालांकि हिलग से पूर्व गोस्वामी आभरण के तीन ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। फिर भी, हिलग काव्यग्रंथ में गोस्वामी आभरण ने आत्मिक अभिव्यक्ति से कहीं अधिक भक्तिमार्ग की उत्कृष्ट परिकल्पनाओं की शब्दों के माध्यम से जो अभिव्यक्ति की है, उसका स्वरूप पाठक, सूरदास, कुंभनदास, परमानंददास के काव्य में देख सकते हैं।
—लेखक स्वदेश के आगरा/झांसी संस्करण के संपादक हैं।